'जय भीम' समीक्षा: वंचितों की भावनाओं को 'कैश' करने का सफल प्रयोग

09 नवम्बर, 2021 By: आशीष नौटियाल
'जय भीम' रचनात्मकता के क्षेत्र से जुड़े दक्षिणपंथियों के लिए एक बेहतरीन सबक है

‘फ़ॉल फ़ॉर दी अंडरडॉग्स’। बचपन में पढ़ी हुई ये पंक्तियाँ मानो मन-मस्तिष्क का हिस्सा हो गईं। इन पंक्तियों का आशय समय के साथ अधिक समझ आने लगा। वंचित, उपेक्षित और लाचारों पर जब, जहाँ भी नजर पड़ी, यह यकीन होने लगा कि इन पंक्तियों की वास्तविक व्याख्या तक पहुँचने के लिए एक पूरा जीवन भी काफ़ी नहीं।

1990 के दशक में सेट की गई फ़िल्म ‘जय भीम’ (Jai Bhim) सत्यघटना पर आधारित ऐसे ही कुछ ‘अंडरडॉग्स’ यानी, कमजोर, वंचित, उपेक्षित आदिवासियों की कहानी कहती है। हालाँकि, इस सत्यघटना में लिबरल-वामपंथी नैरेटिव को कब, कहाँ और कितना शातिरता से परोसा गया है, यह रचनात्मकता के क्षेत्र से जुड़े दक्षिणपंथियों के लिए एक बेहतरीन सबक हो सकता है।

‘जय भीम’ फ़िल्म नाम से ही एक अजेंडा प्रतीत होती है और वामपंथी कलाकारों में यह प्रतिभा खूब जमकर भरी हुई है कि वो अपने अजेंडा को गोपनीय तरीके से समाज के उस हिस्से तक पहुँचाने में कामयाब हो ही जाते हैं, जिसे इस अजेंडा से चोट पहुँचती है। वरना क्या शोषित और वंचित सिर्फ एक ही जाति में हैं?

फिल्म में भी तो यही तो सन्देश देने का काम किया गया है कि हर चीज को जाति से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। फिर आदिवासियों के मानवाधिकारों के ध्वजवाहकों पर तब क्यों तुषारापात हो जाता है जब वंचित सवर्णों के मानवाधिकारों की बात आती है। मानवाधिकार क्या सिर्फ एक ही जाति का अधिकार हैं?

शालीनता से रखा गया अजेंडा भी सभ्य प्रतीत होता है और विरोध दर्ज करने वाले स्वयं से ही सवाल करने पर मजबूर हो जाते हैं। नव-उदारवादी इस कला में महारत हासिल कर चुके हैं कि कला पर पकड़ बना कर आप कैसे समाज के एक वर्ग को नाराज रखते हुए अपने अजेंडा को भुना सकते हैं। वो हिन्दुओं, ब्राह्मणों को स्पष्ट रूप से कभी गाली नहीं देते बल्कि कविता, शायरी या फिल्मों के जरिए वो बिना कुछ कहे भी बहुत बड़ा सन्देश दे जाते हैं।

‘जय भीम’ की कहानी

‘जय भीम’ दक्षिण भारत की ‘इरुलर’ जाति के उन आदिवासी लोगों की कहानी कहती है जो चूहों को पकड़कर खाते हैं। मलयालम में इरुलर का शाब्दिक अर्थ ‘अँधेरे या काले लोग’ है। वास्तव में यह मामला कुरवा जनजाति के लोगों के पुलिस द्वारा किए गए उत्पीड़न का था।

फ़िल्म वकील और एक्टिविस्ट चंद्रू के इर्दगिर्द घूमती है जिसका किरदार मशहूर तमिल अभिनेता सूर्या शिवकुमार ने निभाया है। हालाँकि इस पूरी कहानी का मुख्य किरदार राजाकन्नू है, जो कि एक आदिवासी है। मूल रूप से यह फिल्म मद्रास हाईकोर्ट के जज रहे जस्टिस चंद्रा के चर्चित केस पर आधारित है।

वकील चंद्रू के रोल में सूर्या

एक्टिंग की जहाँ तक बात है तो राजाकन्नू की गर्भवती पत्नी और आदिवासी महिला के किरदार सेनगेनी के किरदार में अभिनेत्री लिजोमोल जोस ने बेहतरीन तरीके से निभाया है।

आदिवासी महिला सेनगेनी के किरदार में अभिनेत्री लिजोमोल जोस

यह फिल्म 1993 में हुई सच्ची घटना से प्रेरित है। इरुलर जनजाति के राजकन्नू नाम के एक व्यक्ति को चोरी के झूठे मामले में फँसाया जाता है। पीड़ित की पत्नी सेनगेनी (असली नाम पार्वती) वकील चंद्रू के पास मदद के लिए जाती है और पुलिस हिरासत में दी गई यातना चंद्रू के लिए एक चुनौतीपूर्ण और ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई बन गई।

फ़िल्म में आदिवासी लोगों पर पुलिस के बर्बरता की लड़ाई इस चंद्रू नाम के एक्टिविस्ट-वकील ने अपने हाथों में ली है और वही इस केस को बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) याचिका के सहारे मुकाम तक पहुँचाता है। वकील चंद्रू अंबेडकर, पेरियार और कार्ल मार्क्स से प्रेरित है। लगे हाथ फ़िल्म में आदिवासी और अस्पृश्यता के साथ-साथ तमिल बनाम हिंदी के नैरेटिव को भी हवा देने की कोशिशें की गई हैं।

वामपंथी समाज की संवेदनाओं को ‘कैश’ करने की कला में माहिर रहे हैं। यह हमने पिछले कुछ वर्षों में, खासकर 2014 के बाद से ही ‘किसान आंदोलन’ के दौरान, किसानों की ‘फटी एड़ियाँ और पैरों में बिवाइयाँ’ जैसे नारों के जरिए खूब देखा भी है।

इस फिल्म को भी मानवाधिकारों के हनन के एक बेहद भावुक अध्याय को बिना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है और यही वामपंथ की खूबी भी है। सूर्या और उनकी पत्नी ज्योतिका द्वारा निर्मित यह फिल्म भी आखिरकार ‘शोषण और उत्पीड़न’ के ‘नव-अम्बेडकरवादी’ और ‘मंडलवादी’ नजरिए को ही भुनाती नजर आती है।

यह फिल्म भी निश्चित रूप से समाज की त्रासदी को वामपंथी रंग में डुबोकर परोसी गई है। यह तब स्पष्ट हो जाता है जब आदिवासियों के मानवाधिकारों के लिए नारे लगाने वालों को वामपंथी लाल रंग और दराती वाले झंडे पकड़े दिखाया जाता है।

गर्भवती महिला सेनगेनी के पति और उसी जाति के लोगों का पुलिस द्वारा किया गया उत्पीड़न इस फिल्म की मुख्य कहानी है। पुलिस एक संवैधानिक गुंडा है। खासकर समाज में पुलिस एवं प्रशासन को ले कर यही आम राय रही है कि पुलिस निचले तबके के लोगों के बजाय उन लोगों के साथ ज्यादा खड़ी नजर आती है जिससे उनके ‘वास्तविक हित’ जुड़े हुए हैं।

दिसंबर, 2019 में हैदराबाद के बहुचर्चित रेप कांड में पकड़े गए चारों अभियुक्त पुलिस एन्काउंटर में मारे गए थे। इस प्रकरण के बाद भले ही ‘पुलिस कल्चर’ की समाज में वाहवाही हुई लेकिन एक तबका ऐसा भी था, जिसे इस बात का एहसास था कि यह ‘कल्चर’ सभ्य समाज का हिस्सा नहीं हो सकता। पुलिस और गुंडाराज के नैरेटिव को इस घटना से बल ही मिला है।

हालाँकि, इसी फिल्म में ऐसे पुलिस अफसरों को भी दिखाया गया है जो समाज के साथ खड़े होकर न्याय और ईमान को महत्त्व देते हैं। भ्रष्ट पुलिस अफसरों पर भी दबाव है। यह राजनीतिक भी है और कई बार अफसरों की निजी महत्वाकांक्षा भी इस दबाव की वजह है।

फिल्म में कई दृश्य हैं जो भावुक करते हैं। कलाकार बेहद सहज नजर आते हैं। खासकर खेतों में काम करते हुए आदिवासियों के बोलचाल और हँसी-मजाक इसे वास्तविक रूप देते हैं। ग्रामीण भारत में हास्य के तरीके यही हैं।

कला और हिन्दू-घृणा की लत

टीजे ज्ञानवेल के निर्देशन में बनी यह फिल्म बेहद उम्दा अभिनय से सजी हुई है इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन बॉलीवुड ने विवाद का एक ऐसा मन्त्र पकड़ लिया है, जिस से इसके दोनों हाथों में अब लड्डू हैं।

यह मन्त्र है कि ‘किसी भी तरह की मार्केटिंग अच्छी मार्केटिंग है।’ कभी आप हिन्दू-घृणा को परोसते हैं तो कभी अंबेडकर के चिंतन के जरिए भगवान श्रीराम को गाली देने वाले पेरियार के विचारों को समाज और पीढ़ियों में बिठाना चाहते हैं।

यह फिल्म बेशक वंचितों की लड़ाई की वास्तविक कहानी पर आधारित है लेकिन वास्तविकता तो यह भी है कि वास्तव में जिस भ्रष्ट पुलिस अधिकारी का धर्म ईसाई है, उसे फिल्म में हिन्दू बना दिया गया।

आदिवासियों की जिस कहानी से यह फिल्म प्रेरित है, उसमें दोषी पुलिस अधिकारी का नाम एंथनी सामी था, जबकि फिल्म में इस पुलिस अधिकारी का नाम गुरुमूर्ति रखा गया है। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि यह सिर्फ भ्रष्ट पुलिस अधिकारी गुरुमूर्ति का धर्म हिन्दू बताने का प्रयास है।

ऐसा ही ‘प्रयोग’ हाल ही में विद्या बालन की आई फिल्म ‘शेरनी’ में भी किया गया। विद्या बालन ने जिस फॉरेस्ट अफसर का रोल ‘शेरनी’ फिल्म में निभाया है वह रोल फॉरेस्ट अफ़सर केएम अभरना से प्रभावित रोल है।

केएम अभरना ‘अवनी’ केस की इंचार्ज थीं, जबकि फिल्म में उनका नाम बदल कर ‘विद्या विन्सेंट’ कर दिया गया। यहाँ भी यह साबित करने का प्रयास किया गया कि एक ईसाई अफसर के हृदय में वास्तविक अफसर से कहीं ज्यादा मानवता थी।

ऐसे ही कुछ प्रयोग ‘आर्टिकल 15’ फिल्म में किए गए, जहाँ फिल्म में अपराधी को एक सवर्ण बता दिया गया, जबकि वास्तव में इस घटना में अपराधी अन्य पिछड़े वर्ग का था। आप यह भी सन्देश दे देते हैं कि ‘कास्ट डज़ नॉट मैटर’ और इसी बहाने सवर्णों के खिलाफ अपनी नफरत को भी हवा दे जाते हैं। मजे की बात यह है कि फिल्म में एक भी कलाकार दलित या फिर पिछड़े वर्ग से नहीं चुना गया था।

जय भीम फिल्म में ‘हिंदी बनाम तमिल’ के सन्देश को भी चुपके से भुनाया गया है। एक दृश्य में मामले की जाँच कर रहे प्रकाश राज एक संदिग्ध को यह कहते हुए थप्पड़ मारते हैं कि उसे हिंदी नहीं, तमिल बोलनी चाहिए।

जय भीम फिल्म के एक दृश्य में अभिनेता प्रकाश राज

कुल मिलाकर सिनेमा के नाम पर ‘जय भीम’ एक सफल और अच्छी फ़िल्म कही जा सकती है। इस फिल्म की खूबी इसका कसा हुआ अभिनय, अच्छे संवाद, कलाकारों का चयन और अनावश्यक दृश्यों से परहेज है। जबकि जो लोग जानते हैं, वो जानते हैं कि वंचितों की भावनाओं के जरिए फिल्म किन मायनों में सफल कही जाएगी।



सहयोग करें
वामपंथी मीडिया तगड़ी फ़ंडिंग के बल पर झूठी खबरें और नैरेटिव फैलाता रहता है। इस प्रपंच और सतत चल रहे प्रॉपगैंडा का जवाब उसी भाषा और शैली में देने के लिए हमें आपके आर्थिक सहयोग की आवश्यकता है। आप निम्नलिखित लिंक्स के माध्यम से हमें समर्थन दे सकते हैं: