‘द कश्मीर फाइल्स’ देखने के बाद

21 मार्च, 2022 By: विजय मनोहर तिवारी
'द कश्मीर फाइल्स' देखने के बाद विजय मनोहर तिवारी की दो टूक समीक्षा

‘द कश्मीर फाइल्स’ कश्मीर की कहानी नहीं है। कश्मीर केवल पृष्ठभूमि में है। वह 1990 की भी कोई कहानी नहीं है। 1990 केवल कैलेंडर से गुजर गया एक बदकिस्मत साल है, जो कश्मीरी हिंदुओं पर भारी पड़ा। कश्मीर के पहले और बाद में भी बहुत कुछ है। 1990 के पहले और बाद में भी अनगिनत दास्तानें हैं, जो सुनी नहीं गई हैं।

केवल कश्मीर में ही नहीं, पूरे भारत में हैं। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में हैं। अगर आप इसे सिर्फ कश्मीरी हिंदुओं की दारुण दुख से भरी आपबीती के रूप में आँसू बहाकर आ गए हैं तो आपको इतिहास पढ़ना चाहिए। 

विवेक रंजन अग्निहोत्री कश्मीर न गए होते और 1921 के केरल की फाइलों में गए होते तो वहाँ मोपला नरसंहार की ऐसी ही हृदयविदारक दास्तानें मिलतीं। वे 1946 में पश्चिम बंगाल गए होते तो हिंदुओं के खिलाफ ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ में ऐसा ही नरसंहार कलकत्ता की सड़कों पर देखते।

एक ही साल बाद 1947 में वे लाहौर से कराची के बीच पंजाब और सिंध का हाल देखते तो दूर तक कश्मीरी हिंदुओं जैसे ही करोड़ों अभागे हिंदू और सिख अपनी नियति से साक्षात्कार करते हुए मिलते। इनमें कॉमन क्या है? इन सारे दृश्यों में एक ही नारा कॉमन है और वो है-‘अल्लाहो-अकबर।’ केरल से लेकर कश्मीर तक वे ‘निजामे-मुस्तफा’ के तलबगार हैं!

यह तो एक ही सदी के रक्तरंजित अध्याय हैं। इसके पीछे अभागे भारत के हिस्से में आठ-दस सदियाँ खून से लथपथ पड़ी हैं। समकालीन 60 से ज्यादा इतिहासकारों ने फाइलों में ये सच्चाइयाँ लिख छोड़ी हैं। लेकिन ये सच इतिहास की किताबों से गायब रखे गए। ठीक वैसे ही जैसे कश्मीरियों के नरसंहार पर एक अखंड मौन व्रत धारण करके रखा गया।

स्वतंत्र भारत के सत्ताधीशों को इन पापों के लिए इतिहास कभी माफ नहीं करेगा। सच तो एक दिन सामने आना ही था। बड़े परदे पर इस सच को उघाड़ने का निमित्त विवेक रंजन अग्निहोत्री बन गए और अपने नायकों-महानायकों सहित समूचा बॉलीवुड भी एक ही जुमे को थिएटर में बेपरदा हो गया!

‘रालिव, सालिव, गालिव।’ कश्मीरी भाषा में मस्जिदों के लाउड स्पीकरों से गूंजे नींद हराम कर देने वाले इन तीन शब्दों का अर्थ सत्यम्, शिवम्, सुदंरम् नहीं है। इसके भयानक मायने हैं- ‘मोहम्मदपंथी हो जाओ, भाग जाओ या मारे जाओ।’ ये नारे आँखों से दिखाई दें इसलिए दीवारों पर बड़े और मोटे अक्षरों में पोते गए थे। यह इस्लाम का पैगाम था, उन कश्मीरियों के लिए जो मुस्लिम नहीं थे।

पूर्व कर्नल डॉ. तेजकुमार टिक्कू ने अपनी किताब में लिखा है कि 11 सौ मस्जिदों से हवाओं में यही धमकी गूँज रही थीं। हर उम्र के मुस्लिम लड़के और आदमी जिहाद के लिए सड़कों पर उतर आए थे। ज्यादातर पड़ोसी मुस्लिम हिंदुओं और सिखों के लिए अचानक अजनबी हो गए थे। 

जनवरी 1990 की कश्मीर की जमा देने वाली सर्दी में अपना सामान समेटकर जो जान बचा पाए, वे उनकी तुलना में किस्मत वाले थे, जिन्हें कतार में खड़ा करके बुरी मौत मारा गया। घरों से उठाया गया। घरों में घुसकर मारा गया। जिनकी लाशों के टुकड़े किए गए। आँखें नोंची गईं।

यह सिंध पर अरबों के कब्जे के समय की सन् 712 की करुण कथा नहीं है, न ही 1193 में दिल्ली पर कब्जा जमाने वाले तुर्क आतंकियों के समय की हकीकत है। यह सिर्फ 32 साल पहले की चीख-पुकार है। यह इस फिल्म का अलर्ट है कि जहाँ कहीं भी मस्जिदें हैं। जहाँ कहीं भी उन पर लाउड स्पीकर टँगे हैं। वहाँ कभी भी ये ऐलान हो सकता है। वक्त की बात है। कैलेंडर पर 1990 का साल कभी भी कहीं भी पलट सकता है। 

और ये दलील दमदार है कि कश्मीर के इस्लामी आतंक में जान गँवाने वाले ज्यादातर मुसलमान थे। यह साबित करती है कि इस्लाम का यह रूप अपने फैलाव में सबसे पहले अपने ही अनुयायियों को ईंधन बनाता है। वे इस्लाम का सही स्वरूप सामने लेकर आएँ। अरब के आका मोहम्मद बिन सलमान यह काम कर रहे हैं। वे हदीसों पर सवाल खड़े कर चुके हैं। वे तबलीग जमात को आतंक का दरवाजा कहकर अपने यहाँ से दफा कर चुके हैं। जबकि इनका आसमानी मरकज दिल्ली में है।

लाउड स्पीकरों से दिन में पाँच बार गूँजने वाली अजानों को नमाज के लिए न्यौता बताया जाता रहा है। लेकिन इस्लाम के जाने-माने आलिम तुफैल चतुर्वेदी ने इसके मायने तफसील से बताए हैं। यूट्यूब पर उनकी कल्याणकारी कक्षाओं के अनगिनत वीडियो लाखों लोगों ने देखे हैं।

वे बताते हैं कि अजान के अल्फाज और उनके मायने हरेक को जानने चाहिए। वह एक गौरलतब ऐलान है कि अरब का अल्लाह ही सबसे श्रेष्ठ है। कोई उसके बराबर नहीं है। कोई भगवान, कोई मूर्ति, कोई गुरू, कोई मान्यता उसके बराबर भी नहीं है। यह नमाज के लिए आमंत्रण नहीं, हरेक उस आदमी के लिए एक धमकी है, जो मोहम्मदपंथी नहीं है।

इस फिल्म ने दुनिया भर के शांति के पक्षधर मानवतावादियों के सामने कश्मीरी हिंदुओं का एक ताजा भाेगा हुआ सच बयान किया है। यह ऐसे समय हुआ है, जब पूरी दुनिया में इस्लाम गैर मुसलमानों के लिए एक गहरी दिलचस्पी का विषय बना हुआ है।

जब सीरिया मूल की अमेरिकी डॉ. वफा सुलतान और ईरान मूल के कनाडाई अली सीना की किताबें दुनिया भर में पढ़ी जा रही हैं। ये किताबें इस्लाम की महिमा में ही लिखी गई हैं। वफा सुलतान की किताब के हिंदी संस्करण का संपादन तुफैल चतुर्वेदी ने ही किया है।

अली सीना के फेथ फ्रीडम इंटरनेशनल (एफएफआई) ने उन मुसलमानों को एक मंच दे दिया है, जो स्वतंत्र सोच रखते हैं, जिन्होंने दिमाग के ढक्कन बंद नहीं किए हैं और जो मानते हैं कि अल्लाह ने भी बुद्धिमानों को पैदा करना बंद नहीं किया है। कोई किताब आखिरी नहीं है, क्योंकि छापेखाने अभी बंद नहीं हुए हैं।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। ये रचना डॉ. मोहम्मद इकबाल की है, जो चार पीढ़ी पहले सप्रू गोत्र के कश्मीरी मूल के ब्राह्मण ही थे और मोहम्मदपंथी होने के बाद सीधे अल्लामा इकबाल होकर पाकिस्तान के प्रबल समर्थक हो गए। उनकी यह रचना सेक्युलर फरेब का राष्ट्र मंत्र बनाकर परोसी गई है।

कौन कहता है कि हमारी हस्ती मिटी नहीं? अगर हम मिटे नहीं तो बामियान में बौद्ध किसने साफ कर दिए? लाहौर और कराची में राम और कृष्ण की स्मृतियाँ किस गली में कितनी बची हैं? ढाका में अब तक मंदिरों को कौन लूट और बरबाद कर रहा है?

14 अगस्त को भारत विभीषिका दिवस के संदर्भ में एक और बात साफ होनी चाहिए कि पाकिस्तान और बांग्लादेश कोई मुल्क नहीं है। यह भारत पर इस्लाम का अतिक्रमण है! नाजायज कब्जा! अल्लाह की मेहरबानी से टूटे-फूटे कश्मीर पर अतिक्रमण होने से फिलहाल बचा लिया गया है।कश्मीर के चित्रण में यह फिल्म इस्लाम के फैलाव से जुड़ी एक और महत्वपूर्ण प्रवृत्ति को रेखांकित करती है।

नेशनल कॉन्फ्रेंस के रूप में लोकतांत्रिक परिवेश में एक सियासी पार्टी। हुर्रियत के रूप में अलगाववादियों का झुंड। हिजबुल मुजाहिदीन या लश्करे-तैयबा के रूप में हथियारबंद हमलावर आतंकियों के जत्थे। तबलीग जैसी तरह-तरह की जमातें। जेएनयू में पनपी ब्रेनवॉश खरपतवारें। आईएसआई और वे सब ठिकाने जहाँ लाउड स्पीकर टँगे हैं। ये सब एक विचार बीज की फसलें हैं, जो अलग-अलग खेतों में लहरा रही हैं।

जनवरी 1990 में मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला का लंदन भाग जाना बाकी जत्थों के लिए यह संदेश था कि अब मैदान आपके लिए खुला है। खुलकर खेलिए। एक न बचने पाए। 

आजाद भारत की सेक्युलर सरकारों ने इन सब ताकतों को जमकर खाद-पानी दिया है। यही भारत के लिए घातक ईको सिस्टम है, जिसके हर कोने को ध्वस्त अगर मौजूदा सरकारें नहीं कर पाई तो भारत का कोई भविष्य नहीं है। कॉन्ग्रेस की सरकारें चूँकि ज्यादा समय सत्ता में रही हैं और कॉन्ग्रेस की रस्सी 1920 में खिलाफत की खूँटी से बाँध दी गई थी। वह अब तक वहीं बँधी खड़ी है।



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