कुछ साल पहले जब मेरी शादी हुई थी और मैं हॉस्टल से निकलकर किराए के एक घर में शिफ्ट हुआ तो उस घर में सत्यनारायण भगवान की कथा करवाने की इच्छा हुई। यूनिवर्सिटी के बाहर की दुनिया नितांत अजनबी थी मेरे लिए। सामाजिक जान-पहचान नहीं थी, अतः अपनी मकान मालकिन से कहा कि वे कोई पंडित बता दें, या खुद ही बुला दें।
उन्होंने एक नौजवान ब्राह्मण को बुला दिया। वे मुझसे भी कम उम्र के व्यक्ति थे। पुरानी साइकिल पर आए थे और उनके शरीर पर सिक्योरिटी गार्ड की वर्दी थी। उन्होंने मुझे उस दिन आवश्यक सामग्रियों की लिस्ट बता दी और अगले दिन आने की कह गए। लिस्ट में भी अधिकतर निःशुल्क उपलब्ध सामग्रियाँ थी, शेष नितांत सस्ती। अगले दिन जब वे आए तो धोती-कुर्ते में थे। पिछले दिन गार्ड की कैप में छुपी चोटी आज सहज दर्शनीय थी।
मुझे धोती पहननी नहीं आती। उन्होंने पहनाई। फिर उन्होंने कमरे के एक कोने को सत्यनारायण भगवान की पूजा के योग्य बनाने के लिए आधे घंटे का समय लिया। हवन कुंड बनाया। गणपति की पूजा करने के बाद उन्होंने मुझ पर ध्यान दिया और पाया कि मैं बिना यज्ञोपवीत के बैठा हूँ।
मैं यज्ञोपवीत नहीं पहनता, उसमें सहज नहीं रह पाता। तो पहले यज्ञोपवीत पहनाने के लिए अभीष्ट मंत्रोच्चार के बाद पूजा शुरू की। सत्यनारायण की कथा ही नहीं, अपितु हवन और ग्रहशांति भी करवाई। हवन में आहुति देते -देते मेरी कमर दर्द कर गई थी।
पूरी पूजा में कुल पाँच घंटे लगे थे। पाँच घंटे! इतने में शादियाँ निपट जाती हैं। जब पूजा समाप्त हुई और पंडित जी सामान समेटने लगे, तब मैंने मकान-मालकिन से पूछा कि कितनी दक्षिणा दी जाए? पूछा इसलिए कि मैं इतनी लंबी पूजा के लिए सम्मानजनक दक्षिणा का अनुमान नहीं लगा पा रहा था।
जानते हैं उन्होंने कितनी राशि बताई? इक्यावन रुपए। इक्यावन! फिफ्टी वन! यह एक व्यक्ति के पाँच घंटों की अनवरत मेहनत का मेहनताना था। आँखें चौड़ी कर के जब मैं मकान-मालकिन को देख रहा था, उन्होंने कहा कि अरे, अब इतना तो बनता है बेचारे का।
मतलब उन्हें लग रहा था कि मैं इक्यावन को बहुत अधिक मान रहा हूँ। जबकि पिछले ही दिन मैंने एक इलेक्ट्रिशियन को महज बीस मिनट की सेवा के लिए डेढ़ सौ रुपए दिए थे। जो एक बल्ब जला दे, उसे बीस मिनट के डेढ़ सौ, और जो परमपिता परमात्मा का प्रकाश हम तक पहुँचाए, उसे पाँच घंटे के पचास रुपए?
जब मैंने शर्माते हुए पंडित जी के चरणों में पाँच सौ एक रुपए रखे तो उन्होंने चुपचाप उसे अपनी जेब में रख लिया। जैसे बन्दे को फर्क ही न पड़ता हो कि नोट पचास का है कि पाँच सौ का। पूजा के समय जो भी फल-फूल भगवान की खास चौकी पर चढ़े थे, बस वह समेट कर वह ब्राह्मण आशीर्वाद देता हुआ चला गया। दर्जन केले, सेव और न जाने कितने एक-दो के सिक्के वैसे ही पड़े रहे। …और इस समाज में ब्राह्मण होना गुनाह हो चला है।