हरेक भारतीय आदि शंकराचार्य का ऋणी

05 नवम्बर, 2021 By: विजय मनोहर तिवारी
केरल से लेकर केदार तक श्री शंकराचार्य जी के चरण चिन्ह चप्पे-चप्पे में मौजूद हैं

केदारनाथ में आदि शंकराचार्य की प्रतिमा कुछ स्मरण करा रही है। वह भारत पर चढ़ा एक ऐसा ऋण है, जो विस्मृत सा है। भारत की सनातन आध्यात्मिक परंपरा के एक जगमगाते पड़ाव हैं- आदिगुरु शंकराचार्य।

महान् ऋषि परंपरा की एक ऐसी कड़ी, जिन्होंने भारत को भारतीयता से सिंचित किया। आचार्य शंकर की पदचाप केरल के समुद्र से लेकर केदारनाथ के मौन पर्वतों में आज भी ताजा है। उनकी देशना गुरुकुलों और आश्रमों में सदियों से गूँज रही है। 


शंकर की देशना है कि नश्वर शरीर तक दृष्टि सीमित मत रखो। यह भाव हमेशा रखो कि मैं ही विश्व हूँ। सारा विश्व मेरे शरीर का ही अंग है। सोचिए, असावधानी से भी अगर जीभ दाँतों के बीच आकर कट जाए और रक्त निकलने लगे तो क्रोध नहीं आएगा और न ही दाँतों को तोड़ने का मन होगा। क्यों? इसलिए कि यह भाव हमारे भीतर बना रहता है कि दाँत भी मेरे ही हैं। इन्हें कैसे क्षति पहुँचा सकता हूँ।

जिसका निश्चय ऐसा होगा कि यह पूरा विश्व ही मेरा रूप है तो यह जगत कितनी व्याधियों से मुक्त हो सकता है। ‘यूनिवर्सल वननेस’ (Universal Oneness) का वही भाव आज अज्ञान और आतंक से भरी दुनिया में सुरक्षा और विकास की गारंटी है।

शंकर कहते हैं, “अविद्या से मुक्ति के लिए किसी लंबी भूमिका की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान रोशनी की एक किरण या बिजली की एक कौंध में ही सब कुछ प्रकाशित कर सकता है।”


केरल के कालडि में उनके माता-पिता ने अपने इष्ट के समक्ष एक दीर्घायु बुद्धिहीन पुत्र की बजाए अल्पायु पुत्र की कामना की थी, जो सर्वज्ञ हो। पिता अल्पायु में ही चल बसे थे। माँ से संन्यास की आज्ञा लेकर शंकर आठ वर्ष की आयु में दक्षिण से निकले थे और मध्य प्रदेश ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर गुरू गोविंदपाद के समक्ष उपस्थित हुए थे।

समाधिस्थ गुरू ने पूछा- “बालक तुम कौन हो?” शंकर का उत्तर है- “स्वामी! मैं न तो पृथ्वी हूँ, न जल हूँ, न अग्नि हूँ, न वायु हूँ, न कोई गुणधर्म हूँ, मैं इंद्रियों में से कोई इंद्रिय भी नहीं हूँ, मैं तो अखंड चैतन्य हूँ।” और अद्वैत वेदांत परंपरा के एक प्रसिद्ध ऋषि को अपने समय का एक सर्वज्ञ शिष्य मिल गया। मध्य प्रदेश को उन्हीं आदि शंकर की पवित्र गुरूभूमि बनने का सौभाग्य प्राप्त है।

शंकर के जीवन का एक प्रसंग है। वे श्रृंगेरी जा रहे थे। प्रभाकर नाम के एक ब्राह्मण अपने इकलौते बेटे के साथ उनके समक्ष आते हैं। तेरह साल का वह बेटा जड़वत है। गूँगा। कुछ बोलता ही नहीं। आचार्य शंकर उसी से पूछते हैं-

“हे शिशु, तुम कौन हो, किसके पुत्र हो, कहाँ जा रहे हो, तुम्हारा नाम क्या है, कहाँ से आए हो, इन प्रश्नों का उत्तर देकर मुझे प्रसन्न करो। तुम्हें देखकर मैं आनंदित हूँ।” 

शंकर की वाणी उस मौन बालक के ह्दय में उतरती है। वह खिल उठता है। उनके चेहरे पर अपनी दृष्टि केंद्रित करके कहता है- “मैं मनुष्य नहीं हूँ, देवता या यक्ष भी नहीं हूँ, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र भी नहीं हूँ। ब्रह्मचारी, गृही, वानप्रस्थी, संन्यासी भी नहीं। मैं केवल निज बोध स्वरूप आत्मा हूँ…।”

शंकराचार्य उसके पिता को बालक की पृष्ठभूमि बताते हैं कि कौन सिद्ध पुरुष उसकी देह में हैं और उनकी दिशा क्या है? बहुत बेमन से प्रभाकर अपने बेटे को आचार्य को सौंप देते हैं। हस्तामलक उनका नाम होता है और यह जो जवाब उसने आचार्य को दिया था, वह हस्तामलक स्त्रोत के नाम से प्रसिद्ध है। इस स्त्रोत में वह बालक क्या कह रहा है- “मैं यह भी नहीं हूँ, मैं वह भी नहीं हूँ…।”

हस्तामलक अपनी सारी बाहरी पहचानों को प्याज की परतों की तरह छीलकर फेंक रहा है। यह अद्वैत दर्शन का बोध वाक्य है। पिछले एक हजार साल में भारतीय उपमहाद्वीप में आक्रांताओं के भयावह आक्रमणों, लूटमारों और हत्याकांडों की उथलपुथल में सतह पर बहुत कुछ बदला।

स्मारक ध्वस्त हुए। नए इलाके बने। नई भाषाएँ आईं। लोगों की पहचानें बदली गईं। लेकिन चमत्कार ही है कि रूमी और बुल्ले शाह से लेकर कबीर और विवेकानंद तक अद्वैत का वही दर्शन हमारी चेतना में किसी अंडरकरेंट की तरह लहराता रहा। बुल्ले शाह की वाणी रब्बी शेरगिल की आवाज में सुनिए- बुल्ला की जाणा मैं कौण…अद्वैत की ही वाणी एक मुसलमान के कंठ से झर रही है।

अब शंकर की विराटता देखिए। वे बार-बार कहते हैं कि यह वो ज्ञान है, जो पहले के ऋषियों ने दिया। उन्हें उनके भी पहले के ऋषियों ने दिया। ये मेरा नहीं है। मैं सिर्फ स्मरण करा रहा हूँ। ऐसा करके शंकर हजारों साल पुरानी वैचारिक और दार्शनिक परंपरा से भारत को तो जोेड़ देते हैं और खुद परदे के पीछे बने रहते हैं। उनकी कोई रुचि नहीं है कि उन्हें स्मरण में भी रखा जाए। उनकी कोई पूजा हो। वे किसी पद पर प्रतिष्ठित हों।

हम आज भी उस महापुरुष के बारे में कितना जानते हैं? उत्तरकाशी के अपने गुरुकुल में युवा स्वामी हरिब्रह्मद्रानंदजी आश्चर्य से भरकर कहते हैं कि शंकर के दर्शन में एक मामूली सी मात्रा लायक सुधार की गुंजाइश नहीं है। वह इतना परिपूर्ण ज्ञान है। एक-एक श्लोक। एक-एक शब्द। एक-एक अक्षर। मंत्रमुग्ध करने वाली एक लय में प्रवाहित।

उत्तराखंड की भूमि 16 वर्ष के आचार्य शंकर के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुई। यहीं वेद व्यास ने उन्हें एक महान् दायित्व दिया और इसे पूरा करने के लिए अल्पायु शंकर को उम्र के 16 वर्ष और दिए। शंकर के जीवन का यह अगला अध्याय धर्म और संस्कृति के लिए अमृत तुल्य सिद्ध होने वाला था। भारत के कोने-कोने की अथक यात्राओं का एक आश्चर्यजनक अध्याय। अब वे ज्ञान की एक महालपट के रूप में अवतरित हुए।

वे जहाँ गए, वेद विपरीत साधना पद्धतियों को अपने अकाट्य तर्क से हटाया। मंदिर प्रतिष्ठानों में वैदिक साधन स्थापित किए। शंकर के सृजन में नर्मदा, यमुना और गंगा जैसी पवित्र नदियों की स्तुतियाँ सदियों से आज तक गाई जा रही हैं। ‘मनीषा पंचकम्’ में तो उन्होंने समस्त जातिभेद गिरा दिए और कहा कि ज्ञान के अनुभव को उपलब्ध चांडाल हो या द्विज, वह मेरा गुरू है।

‘दक्षिणमूर्ति स्त्रोत’ को यूट्यूब पर ही सुनिए तो लगता है अनंत की पुकार ह्दय को स्पर्श कर रही है। मंडन मिश्र के साथ उनका शास्त्रार्थ और कुमारिल भट्‌ट के साथ संवाद इतिहास प्रसिद्ध घटनाक्रम हैं।

दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत के नीति निर्धारकों और संस्थानों ने भारत के मानबिंदुओं को अतीत के अंधेरे तहखानों में ही रखकर छोड़ा और ‘बिना खड्ग, बिना ढाल’ से प्राप्त मुफ्त की स्वतंत्रता में आनंदित देश सेक्युलर तमाशे में गुम हो गया। केरल से लेकर केदार तक जिनके चरण चिन्ह चप्पे-चप्पे में मौजूद हैं, उन शांत मूर्ति शंकर के योगदान को कितना स्मरण में रखा गया? न के बराबर। मगर सच एक दिन सूरज की रोशनी सा बाहर आकर ही रहता है।

भारतीय भूभाग की विस्तृत भौगोलिक सीमाओं के चारों कोनों पर चार मठ-प्रतिष्ठानों की स्थापना के जरिए शंकराचार्य ने देश को सांस्कृतिक सूत्रों में बाँध दिया था। आज की कॉर्पोरेट शैली की तरह हरेक मठ काे एक बोधवाक्य और प्रथक संकल्प दिया। वे चारों सांस्कृतिक प्रतिष्ठान संसार की सबसे पुरानी अटूट और जीवंत परंपराओं में से एक हैं।

दसनाम संन्यास परंपरा और पंचदेव पूजन की पहल शंकर जैसे किसी क्रांतिकारी संन्यासी के ही बूते की बात थी। और कोई हो-हल्ला किए बिना 13 सौ साल पहले आचार्य शंकर अज्ञान, आतंक और अपराध से भरी इस अभागी दुनिया को क्या अमृत देकर गए, इसका सही आकलन होना अब शुरू हुआ है। केदारनाथ उनके जीवन का पवित्र प्रस्थान और उनकी पुण्य स्मृतियों का आरंभ बिंदु है।

आचार्य शंकर भारत के गहरे अंधेरे आकाश में चमकी बिजली की एक जबर्दस्त कौंध हैं, जिसने भारत को अपनी ही विस्मृत छवि के विराट दर्शन कराए। वह भारत को मिला देवताओं का आशीर्वाद हैं। वह ऋषियों का प्रसाद थे, जो भारत की हथेली पर रखा गया। स्वामी अवधेशानंद गिरि कहते हैं कि भारत भर में घूमने वाले हम लाखों संन्यासी उनके ऋणी हैं। हम कभी इस ऋण से मुक्त नहीं हो सकते। 

और यह बात सिर्फ संन्यासियों के लिए ही नहीं है। हरेक भारतीय पर यह ऋण शेष है।



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