अमर कुमार, अकबर रंगरेज और एंथोनी गोंसाल्विस। अकबर रंगरेज खुदा न खास्ता अगर आईएएस बन गया तो बहुत मुमकिन है कि उत्तरप्रदेश में कानपुर के इफ्तखारुद्दीन की तरह सरकारी बंगले में तबलीग की कव्वाली के सीन में नजर आए!
दलित कही गई जातियों के लिए ईसाई या इस्लाम का आकर्षण क्या था? किसी भी समय में मजहबी मतांतरण का कोई सैद्धांतिक आधार था, तो वह क्या था? देखा जाए तो वे एक ऐसे लोक लुभावन विशाल तंबू के आमंत्रण थे, जिसमें कोई जाति विभाजन नहीं है और जहाँ एक मालिक के सामने सबकी हैसियत बराबर हैं।
आज यह साबित हो चुका है कि बराबरी का वह तथाकथित सैद्धांतिक प्रावधान एक फरेब था। आँखों में झोंकी गई धूल! एक किस्म की मृग मरीचिका। चुनावी घोषणापत्र जैसा। कि आप हमे समर्थन दो, हमारे परचम तले आ जाओ, हमारी ताकत बढ़ाओ और आपको आपके ख्वाबों का संसार हम दे देंगे। भेदभाव से भरे हुए इस समाज को छोड़ दो।
ऐसे घोषणापत्र जितने लुभावने और फर्जी होते हैं, यह भी वैसा ही छलावा साबित हो रहा है। ये सैद्धांतिक दिखावे किसी तरफ से लालच के थे और किसी की तरफ से धोखे के। धर्मांतरण का पूरा खेल धोखाधड़ी की बुनियाद पर ही टिका है।
आजादी के पहले अंग्रेजों के समय इसकी शक्ल कुछ अलग थी। अंग्रेजाें के आने के पहले की गुलामी के दौर में मानो या मरो के ही विकल्प थे। जो मान गए वे अपना धर्म खो बैठे। जो मारे गए, उनके भी नामोनिशान मिट गए। अपने पुरखों के मूल नामोनिशान दोनों ने गँवा दिए।
किसने किसको ताकत दी और कौन कमजोर का कमजोर ही बना रहा? किसके हिस्से में मजा आया और किसके हिस्से में सजा आई? आरक्षण के दायरे में आने की माँग के शोर में हमें इन सवालों के जवाब तलाशने चाहिए।
वह सैद्धांतिक दिखावा यह था कि हमारे मजहब में कोई जाति-पाति नहीं है। कोई भेदभाव नहीं है। मगर यह कुएँ में से निकलकर खाई में गिरने का अनुभव सिद्ध हुआ। अब वे खाई में गिरे लोग कह रहे हैं कि ईसाई या इस्लाम के झंडे थामने के बावजूद हमारी गैर बराबरी गई नहीं है।
जातियाँ यहाँ भी वैसी ही जड़ हैं। भेदभाव वही का वही है। हम वैसे के वैसे दलित बने हुए है। मजहबी आवरण नया ओढ़ने के बावजूद चौबीस कैरेट दलित! इन नई पहचानों ने हमारी एक कैरेट चमक भी कम नहीं की है।
तो मी लॉर्ड, जैसा उधर हिंदुओं के छत्र में दलितों को आरक्षण है, वह हमें भी दे दिया जाए। ये देखिए हम भी दलित ही हैं, हम भी पिछड़े ही हैं, ईसाई या मुसलमान हो गए तो क्या हुआ, हमारे जाति प्रमाणपत्र देख लीजिए! हमारे पास पूरे कागजात हैं! हम दिखाने के लिए तैयार भी हैं। ये रही फाइल!
संवैधानिक सूराखों से सरकते हुए ऐसे धर्मांतरित और तथाकथित दलितों के ये आग्रह दरअसल बता क्या रहे हैं, यह भारतीय समाज और भारतीय शासन के नीति निर्धारकों के लिए बहुत गंभीरता से विचारणीय होना चाहिए।
यह आरक्षण के फायदों को बटोरने के लिए उठा एक और शाेरशराबा नहीं है। यह जहाँ से उठ रहा है, उन तंबुओं के भीतर ताँकझाँक का एक अवसर है। एक विहंगावलोकन। क्योंकि वे तंबू अब भी सजे हुए हैं। उनके घोषणापत्र बँटना बंद नहीं हुए हैं।
यह माँग साफतौर पर यह बता रही है कि ईसाई और इस्लाम के पंथों में बराबरी की बातें एक झूठ हैं। किसी कालखंड में कोई दलित अगर इनके फरेब में आकर रास्ता बदल बैठा तो अब वह यह बता रहा है कि वह बुरी तरह ठगा गया। यहाँ कोई बराबरी नहीं है और मत बदलने भर से उसका धेले का उन्नयन नहीं हुआ।
वह पीढ़ियों से वहीं का वहीं खड़ा है। यह आवाज दलित समाज को एक चेतावनी है कि जय भीम की सीमा उनके लिए एक अंतिम लक्ष्मण रेखा है। उस रेखा के पार कोई साधु वेश में ही बैठा है और उसके पास कोई पुष्पक विमान नहीं है, न ही कोई अशोक वाटिका में वह ले जाने वाला है।
उस फकीर की कोशिश कैसे भी आपको रेखा के बाहर खींच लाने की है। वह खाई की तरफ पहला कदम होगा।
यही जय भीम और जय मीम की ‘लाइन ऑफ कंट्रोल’ है। किसी समाज का दूरगामी भला चाहने वाले दूरदृष्टि संपन्न लीडर बाबा साहेब आंबेडकर ने अपनी किताबों में इस लक्ष्मण रेखा के पार के साधु का चरित्र बहुत स्पष्ट रूप से वर्णित किया है। उनके ही समय के दूसरे लीडर उस साधु वेश को सोने का हिरण समझकर मोहित हो बैठे और निर्दोष नागरिकों को उसके पीछे लगा दिया।
अब वे सारे फरेब उजागर हो चुके हैं। सच्चाई हर कोने से अपना चेहरा दिखा रही है।
वनवासी अंचलों में किसी दूसरे फकीर के झाँसे में आकर ठगे गए लोग उनकी हकीकत सामने ला रहे हैं अगर वे कह रहे हैं कि हमने भले ही गले में क्रॉस टाँग लिए हों मगर हम उस सूली पर अब भी टँगे हुए हैं, जिससे उतरने का वहम हमने अपनी पहचान बदलते समय पाला था।
हम जाति भेद की सूली से कभी उतरे ही नहीं। इससे तो वही सूली बेहतर थी, कम से कम आरक्षण की एक सीढ़ी तो मुहैया थी ताकि हम भी उतरकर एक समतल जमीन पर आ सकें।
अब उस सीढ़ी की माँग यह सबूत है कि परमात्मा के पुत्र जीसस क्राइस्ट के नाम से जो मदर और फादर हमारे सिर पर हाथ फेर रहे थे, उनके इरादे कुछ थे और वे सिर्फ अपनी संख्या बढ़ा रहे थे। वे सिर्फ अपने जत्थों को ताकत दे रहे थे।
उन्हें इस हम्माली के ऊँचे दाम विदेशी फंड से हासिल हो रहे थे। वे हमें उसी सूली पर टंगा हुआ छोड़कर दूसरे वनवासी अंचलों में यही करते रहे। सरकार अब हमें आरक्षण की सीढ़ी दे दे।
इस सीढ़ी की माँग गले में क्रॉस सहित उतरने की है। इस सीढ़ी की चाहत सिर पर टोपी सहित सरकारी पदों पर एक दलित के रूप में आसीन होने की है। मगर इससे क्या होगा? क्या बात को तूल दी जा रही है?
अब सरकारी दफ्तरों में क्या दृश्य बनेगा, यह देखिए। एक हिंदू दलित, जिसकी चौथी पीढ़ी लोकतंत्र में खुद को सबल कर रही है, अपने पास किसी पीढ़ी में भटककर ईसाई या मुस्लिम हुए दलित से लंच में मिलेगा।
एक के सिर पर टोपी, दूसरे के गले में क्रॉस होगा और वे दोनों हाथ में कलावा बाँधने वाले हिंदू दलित से रूबरू होंगे, अपने नए मजहबी दुराग्रहों के साथ। वे सब एक ही सीढ़ी का इस्तेमाल करके आए हुए लोग होंगे।
मनमोहन देसाई टाइप के डायरेक्टर इन अमर कुमारों, अकबर रंगरेजों और एंथोनी टोप्पो को कैसी कहानी में बुनते? क्या जटिल कहानी होती।
पता चला मतांतरण के बाद आशुतोष से अकबर बनकर भी वह रंगरेज रहा वहीं का वहीं, लखनऊ की किसी पुरानी हवेली के बाशिंदे शेरवानी साहब ने अपनी लाड़ली दुख्तर आरफा खानम के लायक उसे कभी नहीं माना।
वे ठहरे ईरान से आए हुए और ये यहीं का निचली जात का फटेहाल पसमांदा मोमिन। कहाँ हम ऊँचे घराने के अशराफ और कहाँ ये दो कौड़ी का अजलाफ। तौबा-तौबा! मुफ्ती साहब, मजहब अपना लेना एक बात है मगर रोटी-बेटी के रिश्ते बच्चों के खेल नहीं हैं!
अनिल बाल्मीकि से मिस्टर एंथोनी गाेंसाल्विस बनकर जब वह अपनी फ्रेंचकट दाढ़ी में नाक पर ऐनक धरे और गले में क्रॉस लटकाए चर्च पहुँचा तो यह देखकर झटका खा गया कि फादर ने उसे दूर से गुड मार्निंग किया है। फादर मार्टिन ठहरे केरल के चार पीढ़ी पुराने ब्राह्मण कैथोलिक, वे भला एमपी के इस रंगरूट को क्यों भाव देने लगे? अनिल को रिश्ते के लिए अब ईसाई खाँचे में बाल्मीकि परिवारों से परिचय प्राप्त करना था।
क्या दफ्तर के अगले दृश्य में वह अमर कुमार अपने सामने टोपी लगाकर बैठे अकबर रंगरेज से सवाल पूछेगा कि जनाब आप और आपके रहनुमा तो अजान के मीठे सुरों की गूँज में बराबरी की बड़ी-बड़ी बातें किया करते थे और हमारे धर्म का मजाक उड़ाया करते थे, अब वो हेकड़ी कहाँ गई?
क्या आपको अपने ठगे होने का अहसास अब भी नहीं है? जिस टोपी को आप राजमुकुट समझ रहे थे, उसने आपको आरक्षण की माँग करने वाली भीड़ का हिस्सा ही तो बनाकर रखा, दीन की ताकत कहाँ गई? होश है आपको, आपकी पीढ़ियाँ ठगी जा चुकी हैं और वह झूठे वहम की पोटलियाँ अब भी आपके सिर पर धरी हैं या गले से बँधी हैं।
तो मोहम्मद रफी की मधुर आवाज में खुद को इलाहाबादी कहने वाले अकबर रंगरेज और अमिताभ बच्चन के लुक में खुद को शहंशाह समझ रहे मिस्टर एंथोनी गोंसाल्विस अपने-अपने तंबुओं से बाहर ही आ जाइए। अपने पुराने तंबू अब उतने बुरे भी नहीं हैं। काहे के अकबर और काहे के एंथोनी, आप आशुतोष और अनिल ही अच्छे हैं, अमर कुमार की तरह!
भारतीय लोकतंत्र के खुलेपन और उदारता से भरे आकाश में हर तरह के परिंदों को उड़ान भरने की आजादी है। मगर वे सब अपने घोंसलों में लौटने के लिए ही उड़ानें नहीं भर रहे हैं।
यह आसमान ऐसे चीलों और गिद्धों से भरा हुआ है, जिनकी उड़ानें लगती लुभावनी हैं मगर होती प्राणघातक हैं। इन शिकारी परिदों के शोरशराबे और चीख-पुकारें समय के साथ बदलती रहती हैं। बस शिकार पर चौकन्नी नजर ही एक ऐसी बला है, जो कभी नहीं बदलती।
अगर भारत की सर्वोच्च संवैधानिक संस्थाओं में समाज का दूर का भला सोचने और देखने वाले बैठे हैं तो उनके आज के निर्णय कल के भारत की शक्ल तय करेंगे। जैसा कि कल के भारत के नीति निर्धारकों के निर्णयों ने आज जैसा भारत बनाकर छोड़ा है!