इतिहास के किसी कथानक पर बनी फिल्में अक्सर मैं सिनेमा के परदे से उतरने के बहुत बाद में ही देखता हूँ। पहले देखने वालों के रुख देखता हूँ। सम्राट पृथ्वीराज को आए और गए दो महीने से ज्यादा हो चुके हैं। इस मूवी का हश्र सबके सामने है। भारत के एक पराजित योद्धा सम्राट के लिए बॉक्स ऑफिस भी तराइन का मैदान साबित हुआ। डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी भी अब तक अपने शिविर में लौटकर धूल वगैरह झाड़ चुके होंगे। मैंने दो किश्तों में यह फिल्म अब देखी।
परदे पर पृथ्वीराज की ताजा पराजय के कारणों पर सिनेमाई जानकार पर्याप्त प्रकाश डाल चुके हैं। बहुत संक्षेप में दो बातें वही हैं। पृथ्वीराज के रूप में अक्षयकुमार का चयन और उनका लुक कहीं से हमारी कल्पना के उस सम्राट से मेल नहीं खाता, जो भारत के इतिहास के एक विकट मोड़ पर दिल्ली-अजयमेरू के इलाके में हुआ था।
संयोगिता का पात्र कन्नौज के गहड़वाल राजवंश की राजकुमारी का कम और सिफारिश की नौकरी पर रखी गई एक कमजोर केंडिडेट का ज्यादा लगता है। संवादों की भाषा आँख बंद करके सुनें तो लगेगा कि अकबर-औरंगजेब के दरबार की कार्यावाही चल रही है।
भाषा के रूप में फिल्म पर फिदायीन हमला किया गया है। गुस्ताखी, फरियाद, बर्खास्त, हक, औरत, नाफरमानी, दोस्त, दुश्मन, फैसला, बेइज्जती, शिकार और इंतजार जैसे शब्द जहर बुझे तीरों की तरह दर्शकों पर बरसे।
कहानी में संयोगिता के आते ही फिल्म सम्राट पृथ्वीराज की कम और महिला सशक्तिकरण का सरकारी आख्यान बन जाती है। लाड़ली लक्ष्मी योजनाओं के सरकारी विज्ञापनों में इसके क्लिप काम आ सकते हैं!
भव्य पृष्ठभूमि के लिए वीएफएक्स एक ऐसा औजार है, जो ओटीटी पर सक्रिय हर नए निर्देशक के पास है। उसके लिए किसी चोपड़ा, कपूर या जौहर के विशाल किलेनुमा प्रोडक्शन हाऊस की जरूरत नहीं रही है। उनके तो नाम बड़े और दर्शन छोटे हैं। मगर पृथ्वीराज की इस पराजय के पीछे ये पक्ष बहुत मामूली हैं। मूल कारण ऐतिहासिक है।
2022 के जिस कालखंड में सम्राट पृथ्वीराज को परदे पर देखा गया है, उसके पीछे लगभग एक हजार साल की एक लंबी पृष्ठभूमि है, जो वीएफएक्स रचित नहीं है। वह भारत की भोगी हुई भयावह हकीकत है। जहाँ से यह सिलसिला शुरू होता है, ठीक उसी मोड़ पर तराइन के मैदान में उठी वह धूल है, जिसमें पृथ्वीराज का सूर्य अस्त होता हुआ हम देखते हैं।
पृथ्वीराज इस्लाम के अंधड़ों से टकराने वाले दिल्ली के पहले शासक हैं। भारत का इतिहास इसी बिंदु से एक दुर्गम दौर में दाखिल होना शुरू होता है। बीती आठ-दस रक्तरंजित सदिअल्पायु में वंशों के विनाश कथाओं से भरी हैं। ये भारत की स्मृतियों के आकाश में छाया रहा ऐसा धुआँ है, जो आज भी बेचैनी पैदा कर रहा है।
पृथ्वीराज की टक्कर जिस मुइज्जुद्दीन मोहम्मद साम से हुई, वह सिंध पर झपटने वाले मोहम्मद बिन कासिम की तरह कोई अरब मूल का इस्लामी आक्रांता नहीं था। वह अफगानिस्तान का था। विद्वान विचारक रामेश्वर मिश्र पंकज और कुसुमलता केडिया की किताबों के ये तथ्य ध्यान देने योग्य हैं कि गजनवी और गोरी विदेशी मुसलमान नहीं हैं। वे भारतीय मूल के मुसलमान हैं। वे अपने समय में दो-चार पीढ़ी पहले के धर्मांतरित हिंदू या बौद्ध वंशजों की ही संतानें थे।
वेदप्रताप वैदिक ने इस्लाम के पूर्व के अफगानिस्तान पर एक किताब लिखी थी, जब वह पूरी तरह तथागत के दर्शन में जीवंत और समृद्ध था। वह बामियान के विराट बुद्धों के निर्माण की सदियाँ थीं। पहचानें बदलने के बाद जाहिल बने इन्हीं गजनवी और गोरी के महान बौद्ध पुरखों ने उन पहाड़ों पर स्थापत्य के आश्चर्य रचे थे।
वे बौद्ध भी महाभारत काल में गांधार के नागरिक थे, जो वैदिक परंपराओं में रचे-बसे सनातनी थे और उनके पारिवारिक रिश्ते इसी दिल्ली नाम की जगह पर इंद्रप्रस्थ और हस्तिनापुर के राजकुलों से थे।
मुहम्मद गोरी के नाम से जाना गया मुइज्जुद्दीन मोहम्मद साम लाहौर को पार करते हुए दिल्ली की तरफ झपटा था। तब तक उत्तर भारत के क्षत्रिय प्राण और वचन की कठोर कसौटियों पर आपसी लड़ाइयों में ही मूँछों पर ताव दे रहे थे। शत्रु पक्ष की ओर से आए किसी अतिथि को आश्रय देना उनका धर्म था और वे केवल इसी कारण सामने उपस्थित हुए युद्ध के समय कह सकते थे- ‘वीर मृत्यु का वरण करते हैं।’
वे नहीं जानते थे कि शत्रु को शत्रु की भाषा में तगड़ा उत्तर न देना अपनी वीरता को व्यर्थ करना है, क्षत्रिय धर्म को निभाना नहीं है।
पृथ्वीराज चौहान के जीवन में जिस समय संयाेगिता का प्रसंग चल रहा था, दिल्ली और कन्नौज के महलों में जब इस विषय में वार्तालाप और तैयारियाँ थीं, ठीक उसी समय गजनी से लाहौर के बीच मची हलचल क्या पृथ्वीराज के कानों में न सरसराई होगी?
वह किसी अंधेरी रात में लुटेरों के एक गिरोह का अचानक हमला नहीं था। वे लंबी तैयारियों और भारी निवेश के बाद जुटाए गए हजारों लुटेरों की सेनाएँ थीं, जिन्हें गजनी से लाहौर होकर दिल्ली और अजयमेरू तक पहुँचने में महीनों लगते थे। चौहानों के गुप्तचर किस प्रोजेक्ट में लगे थे?
26 साल की उम्र में तराइन के मैदान में अंतिम युद्ध लड़ते हुए पृथ्वीराज के सामने एक पूरी उम्र पड़ी थी। वे तो शिवाजी महाराज और बाजीराव पेशवा से भी कम उम्र जीए। अगर तराइन की पहली लड़ाई में गोरी का हिसाब हमेशा के लिए चुकता कर दिया गया होता तो संभव है कि वे ही भारत के पहले ‘छत्रपति शिवाजी’ होते।
तब उन्हें कम से कम 25 साल की जिंदगी और मिल गई होती। छत्रपति ने 50 साल की उम्र तक अपना विशाल साम्राज्य स्वयं निर्मित किया था और पृथ्वीराज ने 11 साल की उम्र में विरासत में सब कुछ पाकर भी खो दिया था।
गोरी का खात्मा पहले ही मौके पर हो गया होता तब हो सकता है कि गुलाम, खिलजी, तुगलक, लोदी और मुगलों की, जिन्ना के पाकिस्तान समेत तभी भ्रूण हत्या हो चुकी होती। हालाँकि आतंक के साए में मजहब के दूसरे ‘वेरिएंट’ तैमूर, नादिर और अब्दालियों के समय क्या होता, कोई नहीं जानता। लेकिन पृथ्वीराज के असमय अंत ने भारत की भावी और लंबी अंधकारमय दिशा तय कर दी।
वीरता के नाम पर पृथ्वीराज के युद्ध गुजरात, जेजाकभुक्ति और कन्नौज के हिंदू राजवंशों से ही हैं और शत्रुता का कोई नैतिक आधार उनमें नहीं है। मुहम्मद गोरी जैसे वास्तविक शत्रु के साथ युद्ध में ठोस विजय ही पृथ्वीराज को एक विजेता नायक के सिंहासन पर विराजित कर सकती थी बशर्ते उनमें आयुजनित क्षत्रिय आवेश और अनर्थकारी आत्मविश्वास न होता!
हमने अपने चित्त में नायकों के रूप में उन्हें सजाया, जिन्होंने अंतत: अर्थपूर्ण विजय गाथाओं के अंतिम महान अध्याय रचे। एक क्षत्रिय वीर सम्राट के रूप में पृथ्वीराज के जीवन की वास्तविक कथा इस आशा पर कहाँ खरी उतरती है? जिसके अंत के साथ ही भारत भीषण आपदाओं से लगातार घिरा हुआ रहा हो, उसके प्रति अगाध आस्था के बावजूद आप शिवाजी जैसे शूरवीर नायक में निहित मूल तत्वों की तलाश उसके चरित्र में नहीं कर सकते।
राय पिथौरा अपने जीवनकाल में दिल्ली को इस्लाम के थपेड़ों से बचा पाते और शत्रु को उसी की भाषा में साम, दाम, दंड, भेद से उत्तर देते तो तय है कि सच्चे अर्थों का सम्राट पृथ्वीराज परदे पर चमकता। भारतीय दर्शक कहानी का सार देखकर ही अपने नायक तय नहीं करता। हर संघर्ष के उद्देश्य, प्रणाली और परिणाम मिलकर ही इतिहास के नायक की महान और विराट छवि गढ़ते हैं।
एक 25 वर्षीय युवा सम्राट के निकट संयोगिता के प्रेम और परिणय प्रसंग तब कौन देखना चाहेगा, जब मौत लगातार पृथ्वीराज नहीं, भारत के सिर पर मंडराती रही हो और आप तराइन के मैदान से दुश्मन को सिर्फ भगाकर महलों में विजेता के भाव से लौट रहे हैं। वह आत्मघाती आत्मविश्वास था।
जिस उत्साह और ऊर्जा से पृथ्वीराज गुजरात, जेजाकभुक्ति और कन्नौज को चुनौती देते रहे थे, उसी लपट के साथ वे गजनी तक गोरी का पीछा करते हुए गए होते तो वह लाहौर से आगे जा नहीं सकता था। उसकी कब्र यहीं कहीं होती।
पृथ्वीराज गजनी तक जाकर उन लुटेरों को अपनी खोई हुई पहचान में वापस लाने का पुरुषार्थ कर सकते थे। ऐसा किया होता तो उन्हें भी असमय मृत्यु से जीवन के कुछ और साल-दशक मिल जाते। वैसी मुहिम भारत को एक नया जीवन दे सकती थी। अल्पायु पृथ्वीराज की कुंडली में यह श्रेय था ही नहीं। क्षत्रियता के जोशीले संवाद गाल बजाने से अधिक कुछ नहीं हैं!
गोरी अगले ही साल लौटकर आया। उसकी विचार भूमि में क्षमा वीरों का आभूषण नहीं, एक मूर्खतापूर्ण बेड़ी थी, जिसमें उसने पृथ्वीराज ही नहीं, भारत की समूची क्षत्रिय परंपरा को जकड़ा हुआ देख लिया था।
वो समय वचन के लिए प्राणों को दाव पर लगाने का नहीं था। हर युग का अपना राजनीतिक व्याकरण होता है। वचन के लिए प्राणों की आहुति त्रेतायुग की ऊँची डिग्री थी। वह 1191 की दिल्ली में उनके साथ लागू नहीं की जा सकती थी, जो छल-बल से आपके सर्वनाश की कसमें खाकर अपने कबीलों से आए थे। भारत की आत्मा के जन्मजात शत्रुओं और उनके बंजर वैचारिक दर्शन को आज भी कहाँ समझा गया है?
पान मसाला छाप अक्षयकुमार और मानुषी छिल्लर जैसी प्रथम दृष्टया कुपोषित कन्या तो रही-सही कसर पूरी करने के लिए ही थे। मूल बात यह है कि पृथ्वीराज भारत के मध्यकाल के इतिहास की धूल और राख तले दबा हुआ एक ऐसा सुलगता अंगारा हैं, जिसे चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने अपनी हथेली पर रख लिया…