‘दीवार’ : जब गुलामी के प्रतीक स्वतंत्रता का पर्याय लगने लगें

10 अक्टूबर, 2022 By: विजय मनोहर तिवारी
छल-बल से हुआ धर्मांतरण और मजहबी गुलामी दिमागों में एक नकली गौरव बनकर कैसे पत्थर हो जाती है, यह दुनिया देख रही है। मगर विजय मनोहर तिवारी की इस कहानी का इससे कोई संबंध नहीं है।

बहुत साल पहले की बात है। शायद सदियों पुरानी।

एक बार एक प्राचीन नगर पर अजनबी दुश्मनों ने अकारण हमला किया। वे घात लगाकर आए। छल से कुछ धोखेबाजों को अपनी तरफ मिलाया और नगर पर कब्जा कर लिया। वे अलग भाषा और अलग रीति-रिवाजों वाले लोग थे, जिनका यहाँ के तौर-तरीकों से कोई मेल नहीं था। यह एक संपन्न नगर था। राजकोष भरा हुआ था। महल चमचमा रहे थे। देवस्थानों की रौनक देखते ही बनती थी।

ये अनजान दुश्मन कभी इक्का-दुक्का व्यापारियों के रूप में आकर सब देखते रहे और यहाँ की संपन्नता के समाचार दूर अपने उजाड़ खानाबदोश कबीलों तक ले गए। अंतत: उन कबीलों ने हथियारबंद होकर यहाँ का रुख किया।

एक दिन नगर काे घेर लिया गया। कोई इस युद्ध के लिए तैयार नहीं था, लेकिन लोग लड़े। जीते भी, हारे भी। लेकिन कुछ धोखेबाज दुश्मन से मिल गए। दुर्ग पर कब्जा करने के बाद उन अजनबी दुश्मनों ने असली रूप दिखाना शुरू किया।

सबसे पहले उन्होंने मददगार धोखेबाजों को मरवाया। फिर वे लूटमार के लिए महलों में घुस आए। महिलाओं और बच्चों को कैद कर लिया। देवस्थान गिरा दिए गए। मलबे पर नई इमारतें खड़ी कीं।

लूटपाट और मारकाट से अपनी जान बचाकर कुछ लोग नगर से रात के अँधेरे में भाग निकले और दूर सुरक्षित ठिकानों से यह सब चुपचाप देखते रहे।

नगर में जो लोग बचे रह गए वे झुकने को तैयार नहीं थे। वे मौका पाते ही विद्राेह पर उतारू हो जाते। नए स्वामियों के लिए यह रोज-रोज की झंझट थी। अंतत: हमलावरों के सरदार ने पुराने शहर के चारों तरफ एक खूबसूरत, लंबी और ऊँची दीवार बनाई।

उसने कहा कि यह हिफाजत के लिए है। उन मूल निवासियों को नया कानून दिया कि वे इस दीवार पर सुबह, दोपहर और शाम को आकर अपना माथा घिसेंगे। जिन्होंने आनाकानी की, उन्हें कोड़े मारे गए। जो टस से मस नहीं हुआ, उसकी गर्दनें उड़ा दी गईं। नगर में दहशत फैल गई।

सब चुपचाप सुबह, दोपहर और शाम को दीवार पर माथा घिसने लगे। बच्चे बड़े मजे से दीवार तक जाते। साल में एक दिन एक बड़ा जलसा दीवार पर होता। शायरों ने दीवार की महानता के तराने लिखे। दीवार एक महान प्रतीक बन गई। जंजीरों से गुलामी का अहसास जाता रहा। जंजीरें जेवर मान ली गईं। गुलामों की बिरादरियाँ बन गईं। दीवार के भीतर एक नया जीवन पनपने लगा।

वक्त गुजरने के साथ वे लोग हमेशा के लिए उस दीवार के हो गए। दीवार उनकी ही हो गई। नगर की प्राचीन गाथाएँ भुला दी गईं। हमलावरों की टुकड़ियाँ दीवार पर पहरा देती रहीं। समय के साथ हमलावरों के नए सरदारों ने नए-नए कैदखाने बनवाए। नई दीवारें बनवाईं।

दीवारों के भीतर मालदार लोगों ने सोने-चाँदी की जंजीरें बनवा लीं। उन्हें दूसरे गरीब कैदियों से अलग दिखना ही चाहिए था। कैदियों में ऊँच-नीच हो गई।

समय बीतता गया। पुराने नगर में कैद लोगों के बच्चे, बच्चों के बच्चे और उनके भी बच्चे उसी माहौल में पैदा होते और बड़े होते। एक दिन बूढ़े होकर मर जाते। वे अपने बच्चों को कैद की कहानियाँ बड़े गौरव से भरकर सुनाते।

-‘हमारे परदादा एक छोटे से कमरे में दस किलो की जंजीर के बावजूद उफ नहीं करते थे। इतने मजबूत थे। सौ साल जिए। ऐसी हमारी विरासत है।’ एक कहता।

-‘नगर की ऊँची दीवार को देखकर हमारे दादा ने तो अपने घर के चारों तरफ वैसी ही एक और दीवार बना ली थी। वे कहते थे कि ऊँची दीवार ऊपर वाले की तरफ एक इशारा करती है।’ दूसरा जोड़ देता।

-‘हमारे महान पुरखों को दीवार की अहमियत मालूम थी। वे बहुत दूर का देख सकते थे। हमारी किताब में इनके जिक्र हैं।’ तीसरा झूमकर कहता।

समय सदियों पर सवार हो गया। वह दीवार उनकी जिंदगी का हिस्सा हो गई। कोई दीवार पर उँगली उठाता तो दंगे हो जाते। वे अपनी पुरानी स्वतंत्रता को भूल ही गए। कोई भी शुभ कार्य हो सबसे पहले दीवार पर जाकर दुआ करते।

दीवार से जुड़ी कई कहानियाँ बन गई। यह यकीन पुख्ता हो गया कि यह दीवार तो ऊपर वाले की देन है। हमलावरों के पहरेदार पहले तो इन्हें देखकर हँसते और फिर वे भी बेफिक्र हो गए।

कई सौ साल बाद। पुराने नगर से जो लोग सुरक्षित जान बचाकर भाग गए थे, वे बाहर जाकर चुप नहीं बैठे। बाहर एक संघर्ष चलता ही रहा था। अपने मूल निवास से वंचित लोगों ने अपने साथ हुए अन्याय को अपने ही साथ मरने नहीं दिया।

वे अपने बच्चों को बराबर सुनाते रहे कि उनके साथ क्या हुआ था। बच्चों में यह भावना हर पीढ़ी में बनी रही कि वह संपन्न नगर उनका है, जो उन्हें हासिल करना है। एक बड़ा लक्ष्य आँखों के सामने बना ही रहा। जब जितनी शक्ति रही, संघर्ष भी चलता रहा।

इस संघर्ष से दूर दीवार से घिरे उनके ही लोग एक अलग दुनिया में पले-बढ़े। वे नगर पर कब्जा करने वालों को फरिश्ता समझने लगे, जिन्होंने उन्हें दीवार बनाकर दी थी।

जब बाहर बिखरे लोग एकजुट होकर अपना नगर फिर से प्राप्त करने के लिए जूझते तो पुराने नगर में दीवार से घिरे लोग कब्जेदारों की मदद करते। इनके साथ लड़ाई में आगे जाते। दीवार ने उन्हें तो आपस में जोड़ दिया और अपनों के ही खिलाफ खड़ा कर दिया।

एक दिन विस्थापित मूल निवासियों ने संगठित होकर अज्ञात दुश्मनों से बदला लिया। वे अपने विस्थापन की व्यथा को कभी भूले नहीं थे। वे जीत गए। कई सौ साल बाद नगर फिर से प्राप्त कर लिया गया। लेकिन तब तक उसका पूरा नक्शा ही बदल चुका था।

दुश्मनों ने इसे कब्जे में लेने के बाद इसकी शक्ल ही बदल दी थी। सब कुछ अपने ढंग से बनाया। पुराने शिलालेख हटाकर अपने नाम वाले शिलालेख अपनी ही बनाई दीवार में जड़ दिए थे।

पुराने पराजित लोग इस विजय के बाद जब नगर में प्रविष्ट हुए तो वह दीवार मजबूत हालत में देखी। एक बड़ी दीवार के अंदर कई पुरानी दीवारें। बाहर आने-जाने का एक ही दरवाजा था, जहाँ तैनात पहरेदार दुश्मनों के साथ भाग या मर चुके थे, लेकिन दीवार के भीतर जिंदगी वैसी ही थी। जैसे कुछ हुआ ही न हो।

सुबह, दोपहर और शाम को सब दीवार पर माथा झुकाने जाते। दीवार की महिमा गाते। कुछ लोग तो अपने हाथ, पैर और गले में छोटी-बड़ी जंजीरें डालकर आते। गुलामी के लिबास पर इतराते।

उन लोगों ने पुरानी यादें ताजा करने की कोशिश की। किस तरह वे झुंड नगर पर चढ़ बैठे थे। कैसे कुछ लोग भाग निकले थे। कैसे कुछ लोग नगर में ही रह गए थे। अब दीवार गिरनी चाहिए थी। जंजीरों और बेड़ियों से मुक्ति का समय आ गया था। मगर उस दिन घरों और गलियों में माजरा ही दूसरा था।

जब दीवार गिराने और जंजीरों की प्रथा पर रोक लगाने की बात हुई तो पुराने नगर में हल्ला मच गया। नारेबाजी का शोर उठा। एक प्रतिनिधिमंडल आया। उसने कहा कि यह हमारी परंपराओं का अपमान है। हमारी परंपरा में यह दीवार हमारी संस्कृति का महान परिचय है। जो बाहर दूर तक ऊँची दीवार की इबादत नहीं कर सकते, वे घरों में रखे दीवारों के प्रतीक की इबादत करते हैं। और जंजीरें तो हमारे पुरखों की शान हैं।

नगर के नए शासकों को, जो पुराने ही थे, यह देखकर हैरानी हुई। वे कल्पना ही नहीं कर सकते थे कि किसी समय गुलामी को मजबूत करने के लिए लादे गए नियम और सजाएँ समय के साथ रीति-रिवाज और संस्कृति बन जाएँगे।

अपमानजनक दीवार इबादत की पवित्र जगह बन चुकी थी और नाराज भीड़ उसके खिलाफ एक शब्द सुनना नहीं चाहती थी। वे लोग अपनी बेड़ियाँ और जंजीरें खनकाते हुए दीवार से जा चिपके और धमकी दी कि अगर किसी ने भी दीवार की तरफ टेड़ी निगाह की तो ईंट से ईंट बजा दी जाएगी।

वह ईंट से ईंट आज तक बज रही है।



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