एक अपराध, अपराध तब तक नहीं माना जाएगा जब तक वह किसी कथित शोषण अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति के साथ न हुआ हो। 25 साल के रिंकू शर्मा की एक मज़हबी भीड़ द्वारा चाकू से गोदकर कर दी गई हत्या को लिंचिंग की श्रेणी में नहीं डाला जाएगा क्योंकि यह श्रेणी तो पहले ही अखलाख और जुनैद के लिए आरक्षित है।
उसी प्रकार फिर चाहे तौसीफ से शादी को मना करने के कारण 20 वर्ष की निकिता तोमर की दिनदहाड़े कर दी गई हत्या हो या इंटरनेट पर अनगिनत वेबसाइट, ग्रुप और ‘हिंदू सलवार-मुस्लिम तलवार’ जैसे नामों वाले हिंदू महिलाओं को निशाना बनाते चैनल।
इन सभी को तब तक महिला विरोधी अपराधों की श्रेणी में नहीं डाला जाएगा जब तक कोई ‘सुल्ली डील्स’ या ‘बुल्ली बाई’ जैसी मोबाइल ऐप नहीं बनती, जिसमें मुस्लिम समुदाय की महिलाओं के साथ कथित तौर पर अपराध हुए हों।
इतने सब के बाद भी अपराध और अपराधियों की आलोचना करने के बजाय एक चिन्ह समुदाय को इन कथित ऐप्स को लेकर इस प्रकार अपराधबोध कराया जाता है कि मानो देश का हर हिंदू युवक तालिबानी मानसिकता से ग्रस्त हो और इन घटिया ऐप्स पर मुस्लिम महिलाओं की बोली लगाने को आतुर हो। जबकि सामने यह आता है कि ऐसे कुकृत्य करने वाले और करवाने वाले सभी वामपंथी विचारधारा से ग्रस्त मिलते हैं।
हाल ही में सोशल मीडिया पर ‘बुल्ली बाई’ नामक एक ऐप चर्चा में आई। इस पर कथित तौर पर मुस्लिम महिलाओं की बोली लगाने, उनकी तस्वीरें बिना उनकी आज्ञा के साझा करने और अभद्र भाषा का प्रयोग करने जैसे आरोप लगे।
हालाँकि यह कोई पहला अवसर नहीं था जब इंटरनेट और सोशल मीडिया पर महिलाओं के प्रति इस प्रकार की अभद्रता देखी गई थी, परंतु क्योंकि इस बार पीड़ित अल्पसंख्यक महिलाएँ थीं तो मामले का तूल पकड़ना लाज़मी था।
सोशल मीडिया पर विवाद गरमाया और कुछ ही समय में मुंबई पुलिस ने इस ऐप को लेकर दो आरोपित पकड़ लिए, जिनमें से एक पुरुष और एक महिला थी। इसके बाद भी मामले के मुख्य आरोपित की तलाश जारी रही और कुछ दिनों बाद दिल्ली पुलिस ने नीरज बिश्नोई नामक एक 20 वर्षीय लड़के को असम से गिरफ्तार किया।
मीडिया में यह खबर चलाई गई कि नीरज कथित दक्षिणपंथियों के ‘ट्रेड’ (Trad) समूह से आता है और उसके विचार खासे कट्टरपंथी हैं। उसके पिता ने भी पहले इस मामले में मुखर होकर बयान दिए जिसमें उन्होंने सारा दोष सोशल मीडिया और टीवी चैनलों को दिया। उन्होंने कहा कि उनका बेटा एक ‘खास न्यूज़ चैनल’ देखता था जिसके कारण उसके दिमाग पर इसका प्रभाव पड़ा।
बस इतना होने की देर थी कि अपने रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा से अधिक हिंदू समुदाय के प्रति ईर्ष्या भरे हुए वामपंथी क्रांतिकारी ट्विटर पर धमक पड़े और नीरज को वही पुराने ‘संघी’, ‘दक्षिणपंथी’, ‘कट्टर हिन्दू’ जैसे उपनामों से संबोधित करने पर उतर आए।
ऐसे मुद्दों में अक्सर एक बात महत्वपूर्ण और रोचक भी होती है कि इन क्रांतिकारियों में से अधिकतर पीड़ितों के प्रति संवेदना से अधिक आरोपित और उसके समुदाय के प्रति घृणा का भाव रखते हैं। इस बात की पुष्टि इनकी टिप्पणियाँ और पोस्ट तो करते ही हैं, साथ ही ऐसी कोई घटना होते ही सोशल मीडिया पर इनकी उँगलियों की तीव्रता से इनकी आँखों की चमक का अनुमान भी आसानी से लगाया जा सकता है।
इन लोगों को गिद्ध कहना गिद्ध का अपमान भी इसलिए होगा क्योंकि नरभक्षी होने के साथ-साथ गिद्ध में कम से कम बुद्धि तो अपनी होती है जबकि ये लाशों पर रोटियाँ सेकने वाले वामपंथी एक ऐसे मूर्खों के झुंड का हिस्सा होते हैं जो केवल ऊपर से आए टूलकिट रूपी संदेशों का पालन करने के लिए जाने जाते हैं।
आकाओं की ओर से आदेश आया कि बिश्नोई को ‘संघी’ लिखो तो ‘संघी’ लिख डाला। ऊपर से आदेश आया कि ‘निजी वैमनस्य में हुई हत्या’ को ‘हिंदू-मुस्लिम विवाद’ बना दो तो वह कर डाला। अब तो यह रटा-रटाया पैंतरा कुछ नया भी प्रतीत नहीं होता है।
फिर चाहें आपसी विवाद में मुस्लिम समुदाय द्वारा एक मुस्लिम को पीटे जाने की घटना को हिंदुओं द्वारा ‘जय श्री राम’ बुलवाने की साज़िश बताना हो या ट्रेन में निजी विवाद के चलते हुई हत्या को बीफ के नाम पर की गई जुनैद की हत्या बताना।
सैकड़ों हिंदू महिलाओं की एडिटेड तस्वीरें गालियों के साथ साझा होने पर भी गोंद पीकर हाइबरनेशन में चले जाने वाले ये लोग अचानक से ‘बुल्ली बाई’ पर सक्रिय होकर नारीवादी बन जाते हैं और पालघर में साधुओं की पीट-पीटकर निर्मम हत्या के समय धृतराष्ट्र बने यही वामपंथी अखलाख को मारने वाली भीड़ में से एक व्यक्ति के भाजपा या बजरंग दल के होने से पूरी भाजपा और हिंदू समुदाय को हत्यारा बताते हुए अचानक समाज के रक्षक बन जाते हैं।
हाल ही में ‘बुल्ली बाई’ ऐप मामले में पकड़े गए नीरज बिश्नोई के पिता का एक और साक्षात्कार सामने आया, जिसके बाद से यह कथित टेंपरेरी नारीवादी पुनः अफीम चाट कर सो गए हैं। इस साक्षात्कार में बिश्नोई के पिता का कहना है कि वे एक मध्यमवर्गीय परिवार से आने वाले व्यक्ति हैं जो कॉन्ग्रेसी समर्थक हैं। इसके साथ ही उन्होंने आगे कहा कि बिश्नोई के दादा यानी उनके पिता कम्युनिस्ट नेताओं के कट्टर समर्थक थे।
राजस्थान के नागौर का रहने वाला यह परिवार लंबे समय से असम में बसा हुआ है। बिश्नोई की एक बहन है जो वकालत की पढ़ाई कर रही है और यह दावा करती है कि उसके भाई ने ‘बुल्ली बाई’ एप्लीकेशन अवश्य बनाया परंतु वह मुस्लिम विरोधी बिल्कुल नहीं है।
नीरज के पिता स्वयं को सदस्य कॉन्ग्रेस का समर्थक बताते हुए कहते हैं:
“मेरा बेटा एक अंतर्मुखी और संवेदनशील लड़का है। नेताओं और टीवी न्यूज़ के एंकरों को ज़िम्मेदारी से बोलना चाहिए, वे नहीं जानते कि उनकी बातों से कौन प्रभावित हो सकता है।”
एक पकड़े गए अपराधी को ज़बरन ‘संघी’ और ‘दक्षिणपंथी’ का तमगा थमा देने वाले इन कथित ‘पत्रकारों’ और ‘फैक्ट चेकरों’ से यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि क्या आज बिश्नोई के बयान पर कॉन्ग्रेस और वामपंथियों को इस अपराध का भागीदार माना जाएगा?
इनका पैंतरा कोई नया या केवल भारत में आज़माया जाने वाला नहीं है। पिछले दिनों पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश से एक समाचार आया था जिसमें इकबाल हुसैन द्वारा दुर्गा पूजा के पांडाल में घुसकर हनुमान की प्रतिमा के पैरों तले कुरान रख दी गई थी।
यह कृत्य जानबूझकर सांप्रदायिक अस्थिरता पैदा करने और बांग्लादेश में पहले ही मानवों से बदतर स्थिति में रह रहे हिंदुओं की स्थिति को और खराब करने के लिए किया गया था।
पूरा गिरोह एक टूलकिट की तरह काम करता है। क्रोनोलॉजी भी लगभग वही- पहले एक व्यक्ति को चारा बनाकर कुकृत्य कराया जाएगा। काम पूरा होने पर साज़िश के तहत सारा आरोप एक निश्चित पार्टी, विचारधारा या समूह पर मढ़ दिया जाएगा। बाद में जब जाँच में खुलासा होगा कि असल में यह कुकृत्य स्वयं पीड़ित देखने वाले पक्ष द्वारा ही किया गया था तो कभी आरोपित को नाबालिग और कभी मानसिक रूप से विक्षिप्त बताया जाएगा।
कई बार तो एक अवार्ड वापसी बुद्धिजीवियों का गिरोह भी कागज़-कलम-दवात लेकर आतंकियों की फाँसियाँ तक रुकवाने को तैयार रहता है। कॉम्बैट की भाषा में इसे ‘कवर फायरिंग’ कहा जाता है।
छोटे से छोटे मामले हों या 26/11 जैसे बड़े आतंकी हमले, साँचा हर बार वही रहता है बस उसमें बारूद अलग-अलग मात्रा में भरा जाता है।
अधिकतर मामलों में तो इनकी साज़िशों के खुलासे हो ही जाते हैं परंतु दुख की बात यह है कि नीच-विषैली मानसिकता से ग्रस्त इन लोगों को नाकाम करने के लिए अक्सर किसी न किसी तुकाराम गोपाल ओंबले को अपनी जान गँवा कर आतंकी कसाब को जीवित पकड़ना पड़ता है।
अन्यथा इनके गिरोह तो पहले से ही किताबें लिख कर, मस्तिष्क में अजेंडा लिए एक समुदाय और देश के साथ-साथ एक पूरी सभ्यता पर आक्रमण के लिए सदैव तैयार रहते हैं।
सोशल मीडिया पर अल्फा-बीटा-गामा मेल और ट्रेड-रायता के ट्वीट-रीट्वीट में फँसे युवाओं को यह समझना होगा कि हर बार कोई तुकाराम ओंबले न तो उन्हें बचाने आएगा न ही कोई सरकार, समूह या संस्था सदैव रहने वाली है, जो जाँच में सच सामने ला सकेगी।
इस बात पर आत्ममंथन आवश्यक है कि क्या हर बार सब कुछ हो जाने के बाद ही इन भेड़ियों की फौज को वैचारिक स्तर पर निर्वस्त्र करके शर्मसार किया जाना पर्याप्त है? या इन से दो कदम आगे रहते हुए इन्हीं के एजेंडा का बूमरैंग बनाकर पहले ही दुगनी गति से इनके अंग विशेषों पर प्रहार किया जाए।