बूढ़े अरब की ‘नेल पॉलिश’ और नए नवेले शावकों की उछलकूद!

15 सितम्बर, 2022 By: विजय मनोहर तिवारी
हाल ही में अबू धाबी में बने एवं अन्य खाड़ी इस्लामी देशों में बन रहे मंदिरों के विषय में विजय मनोहर तिवारी के विचार।

चार सालों से अरब के रेतीले भूभाग में कुछ ऐसा हो रहा है, जो पहले कभी नहीं हुआ। 14 सौ साल पहले मूर्ति पूजक अरब समाज में कुछ ऐसा हुआ था, जो पहले कभी नहीं हुआ था। वह एक नए विचार का आक्रामक आरंभ था, जब प्राचीन संस्कृति और परंपराओं के स्थान पर एक नई वैचारिक लहर उत्पन्न हुई थी।

ये लहर अपना नया कुछ रचने के साथ ही पुराना सब कुछ समाप्त करने लगी थी। शीघ्र ही इसने अरब की सीमाओं को लाँघकर दूर देशों की ओर रुख किया था। इससे पहले कि वे नए इलाके इस नई लहर के बारे में कुछ समझबूझ पाते, लहर तूफान बन चुकी थी और जो सामने आया मिटता चला गया। वह इस्लाम की लहर थी।

सबसे पहले काबे में अल-लात, अल-मनात और अल-उज्जा नाम की देवियों समेत तीन सौ से ज्यादा देव प्रतिमाओं को उनके मूल पूजा स्थान से बेदखल किया गया था। वह नई लहर किसी तरह की पूजा प्रणाली को सहन नहीं कर सकती थी।

अरब में उठे उस तूफान ने सबसे पहले अपना ही अतीत नष्ट किया। अपनी ही पहचान को मिटाया। अपने ही इतिहास से छुटकारा पाया। पुराना जो कुछ था, जाहिलों का समय था और अब जो कुछ था, वह ईमान की रोशनी थी।

अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा का यह अरब संस्करण था, जिसमें हर चीज की परिभाषा नए सिरे से गढ़ी गई। मूर्तिपूजा सबसे बड़ा पाप बताई गई और मूर्तिपूजक सबसे बड़े शत्रु निर्धारित कर दिए गए। धरती को पाप से मुक्ति एकसूत्रीय अभियान बन गई और शत्रुओं के अंतिम विनाश में समस्त ऊर्जा केंद्रित कर दी गई। सदा के लिए।

इस नए प्रकार के दर्शन ने घोषित किया कि वह अंतिम सत्य है और इस धरती के अस्तित्व में इसके सिवा जानने या मानने योग्य कुछ नहीं है। शांति के पर्याय इस स्वयंभू दर्शन ने मानवता के समक्ष दो ही विकल्प छोड़े-मानो या मरो। तलवार शांति का प्रतीक चिन्ह बन गई!

अबू धाबी में चार साल पहले देवी-देवताओं ने सदियों बाद दस्तक दी। यह एक मंदिर के निर्माण की घोषणा थी। एक हिंदू मंदिर, जिसके समृद्ध अनुयायियों ने संसार भर में अनेक भव्य मंदिर रचे हैं। मंदिर निर्माण की प्राचीन भारतीय स्थापत्य शैली के अनुसार वह एक बड़े प्रोजेक्ट की तरह आरंभ हुआ।

साभार: Gulf News

अब दुबई में दूसरा मंदिर बनकर तैयार है। मंदिर बने हैं तो गर्भगृहों में देवी-देवताओं और महान गुरुओं की प्रतिमाएँ होंगी ही। प्रतिमाएँ होंगी तो पूजा पद्धति आरंभ होगी ही। आरती-अनुष्ठान होंगे ही। शोभायात्रा, भजन-कीर्तन चलेंगे ही। नापाक माने गए बुतों के सजदे में सिर यहाँ झुकेंगे ही।

और यह उस धरा पर होगा, जहाँ एक दिन यह हुंकार भरी गई थी कि एक अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है। उसके साथ किसी को सम्मिलित किया जाना सबसे बड़ा पाप है। उसे सम्मिलत करने वाले सबसे बड़े शत्रु हैं और इनके विनाश के आदेश स्वयं अल्लाह द्वारा एक अर्जेंट डाक से भेजे गए हैं।

वह अंतिम डाक है, जिसके बाद धरती के मिटने तक कोई दूसरी डाक नहीं आने वाली। उस अमूल्य डाक को अपने करकमलों से लाने वाला संदेशवाहक भी अंतिम ही है। अब कोई दूसरा डाकिया नहीं आएगा। इन सबको अपने हृदय से अंतिम सत्य मानना अंतिम आदेश है। वर्ना यह रही तलवार!

क्या वाकई अरब अपनी शक्ल बदल रहा है? यह अरब की भूमि पर 14 सौ साल बाद बुतों और बुतपरस्ती की दस्तक बदलती दुनिया की एक चमकदार तस्वीर है? क्या अरब अपने नुकीले वैचारिक नाखूनों को सच में काट रहा है या उन पर केवल सुगंधित नेल पालिश लग रही है ताकि नोकें नजर न आएँ?

तेल जमीन में दफन एक ऐसे खजाने की तरह अरब को मिला था, जैसे किसी गरीब फटेहाल को झोपड़ी की खुदाई में ठोस सोने से भरे घड़े मिल जाऍं। वह पुरुषार्थ या परिश्रम का प्रतिफल नहीं था। वह बस भाग्य से मिल गया था, जिसे खोद निकालने लायक उपकरण भी उनके पास नहीं थे। उस क्रूड तरल को शुद्ध करने का कोई विधि-विधान उनकी बुद्धि में दूर-दूर तक नहीं था।

वे बस उस काले लिक्विड को उँगलियों की पोरों पर महसूस करते हुए सूँघकर अनुमान ही लगा सकते थे कि तपते रेगिस्तानों के हजारों फीट नीचे यह क्या जमा हुआ है? लाखों वर्षों की भूमिगत हलचल का कोई ज्ञान उनके पास नहीं था क्योंकि वे तो 14 सौ साल पहले का सब कुछ जाहिल करार देते हुए उसे नष्ट करके एक नया इतिहास रचने के महान उद्देश्य सहित बहुत दूर जा चुके थे।

जिन्हें वह तरल सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध होने वाला था, वे अपनी प्रयोगशालाओं में ऐसा ही कुछ कर रहे थे। पश्चिम के देशों के वे लोग जो एक अल्लाह के अलावा अपने दो हजार साल पुराने ‘बॉस’ को सबका ‘बिग बॉस’ मानते थे और इस हिसाब से अरब वालों के लिए वे शत्रु नंबर वन ही थे। मगर माँग और आपूर्ति के गणित ने मित्र और शत्रु की दृष्टि से देखने की बजाए शुद्ध लाभ और शुभ के चश्मे दोनों की आँखों पर चढ़ा दिए।

अब भूमिगत खजाना इनका था, उसे निकाल बाहर करने और उपयोग के योग्य बनाने की समस्त तकनीकी बुद्धि और उपकरण उनके थे। नैसर्गिक कोष की यह ऐतिहासिक लूट माले गनीमत ही थी, जिसमें सरदार के हिस्से ने इलाके को भी रौनकदार बना दिया। अरब के राजघरानों की तेल निर्मित समृद्धि ने मध्यकाल के बादशाहों की स्मृतियों को अब तक ताजा बनाए रखा है।

अरब की इस समृद्धि का एक बड़ा हिस्सा उन भिखारी संगठनों की जेब में भी जाता रहा, जो अरब मूल के वैचारिक आधार को पुख्ता बनाने के लिए अपने-अपने ढंग से संसार के हर उस कोने में सक्रिय थे, जहाँ बीती सदियों में उनके अंधड़ जा पहुँचे थे।

तरह-तरह की तबलीगों, जमातों, मदरसों, इबादतगाहों की कभी न भरने वाली झोलियों में तेल की कुप्पियों की कमाई गई। और उन महान योद्धाओं के झुंडों में भी इसका हिस्सा गया, जिनके कंधों पर बम-बारूद लटके थे।

वे इतने हुनरमंद थे कि अपने शत्रु को निशाना बनाने के लिए खुद भी फट सकते थे। वैचारिक दर्शन अपने ढंग से फैलाया जाता रहा। तेल ने सबकी तकदीर बदलकर रख दी।

तेल खत्म होगा तो तेल की धार भी कुंद होगी। आर्थिक समृद्धि की एक पूरी सदी एंजॉय कर चुके अरब की खापों के मुखिया अपना सिर रेत से बाहर निकालकर दुनिया को देख रहे हैं। एमबीएस के नाम से प्रसिद्ध क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने पिछले साल एक इंटरव्यू में हदीसों की प्रामाणिकता को लेकर पहली बार कुछ ऐसा कहा, जो इसके पहले किसी ने नहीं कहा था।

इस्लाम में गहरे गोते लगाने के लिए दो ही जलाशय हैं, जिसकी बूँद-बूँद में एक ही अल्लाह और उसके एक ही संदेशवाहक के सृष्टिपर्यंत गुणगान हैं। ये हैं-कुरान और हदीस। एमबीएस ने दूसरे जलाशय के जल को लेकर पहली बार अपने विचार रखे।

सदियों पुरानी मान्यताओं की विश्वसनीयता को लेकर उनके विचार अरब की वित्तीय विवशता से उपजे भी हो सकते हैं और आधुनिक विश्व की दिशा में स्वाभाविक गति भी।

भले ही अबू धाबी या दुबई के किसी रिजर्व इलाके में शोभा की वस्तु की तरह ये बुतखाने खड़े किए जा रहे हों, जो आम मुसलमानों की नजर से दूर होंगे। भले ही दुबई के देवालय को किसी इबादतगाह की डिजाइन में रखा गया है, जिसकी बाहरी भित्तियों पर कोई बुत नहीं हैं, लेकिन इनका वहां अस्तित्व में आना ही शेष संसार के लिए एक ध्यान देने योग्य घटना है।

विशेषकर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के उन हल्लेबाजों के लिए, जो अपनी पुरानी बेसुरी तान से लोगों का जीना दूभर किए हुए हैं। वे अपने पुरखों के हाथों बनाए गए और पराए हमलावरों के हाथों बरबाद मंदिरों को सहन नहीं कर पा रहे।

उनके लिए स्त्रियों की स्वतंत्र सोच का आदर्श प्रतीक अब भी स्कूलों में हिजाब तक अटका है। वे जो अपनी वर्तमान हालत और बदली हुई पहचान के बारे में कुछ जानने को उत्सुक नहीं हैं।

उधार के विचार, विदेशी खैरात और झूठे गर्व से गले-गले तक लदे आधारहीन अजूबे, जाे संख्या का शर्मनाक पशुबल बनकर रह गए हैं। वे एमबीएस का इंटरव्यू ध्यान से सुन भर लें तो चेहरे पर सबसे पहले हवाइयाँ नजर आएँ। एमबीएस के विचार दिल्ली की किसी भी नुपुर शर्मा और भाग्यनगर के किसी भी राजा सिंह के कथनों से ज्यादा मारक हैं। उन्होंने अपनी ही जमीन हिला दी है।

मजेदार है कि बूढ़ा अरब नेल पॉलिश लगा रहा है और भारतीय उपमहाद्वीप के नए नवेले शावक अपने नुकीले दाँत चमकाकर लार टपकाते हुए उछलकूद कर रहे हैं!



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