श्रीनगर की सिख लड़की का गुरुद्वारे में विवाह एक सुखद संकेत है हिंदुओं के लिए

30 जून, 2021 By: अजीत भारती
मनमीत कौर को अगवा कर जबरन इस्लाम कबूल कराया गया था

सोमवार, 28 जून 2021, की सुबह जब मुझे खबर मिली की दो सिख लड़कियों का मत परिवर्तन करवा कर निकाह पढ़वा कर ‘प्रेम हो गया’ के प्रोपेगेंडा में लपेट के परोसा जा रहा है तो मैंने तय किया कि कश्मीर जा कर ही इस पर बात करनी होगी। सिरसा जैसे नेताओं ने पूरी बात को, स्वयं को नेता बनाने के लिए, सिखों की भावनाओं को आगे रख कर उन्हीं मुस्लिम मौलवियों और मुफ्तियों से ‘बातचीत’ करने की राह बताई जो इस पूरे कोढ़ की जड़ हैं।

मैं जब कल शाम यहाँ पहुँचा तो मैंने स्थानीय सिखों से बात करने की कोशिश की। फिर इस कहानी का सच बाहर आया कि कब, क्या और कैसे हुआ। इस पूरे मुद्दे के दो पहलू हैं: कानूनी और सामाजिक। जब कानून समाज के मूल्यों को बचाने में अक्षम हो कर हाथ खड़े कर देता है तब अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु समाज को वैसे रास्ते अपनाने होते हैं, जो कानून कि बिना पर खरे नहीं उतरते लेकिन सहज समाज में उसकी स्वीकार्यता सामान्य रूप से होती है।

मनमीत की उम्र 18 साल, एक महीने बताई जाती है। उसका निकाह जिस न्यायालय में हुआ वहाँ कानून कहता है कि दो बालिग लोग साथ रहने के लिए स्वयं चुनाव कर सकते हैं। कानून यह नहीं देखता कि शाहिद नजीर भट नामक अधेड़ मुस्लिम की उम्र लड़की की उम्र को दोगुना करने के बाद भी दस साल अधिक है। कानून में यह प्रावधान नहीं है कि वह पूछ सके कि तुमने उसके परिवार में आना-जाना कब शुरु किया, उस वक्त बच्ची की उम्र क्या रही होगी। कानून अपनी आँखों की पट्टी के कारण यह देख नहीं पाता कि 46 साल का मुस्लिम 18 साल की सिख लड़की से अगर निकाह करता है तो उसके कथित प्यार की उम्र कितनी रही होगी। कानून मूक दर्शक बना बाप की उम्र के अधेड़ को 18 साल की बच्ची से ब्याहने के लिए एक गवाह बन कर, उसे कानूनी बना कर अपना आशीर्वाद देता है।

इसके बाद जो होता है उसके लिए कानून अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है। क्या हमें कानपुर की जूही कॉलोनी से ले कर केरल तक के वो तमाम मामले याद नहीं जहाँ हिन्दू बच्चियाँ, अधिकतर बार नाबालिग, मुस्लिमों के चंगुल में फँसती हैं, और उनके काम का तरीका एकदम यूनिफॉर्म होता है, एक ही पैटर्न से? लंदन के ग्रूमिंग गैंग से परफैक्ट किया जा चुका पैटर्न भारत में पिछले कुछ सालों में तीव्र गति से बढ़ा है।

मैंने कानून द्वारा जवाबदेही मुक्त होने की बात इसलिए कही क्योंकि ऐसे मामलों में कानून सिर्फ शादियाँ करवाता है, उसे न तो शादी के पहले क्या हुआ इससे मतलब होता है, न शादी के बाद क्या होगा, उससे। प्रेम का ढकोसला उसी तरह से प्रयोग में लाया जाता है जैसे पत्थरबाजी के लिए मुस्लिम अपनी औरतों और बच्चों को आगे कर देते हैं। एक वामपंथी गैंग कवर फायर देने के लिए तुरंत ही गुलाबी गीत गाने लगता है कि ‘क्या यही प्यार है, हाँ यही प्यार है।’

इस कथित प्यार के कुछ उदाहरण सुन कर रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ जाती है। जब एक मुस्लिम यह जानता है कि एक काफिर को कन्वर्ट कराना सबसे बड़ा सवाब है, तो वह यह भी जानता है कि लड़कियों के मामले में यह दुष्कृत्य उसे दोगुना सवाब देगा क्योंकि लड़कियों से इनकी वंशबेल चलती है और किसी हिन्दू की बंद होती है। वो यह जानता है कि सामाजिक कारणों से अपनी ही बच्चियों को ऐसे रास्ते चुनने पर त्याग देने वाले पिता और समाज के पास वो लड़की शायद ही वापस जाए। इसलिए, वो एक काफिर को पहले प्यार के नाम पर फँसाता है फिर उसे उसके काफिर होने की सजा देता है।

वह लड़की ऐसे मुस्लिम लड़कों और घृणित परिवारों के हाथों महज एक वस्तु बन कर रह जाती है। इसके बाद उस लड़की से, उसके वापस न जा पाने की विवशता का लाभ उठा कर, वैसे-वैसे काम कराए जाते हैं, जिसे सुनने के बाद हमारी आत्मा काँप उठती है। पहली रात का शौहर उसे अपने भाई के साथ अगली रात सोने को कह सकता है। किसी वीकेंड को अपने दोस्तों को बुला कर उसका सामूहिक बलात्कार करवाता है। कभी अपने बाप को भी अपनी हवस मिटाने को बुला लेता है।

यह तो तब होता है जब निकाह हो जाता है। हमने ऐसे मामले भी देखे हैं जब हिन्दू बच्चियाँ इसी प्रेम के चक्कर में पड़ कर कहीं भाग जाती है, तो भी उसका सामूहिक बलात्कार होता है। जब सच्चाई जानने पर वो ऐसे संबंधों को नकार देती हैं तब उन्हें एक अंतिम बार मिलने को बुलाया जाता है, लड़की जाती है और वहाँ उसका इंतजार लड़का और उसके दोस्त करते होते हैं, और फिर काट कर फेंक देते हैं किसी नहर या नदी में।

कश्मीर: दार-उल-इस्लाम की राह में रोड़ा है सिख समुदाय

कश्मीर से तो हिन्दू निकाले जा चुके हैं। संवैधानिक स्टेटस बदल चुका है लेकिन समाजिक स्टेटस नहीं बदला। पिछले तीन महीने में, ज्ञानी रजिंदर सिंह (चिट्टीसिंहपुरा) के अनुसार, कम से कम 11 सिख बच्चियों का इस्लामी कन्वर्जन (मत परिवर्तन) हो चुका है। इनमें से अधिकतर बच्चियाँ आज कहाँ हैं, परिवारों को पता तक नहीं। वो कहते हैं कि रोते हुए माता-पिता को लगता है कि वो कहीं जिंदा तो हैं, लेकिन शायद सीमा पार पाकिस्तान जैसे देशों में वो देह-व्यापार में ढकेल दी गई हैं।

जब आप ऐसी कहानियाँ सुनते हैं, और आपके सामने कानून की देवी नहीं दिखती, जिसके एक हाथ में न्याय का तराजू और दूसरे में दंड देने के लिए तलवार है। तब मुझे तलवार की जगह फूल की डाली दिखती है क्योंकि ऐसे अपराधों में दंड तो छोड़िए, इसे स्वीकारने तक में अदालतों को लूज मोशन होने लगते हैं। सरकारें कानून बनाती हैं, तो मीडिया का एक हिस्सा ‘प्यार के पहरेदार’ का नैरेटिव चलाने लगता है। सबको निकाह का प्यार दिखता है, लेकिन निकाह के बाद की रातों का बलात्कार किसी को नहीं दिखता।

18 साल की मनमीत जब 46 साल के उस अधेड़ के साथ निकाह का निबंधन करवा कर बाहर आ रही थी तो कश्मीर में कई सालों से लगातार सिख अधिकारों की लड़ाई लड़ते नवयुवकों के समूह ने, जो यूनाइटेड सिख फोरम के नाम से जाना जाता है, कोर्ट के परिसर से उस बच्ची को अपनी गाड़ी में साथ कर लिया। यह घटना 26 जून को हुई और इस फोरम के ज्ञानी रजिंदर सिंह समेत पूपिंदर सिंह मेहता, संतपाल सिंह, मनमीत सिंह, सतनाम सिंह, सनी और राजू शामिल थे। इन्होंने उस बात को समझा जो कानून नहीं समझता कि 18 साल की तो वो हस्ताक्षर करने के समय हुई, उससे पहले उसकी समझदारी कितनी थी कि 46 साल का मुस्लिम, जो उसके पिता की उम्र का है, उससे वो प्रेम करने लगती है?

आपने घर में उसे जगह दी, वो आन-जान करने लगा और एक दिन वो आपकी बेटी को फुसला कर कोर्ट ले जाता है और निकाह कर लेता है। इसमें प्रेम, वस्तुतः कहाँ है, मुझे यही समझ में नहीं आता। इसमें सिवाय एक मानसिक विकलाँग नर की अधेड़ उम्र के ठरकपन के मुझे और कुछ नहीं दिखता। इसमें मुझे एक सिक्ख और दूसरा सिक (बीमार) दिखता है। मैं इन मामलों में अपवादों को भी नहीं मानता क्योंकि इसके पीछे की पूरी मंशा ही गलत होती है। ट्विटर पर चाहे जितना ‘लव इज़ लव’ ट्रेंड करवा लो, अखंड सत्य यही है कि बीमार और ठरकी मानसिकता के मुस्लिम लड़के मासूम बच्चियों का शिकार करते हैं। इसकी न तो कोई दूसरी विवेचना है, न ही खोजने की आवश्यकता है।

सोमवार की रात करीब 11 बजे से डेढ़ बजे तक मैं कम से कम दस सिक्ख नवयुवकों और बुजुर्गों से मिला जो इस बात को ले कर चिंतित थे। ज्ञानी रजिन्दर सिंह की आवाज़ का धीमापन मुझे कचोटता रहा जैसे कि किसी व्यक्ति के पास, एक समुदाय का होने के कारण, जीने की कोई खास वजह न बची हो। उनके स्वरों में एक पीड़ा थी जो मैं अनुभव कर रहा था। एक पत्रकार के रूप में आप ऐसे समयों पर सुनने के अलावा और कुछ कर भी नहीं सकते। एक बेचैनी कि कैसे इस कैंसर को फैलने से रोका जाए, हमारी बातचीत का मुख्य विषय था। वहाँ वो लड़का भी था जिसका विवाह मंगलवार की सुबह दस बजे पुलवामा स्थित छठे बादशाही गुरुद्वारा, शादी मार्ग पर संपन्न हुआ। मुझे उस समय तक इसका अंदाजा नहीं था कि सुबह क्या होने वाला है।

मंगलवार की सुबह हमें एक कॉल आया कि जितनी जल्दी हो सके, हम उस गुरुद्वारे पर आ जाएँ, बच्ची का विवाह होने वाला है। मैं असमंजस में था कि कहीं ऐसा न हो कि हम पहुँचे और वो लोग निकल जाएँ। मैं और रमणीक सिंह मान (राजनैतिक विश्लेषक) साथ ही थे, हमने तय किया कि अगर परिवार से बात हो जाए तो उनका पक्ष हम दुनिया के सामने रख पाएँगे। हमने गाड़ी ली और गुरुद्वारे के लिए निकल पड़े। श्रीनगर से पुलवामा स्थित उस गुरुद्वारे तक जाने में करीब एक घंटे लग गए। विवाह हुआ, विदाई की तैयारी हो रही थी। हम लड़की और लड़के के परिजनों से मिले।

लड़की के चेहरे से ऐसा कुछ प्रतीत नहीं हुआ कि उस पर किसी भी तरह का दवाब है, इसके उलट जितनी देर मैं गुरुद्वारे में था वो लगातार प्रसन्नचित्त ही दिखी। यहाँ पर दूसरी बात जो गौर करने की थी वो यह कि लड़की के पिता थोड़ी चिंता में थे और रमणीक जी से मिल कर वो रो पड़े, “हमारी तो इज्जत बच गई भाई साहब… अगर बिटिया वापस न आती तो न जाने क्या होता!”

एक पिता का इस तरह से रोना हृदयविदारक होता है, आपका कलेजा फट जाता है क्योंकि आप स्वयं को असहाय पाते हैं। वहाँ न सिर्फ एक पिता बल्कि पूरा समुदाय एक सघन चुप्पी ओढ़े हुए कार्य निपटा रहा था। यूँ तो एक विवाह के आयोजन में माहौल हल्का और खुशियों भरा होता है, लेकिन वहाँ से लड़के और लड़की के परिवार को जल्दी दिल्ली के लिए निकलना था।

इसका कारण बताते हुए एक परिजन ने कहा कि इस विवाह के बाद दोनों ही लोगों और उनके परिवारों को खतरा है। कदाचित् वो समझ रहे होंगे कि उन्होंने जो किया है वो कानून की निगाह में गलत है, और दूसरा डर उन्हें उस पूरे समुदाय से भी है जिसने इसमें इतना समय लगाया और लड़की वापस चली गई। सोमवार (जून 28) की रात इसी बात पर चर्चा करते हुए, यूनाइटेड सिख फोरम के एक सदस्य ने कहा था –

“हमारे लिए तो घर है, माता-पिता है, पत्नी-बच्चे हैं। काम करने जाना होता है। उनका क्या है, उन्हें बस एक ही काम मिला होता है कि लड़की फँसा कर लाओ। दिन भर कोई काम नहीं, कोई पैसे दे रहा होता है, तो उन्हें समस्या क्या होगी।”

खैर, मैंने वहाँ पर बात करने की कोशिश की लेकिन अपराह्न 2:30 तक उन्हें श्रीनगर एयरपोर्ट पहुँचना था। सारे लोग अलग-अलग गाड़ियों में बैठे और एयरपोर्ट के लिए निकल पड़े। हमें हमारे संपर्क सूत्र ने कहा कि एयरपोर्ट के बाहर हो सकता है लड़की के पिताजी कुछ बयान दे दें। हम तय समय पर हवाई अड्डे पहुँच गए लेकिन परिजनों की गाड़ियाँ मनजिंदर सिरसा के कहने पर पास ही किसी होटल में बुलवा ली गई।

मनजिंदर सिरसा: क्रेडिटखोर, डरपोक और नकली सिख नेता

कई बार, एक पत्रकार के तौर पर आप कहानी का पीछा करते रह जाते हैं, और वो आपसे दो कदम आगे निकल जाती है। मेरे लिए यह कुछ नया नहीं था, हाल ही में उड़ीसा के मठों के तोड़ने पर अपराजिता षाडंगी नामक सासंद महोदया ने चार घंटे बिठाया और हमें इंटरव्यू नहीं दिया। तब मैंने तब तक के घटनाक्रम को एक लाइव वीडियो के माध्यम से अपने दर्शकों तक पहुँचाया। इस समय तक, ‘डू पॉलिटिक्स’ की टीम ने तीन एक्सक्लूसिव रिपोर्ट पब्लिश कर दी थीं।

मनजिंदर सिरसा के ऊपर बात करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि ऐसे लोग मुद्दे पर स्वयं को इतना हावी कर देते हैं कि ‘सिरसा जी ने कर दिया, वरना कहाँ कुछ हो पाता’, मूल मुद्दा गौण हो जाता है। सिरसा इस मुद्दे पर बहुत देर से कूदा और उसने अपने शब्दों का चुनाव भी बड़े सेकुलर सलीके से किया था। अपने ट्वीटों में सिरसा जैसे सिक्ख नेता से ‘मुस्लिम’ शब्द तक नहीं लिखा गया और उसकी जगह उसने ‘डिफरेंट कम्यूनिटी’ का इस्तेमाल किया। क्या सिरसा को यह लगता है कि यह सिर्फ एक मुद्दा है?

सिरसा और उसके पूरे गैंग ने बार-बार यह ट्वीट किया कि सिक्खों को मुस्लिम समुदाय के साथ बैठ कर आपस में यह सुलझा लेना चाहिए। जो स्वयं को सिखों का नेता कहता हो, वो आखिर अपने धर्म की 11 लड़कियों के कथित मतांतरण और निकाह के बाद भी, कश्मीर में मुस्लिम मौलवियों और मुफ्तियों से समझदारी की उम्मीद कैसे कर सकता है? जिसके सर पर पगड़ी है, वो आखिर स्वयं को सिख भी कहे और इतिहास को दोहराते हुए देखने के बाद भी, मौलवियों से अपनी बच्चियों के निकाह के बाद, उसे वापस लौटाने की बात सोच भी कैसे सकता है? हमने तो सिखों की तो बिलकुल दूसरी ही कहानियाँ पढ़ी हैं।

और किस आधार पर? कि हमने तो आपको CAA के समय बिरयानी खिलाई थी? मतलब बिरयानी के चक्कर में तुम बेटियों का सौदा कर रहे हो? किस अधम श्रेणी का जीव है ये! बैठ कर बात कर लोगे? क्या बात करोगे सिरसा? बात ही करनी थी तो फिर यह तो बताओ कि तुम गुरुद्वारे में क्यों नहीं थे विवाह के समय? जब तुमने विवाह में कोई सहयोग नहीं दिया, कोर्ट परिसर से बच्ची को लाने वाले न तुम थे, न तुम्हारे निकम्मे कार्यकर्ता, फिर तुम यूनाइटेड सिख फोरम के नवयुवकों के काम पर अपना नाम क्यों लिखवा रहे हो?

अगर सिरसा की इतनी पहुँच और पैठ है कश्मीर के सिख समुदाय में, तो फिर इस समुदाय के नवयुवक, दूल्हा और बुजुर्ग आखिर देर रात तक मेरे और रमणीक मान के साथ क्यों अपनी पीड़ा बाँट रहे थे? सिरसा जैसे नेताओं को लगता है कि वो बीच मुद्दे में तख्ती ले कर उतरेंगे, वाहियात माँगें रखेंगे और किसी और के द्वारा काम होने पर हवाई जहाज का टिकट कटा कर क्रेडिट ले लेंगे। सिरसा वस्तुतः एक फुँका हुआ कारतूस है जिसे अपने घर के लोग भी गंभीरता से लेते होंगे, मुझे संदेह है। सिरसा राजनीति करना जानता है, और वो भी निम्नस्तरीय।

निम्नस्तरीय इसलिए क्योंकि इस ढपोरशंख ने कुछ समय पहले हिन्दुओं द्वारा ‘लव जिहाद’ पर कानून बनाने की माँग उठाने पर कहा था कि वो धर्म कमजोर होता है जिसे कानून का सहारा चाहिए। अब इस निर्लज्ज नेता के कारण पूरा सिख समुदाय अपशब्द सुन रहा है कि तुम तो बड़े मजबूत थे न, तो तुम अब कानून की माँग क्यों कर रहे हो। ऐसे लोग स्वघोषित पैन-ब्रह्मांड नेता हो जाते हैं, जबकि घर में डायनिंग टेबल पर अपनी कुर्सी नहीं बचा पाएँगे।

निम्नस्तरीय इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इसकी माँग थी कि श्रीनगर में अमित शाह एंटीकन्वर्जन कानून ले कर आएँ। किस स्तर का पतित जम्मू-कश्मीर में मतांतरण विरोधी कानून लाने को कहेगा जबकि पंजाब में हजारों सिख हालेलुइया गा रहे हैं? कितनी बार सिरसा ने आवाज उठाई? अगर वो सही में सिखों का नेता है, और समझदार है, तो फिर वो इस जबरन, बहला-फुसला कर, व्यवस्थित तरीके से होने वाले कन्वर्जन पर पूरे देश में कानून बनाने क्यों नहीं कहता? क्योंकि बिरयानी खाने वाले नाराज हो जाएँगे?

क्या मनजिंदर सिंह सिरसा कश्मीर में एक नेता की तरह बैठ कर यहाँ के गुरुद्वारे की 70-80 एकड़ जमीन पर मुस्लिमों द्वारा किए गए कब्जे पर आवाज उठाएगा? क्या उसे मालूम भी है कि कश्मीर के सिख किस स्थिति में गुजारा कर रहे हैं? क्या उसे इस बात की अंदाजा है कि यहाँ के लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, और उनकी माँगे क्या-क्या हैं? ये तो वही बात हो गई कि खाली बैठे थे, मोलेस्टेशनदाताओं के आंदोलन पर मीडिया कुछ खास कर नहीं रही थी, तो मुँह उठा के सिखों के रहनुमा बनने आ गए!

क्या उस लड़की का विवाह उचित है?

कानून की नजर में लड़की का विवाह फिलहाल गैरकानूनी ही है क्योंकि उसने कोर्ट में शाहिद नजीर भट से निकाह किया था, और बिना तलाक दिए उसका दोबारा विवाह गैरकानूनी ही है। लेकिन, जब कानून की नज़र टेढ़ी हो, उसे मोतियाबिंद हो चुका हो, वो नागरिकों को सुरक्षा न दे सके, तो फिर पीड़ित समुदाय वही करता है जो उसे उचित लगता है।

हम बड़ी आसानी से यह कह देते हैं कि पहली शादी भी लड़की की मर्जी से नहीं हुई, और यह भी जबरन ही हुई, लड़की को तो वस्तु बना दिया गया है, उसकी मर्जी किसी ने पूछी ही नहीं। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ट्वीट करते वक्त हम अंतर्यामी और त्रिकालदर्शी हो जाते हैं। हम यह मान लेते हैं कि लड़की तो दवाब में ही होगी। हम अपनी अनभिज्ञता और अज्ञान को ही अंतिम सत्य मान कर कह देते हैं कि लड़की की मर्जी तो पूछी ही नहीं गई।

अब इसे अगर हम यह मान कर देखें कि लड़की की सिख लड़के से शादी गलत है, दबाव में है, तो हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि उस लड़की के, अपने आत्मसम्मान के साथ जीवित रहने की गणितीय संभावना नगण्य हो जाती है। हमारे पास आँकड़े हैं जो बताते हैं कि काफिरों की बेटियों के साथ वो मुस्लिम क्या-क्या करते हैं जो अपना नाम छुपा कर, नई पहचान बता कर उसका फायदा उठाते हैं। इसलिए, कानूनी हो या गैरकानूनी, लड़की जीवित है, खुश है और अपने परिवार के साथ है, यह उसके लिए सर्वथा उचित और बेहतर स्थिति है। किसी भी तर्क से देख लीजिए, आपका विश्वास आखिर उन हाथों पर कैसे हो सकता है जिसकी मंशा ही उसे चीरने की है, बजाय उसके परिवार के, जिन्होंने उसे पाला है?

अब प्रश्न यह है कि क्या सिख समुदाय द्वारा उसका विवाह कराना उचित है? मेरे निजी विचार में जब कानून अपने बनने की प्रतीक्षा में सैकड़ों बच्चियों को मूक हो कर बर्बाद होता देखता है, तब परिवारों के पास दूसरा रास्ता नहीं बचता। ये सीधे तौर पर दो अलग-अलग समुदायों में उचित और अनुचित की लड़ाई है। आखिर, बालिग होने के नाम पर कोई अपनी बेटी की उम्र की बच्ची से कैसे विवाह कर सकता है? एक महीने पहले तक की नाबालिग, महीने भर बाद बालिग हो जाती है? अगर बच्चे स्वतंत्र आत्माएँ हैं, तो फिर जिन्होंने अपने श्रम और प्रेम से उन्हें पाला, उनका अधिकार कहाँ जाएगा?

ये पश्चिमी सभ्यता के मूल्य हैं जहाँ छाती से चिपके शिशुओं को बेबी मॉनीटर के साथ अलग कमरे में डाल दिया जाता है। पश्चिम के नियम और अवधारणाओं को हम हर जगह लागू करेंगे तो अपनी ही संस्कृति को क्षति पहुँचाएँगे। अगर 18 साल के बच्चे बालिग हो कर फ्री हो जाते हैं, तो फिर उनके माँ-बापों को यह अधिकार होना चाहिए कि ऐसे बच्चे उन्हें 18 सालों के आर्थिक, भावनात्मक, मानसिक और अन्य निवेशों को वापस कर के उन्मुक्त हो जाए। अगर वह ऐसा नहीं कर सकते, तो उनके जीवन पर जन्मदाताओं का हक, एक दायरे में, हमेशा रहना चाहिए।

कानून आँख मूँदे भुट्टा चबा रहा है। वो अपने सामने रजिस्ट्रेशन करवा कर शाम को ताला मार कर आराम करने लगता है। कानून को क्या मतलब कि जिस दो जीवों को उसने एक साथ करने का फैसला लिख दिया है, उसमें से एक हैवान उसी रात उस लड़की को अपने बाप के साथ सुलाएगा या भाई के साथ ये फिर तीनों एक साथ सो जाएँगे। कानून तो कहता ही है कि उसे लोगों को बेडरूम में झाँकने की आवश्यकता नहीं है।

जबकि, उसने अगर दो लोगों को वैवाहिक बंधन में बाँधा है तो उसकी कम्पैटिबिलिटी तय करना भी उसी का काम होना चाहिए। आप यह सोचिए कि इस कानूनी विवाह के अलावा, कोई भी ऐसा विवाह है जहाँ समुदाय के लोग विवाह के बाद भी नए युगल के संबंधों को ले कर चिंतित नहीं रहते? क्या हमने यह नहीं देखा है कि पति-पत्नी में कोई समस्या आ जाए तो दोनों परिवार साथ बैठ कर उसे सुलझाते हैं? तो मुझे यह बताइए कानून साहब कि घूँघट देते वक्त तो आप बड़े भैंसुर बने फिरते हैं, लेकिन झगड़े के समय में रूठे फूफा की तरह देखने भी नहीं आएँगे?

कानून के इसी एटिट्यूड के कारण गुरुद्वारे में विवाह की घटना घटती है। कानून अपने ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं लेता, इसलिए समुदायों को जिम्मेदारी लेनी पड़ती है। उनकी सामूहिक इज्जत का भी प्रश्न है कि क्या वो अपने घर में लगने वाले सेंध को रोकने में सक्षम है या नहीं। केन्द्र सरकार को इस कैंसर पर सख्त कानून बना कर समाज को सुरक्षा का संदेश देना ही होगा। मजहबों के प्रचार की बातें संविधान में हैं तो बदलो ऐसे संविधान को। आखिर संविधान ओर सरकार को उन्हें संरक्षण देने की क्या आवश्यकता है कि ‘कोई अपना मजहब फैलाना चाहे तो वो ऐसा कर सकता है।’

प्रश्न है कि क्या हम इतने अंधे हैं कि उपनिवेशवाद और इस्लामी साम्राज्यवाद की विभीषिका को भूल गए हैं? उसकी जड़ में भी तो यही मजहब प्रचार था न? जिस कार्य से करोड़ों जिंदगियाँ गई हैं, उसे कोई संविधान स्वीकार्यता कैसे दे सकता है? आवश्यकता क्या है कि कोई मजहब ऐसे तिकड़मों से फैले? बच्चे पैदा करो, उन्हें शिक्षा दो मजहब की, बात खत्म। दूसरों के बच्चों में क्यों रुचि है तुम्हें?

यह एक आधारभूत समस्या है कि संविधान ऐसी नौटंकियों के प्रश्रय देता है। कन्वर्जन को गैरकानूनी और असंवैधानिक बनाना चाहिए। मजहब की आड़ में आत्माओं का व्यापार बंद होना चाहिए। एंटी-कन्वर्जन से कुछ नहीं होना वाला, तुम कितने भी नियम बना लो, फायदा नहीं। स्टेट को सीधे तौर पर किसी भी प्रकार के कन्वर्जन को प्रतिबंधित कर देना चाहिए। अपने बच्चे पैदा करो, उन्हें अपना मजहब सिखाओ और चिल करो। दूसरों के घरों में बकैती बंद होनी चाहिए।

साथ ही, सारे समुदायों के यह निर्णय लेना चाहिए कि इस ‘लव जिहाद’ जैसे कोढ़ को आप कानूनी तौर पर निबटना चाहते हैं, या फिर सामुदायिक स्तर पर अपनी बच्चियों को संवेदनशील बना कर, या फिर तीसरे तरीके से जिसमें सामुदायिक शक्ति प्रदर्शन का प्रत्युत्तर उसी स्तर के शक्ति प्रदर्शन से दिया जाए। क्योंकि एक बात तो तय है कि कानून आने वाले समय में आँख पर की काली पट्टी के साथ-साथ मुँह में गाजर, हाथ में दस्ताने, नाक में इनहेलर और कान में हेडफोन लगाए भी दिख सकता है।



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