हाल ही में दिल्ली की एक न्यायालय ने कुतुब मीनार परिसर के विषय में एक दायर मुकदमे को खारिज कर दिया है। यह मामला जैन देवता तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव और हिंदू देवता भगवान विष्णु की ओर से दायर किया गया था।
इसमें आरोप लगाया गया है कि महरौली स्थित कुतुब मीनार परिसर के भीतर स्थित कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद एक मंदिर परिसर के स्थान पर बनाई गई थी। साथ ही यह माँग भी की गई कि मंदिर परिसर पुनः बनाया जाए, जिसमें 27 मंदिर शामिल हैं।
न्यायालय ने ‘प्लेसिस ऑफ़ वर्शिप एक्ट 1919’ (Places of Worship Act 1991) के प्रावधानों द्वारा मुकदमे पर रोक लगा दी और सिविल प्रोसीजर कोड फॉर नॉन-डिसक्लोज़र ऑफ़ कॉज़ ऑफ़ एक्शन (Civil Procedure Code for nondisclosure of cause of action) के आदेश 7 नियम 11 (A) के तहत याचिका को खारिज कर दिया।
याचिका में आरोप लगाया गया कि 1198 में मुगल सम्राट कुतुब-दीन-ऐबक के शासन में लगभग 27 हिंदू और जैन मंदिरों को अपवित्र करके क्षतिग्रस्त कर दिया गया था, जिसके बाद उन मंदिरों के स्थान पर उक्त मस्जिद का निर्माण किया गया।
याचिका को खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि इतिहास की गलतियाँ वर्तमान शांति को भंग करने का आधार नहीं बन सकती हैं। सिविल जज नेहा शर्मा ने कहा:
“भारत का सांस्कृतिक रूप से समृद्ध इतिहास था। इस पर कई राजवंशों का शासन रहा है। हालाँकि, किसी ने भी इनकार नहीं किया है कि अतीत में गलतियाँ की गई थीं, लेकिन इस तरह के कि गलतियाँ हमारे वर्तमान और भविष्य की शांति भंग करने का आधार नहीं हो सकतीं।”
याचिका में आरोप लगाया गया कि मोहम्मद गौरी के एक कमांडर कुतुबुद्दीन ऐबक ने विष्णु हरि मंदिर और 27 जैन और हिंदू मंदिरों को संबंधित देवताओं के साथ ध्वस्त कर दिया था और मंदिर परिसर के भीतर कुछ आंतरिक निर्माण किए थे। साथ ही मंदिर परिसर का नाम बदलकर ‘कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद’ भी कर दिया गया।
मामले पर विचार करते हुए न्यायालय ने कहा कि एक बार सरकार द्वारा किसी स्मारक को संरक्षित घोषित कर दिए जाने के बाद, इस बात पर जोर नहीं दिया जा सकता कि इसका उपयोग अन्य उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए। न्यायालय ने आगे कहा कि प्लेसिस ऑफ़ वर्शिप एक्ट 1919 का उद्देश्य राष्ट्र के पंथनिरपेक्ष चरित्र को बनाए रखना है और इसका पालन किया जाना चाहिए।
न्यायालय ने आगे कहा:
“यह एक स्वीकृत तथ्य है कि यह संपत्ति मंदिरों के ऊपर बनी एक मस्जिद है और किसी भी धार्मिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल नहीं की जा रही है। इस संपत्ति में कोई प्रार्थना या नमाज़ अदा नहीं की जा रही है।”
न्यायालय आगे कहा कि इस मामले में अनुच्छेद 25 और 26 को ध्यान में रखते हुए संरक्षित स्मारक का उपयोग किसी धार्मिक उद्देश्य के लिए न किया जाए। न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के अयोध्या फैसले के अंश का भी हवाला दिया, जिसने पूजा स्थल अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा था।