अमीश त्रिपाठी अपनी किताबों पर अपना नाम केवल अमीश लिखते हैं। शिव रचना त्रय श्रृंखला की तीन पुस्तकों के बाद उनकी कई कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं। कुल मिलाकर साठ लाख कॉपी पाठकों ने हाथों-हाथ ली हैं। भारत के पौराणिक कथानकों पर उनकी कल्पनाशील लेखनी का यह परिचय है। वे बैंक की नौकरी से लेखनी में कूदे और यह एक ऊँची छलाँग सिद्ध हुई। इसका श्रेय वे सिर्फ भगवान शिव को देते हैं, जिनकी प्रेरणा हर रचना में रही है।
अमीश ने हाल में एक डॉक्युमेंटरी के लिए चित्रकूट से लेकर रामेश्वर के समुद्री तटों तक की यात्राएँ कीं। मुझे भी भारत की यात्राओं के दौरान इनमें से प्रत्येक स्थान पर काफी समय बिताने का अवसर मिला था।
अमीश रामेश्वरम में टेलीविजन के तकनीकी विशेषज्ञों के साथ यह देखकर चकित हुए कि उस भौगोलिक क्षेत्र में ऐसे पत्थर आज भी मिलते हैं, जो आकार में बहुत विशाल किंतु वजन में बहुत हल्के होते हैं और जिनका उपयोग निर्माण कार्य में किया गया है। वह रामसेतु का क्षेत्र है।
चित्रकूट में उन्हें यह देखकर हैरानी हुई कि हजारों वर्ष पहले महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में जिन जलधाराओं के प्रवाह का चित्रण किया है, वे चित्रकूट में आज भी वैसी ही देखी जा सकती हैं। वे प्रश्न करते हैं-‘हमारी पौराणिक घटनाओं और प्रसंगों की वैज्ञानिकता को सिद्ध करने का उत्तरदायित्व किसका था?’
तब वो लोग कौन हैं, जो इसे गप्पबाजी कहकर खारिज करने में एक सेकंड नहीं लगाते? जिन्हें पूर्णकालिक आनंद ही यह है कि वे कैसे भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा को एक सिरे से निरस्त करने योग्य ठहरा दें!
भारत में इस्लाम के बलपूर्वक आने के पूर्व के कालखंड में जिन राजवंशों ने पीढ़ियों तक भारत में स्थापत्य के चमत्कार रचे, उनके उल्लेख कहाँ और कितने हैं? वो लोग कौन हैं, जिन्होंने चोल, परमार, राष्ट्रकूट, सातवाहन, चालुक्य, काकातीय, कलचुरि, पाल और अहोमों की पीढ़ियों की पीढ़ियों को कहीं कोने में भी स्थान नहीं दिया?
फिर वो कौन हैं, जो सुहेलदेव को विस्मृति के अंधकार में बनाए रखकर हमलावर सालार मसूद को एक सूफी मानकर गाजी मियाँ की दरगाह को चौबीस घंटा प्रकाशित किए हुए रहे। अमीश ने सुहेलदेव में एक ऐसे ही विस्मृत वीर नायक को उकेरा है।
कुछ लोगों को लगता है कि अब गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या लाभ! यह लाभ और हानि का प्रश्न ही नहीं है। यह भारत के वास्तविक अतीत से जुड़ने की आवश्यकता है, जिसमें कम से कम सत्तर साल का विलंब है। यदि यह गड़े मुर्दे उखाड़ना ही है तो ऐसे मुर्दे हर दिन उखाड़े जाने चाहिए, जिनसे इतिहास के विस्मृत सत्य हमारे सामने आएँ।
यह किसी हिंदू का इतिहास नहीं है। न ही यह किसी मुसलमान का इतिहास है। यह भारत का इतिहास है और विध्वंस के कालखंड में जो कुछ भी भोगा भुगता गया है, वह हम सबकी सामूहिक वेदना है। यह वेदना उन लोगों के लिए अधिक भारी होनी चाहिए, जिनकी पहचानें ही बदल दी गईं।
वे अपना सब कुछ खो चुके हैं और विचारों की बेड़ियों में गौरवान्वित हैं। उनके गौरव को रक्षा कवच देने में हमारे सेक्युलर तंत्र का कम योग नहीं है।
इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल (ILF) में कुछ साल पहले उनसे पहली भेंट हुई थी और दो दिन पहले वे आईएलफ के संस्थापक सूत्रधार प्रवीण शर्मा के साथ भोपाल आए तो हम फिर मिले। इस बार वे ‘वॉर ऑफ लंका’ की प्रमोशन यात्रा पर निकले हैं।
उनकी पिछली किताब बहराइच के महासंग्राम पर राजा सुहेलदेव पर थी, जिसे मैंने पढ़ा। इसलिए भी कि इसी विस्मृत महासंग्राम के कारण मैं बहराइच गया था, जहाँ कभी राजा सुहेलदेव ने महमूद गजनवी के सगे भांजे सालार मसूद के इस्लामी लुटेरों की सेना का सफाया किया था। अमीश का अफसोस यह है कि हमने अपने वास्तविक नायकों और उनकी वीर गाथाओं को भुलाकर रखा।
वे इसके लिए स्वतंत्र भारत की सत्ता पर सवार हुए महान नेताओं के साथ समाज को भी उत्तरदायी मानते हैं। मगर अब भारतीय चेतना कंपित है। एक लहर है, जो अतीत के अनछुए, अनजाने और अनकहे अध्यायों के पन्ने फड़फड़ा रही है। निस्संदेह इसमें आधुनिक संचार तकनीक का बड़ा योगदान है।
मैं अमीश से सहमत हूँ। उनकी लेखनी ने इक्कीसवीं सदी के लाखों युवाओं को भारत के महान अतीत की एक झलक दिखाई है। ज्ञान को कॅरिअर का माध्यम मानकर डिग्रियों की तरफ दौड़ने वालों को पहली बार भारत के बारे में अगर कुछ जानने को मिला है तो यह स्वागत योग्य होना चाहिए।
वह सत्य और कल्पना का एक ऐसा लोक रचते हैं कि आपमें अपने शोध की वृत्ति जागृत हो जाती है। फिर आप सीधे शिव पुराण पढ़ लीजिए या ज्योतिर्लिंगों की रेखा में भूगोल को नापिए, किसने रोका है। अमीश कहीं नहीं कहते कि जो भारत में है, वही अंतिम सत्य है। वही अंतिम प्रकाशन है। कोई अंतिम अवतार होकर चला गया है। अब ज्यादा चूँ चपड़ की गुंजाइश नहीं है।
भारत ने प्रश्नों और तर्कों का सदा स्वागत किया। उपनिषदों का आधार ही जिज्ञासा है। आचार्य शंकर के समय तक शास्त्रार्थ की परंपरा में झाँकिए, जहाँ एक विदुषी अपने समय के दो महान दार्शनिक विद्वानों के बीच न्यायाधीश के आसन पर विराजित है। वह घूंघट या हिजाब के कारागृह में नहीं है और उन विद्वानों में से एक उसका अपना पति है।
मंडन मिश्र के नाम से संसार उन्हें सदियों बाद भी कितना जानता है, जो उस शास्त्रार्थ के बाद आयु में काफी छोटे आचार्य शंकर से विनम्रतापूर्वक संन्यास दीक्षा लेते हैं और उनके चार प्रमुख शिष्यों में सम्मिलित होते हैं। वह तर्क से सिद्ध सत्य निष्कर्ष थे, तलवार से नहीं। यही भारत है। अमीश इसी भारत के एक आधुनिक स्वर हैं।
कुतर्कियों, मूढ़मतियों और बज्रबुद्धियों से टकराना व्यर्थ है। आप केवल सत्य पर केंद्रित रहिए। विषय जो भी हो।