योगी सरकार पर निशाना साधने की होड़ में 'इस्लामोफोब' वामपंथन कविता कृष्णन ने मुस्लिमों को बताया दंगाई

01 जनवरी, 2022 By: DoPolitics स्टाफ़
कविता कृष्णन ने अपनी हरकत से खुद को इस्लाम से नफरत करने वाला साबित कर दिया है

लेफ्ट-लिबरल्स को लेकर ऐसा माना जाता है कि वो जिस भी देश मे रहते हैं वहाँ बहुसंख्यक और सरकार विरोध से ही उनकी दाल रोटी चलती है। भारत में भी लेफ्ट लिबरल्स का यही रवैया है, लेकिन जितने झूठे और प्रोपेगेंडाबाज़ भारत के ‘लिबरल’ है, इतना शायद की दुनिया में कहीं और होंगे।

भारत के लेफ्ट लिबरल्स अपनी लड़ाई अल्पसंख्यको के कंधे पर बंदूक रखकर लड़ते हैं और इसके लिए वो हर वक्त अल्पसंख्यकों को भड़काने में लगे रहते हैं। अगर अपने इस अजेंडे के लिए उन्हें कोई जायज़ वजह न मिले तो वो थूक से प्रोटीन निकालने से भी गुरेज नहीं करते, ये अलग बात है कि थूक में प्रोटीन होता ही नहीं है।

‘थूक से प्रोटीन’ निकालने का ऐसा ही फूहड़ प्रयास फेमिनिस्ट-वामपंथी और फुल टाइम प्रोपेगेंडाबाज़ कविता कृष्णन ने किया। अंग्रेजी समाचार पत्र ‘इंडियन एक्सप्रेस’ न्यूज़ पेपर पर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के सुशासन वाले विज्ञापन पर आपत्ति जताते हुए कविता कृष्णन ने इसे ‘इस्लामोफोबिक’ साबित करने की कोशिश की, मगर ये दाँव उल्टा पड़ गया जब सोशल मीडिया यूजर्स ने उनसे उल्टे सवाल पूछने शुरु कर दिए।

दरअसल ‘इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार में योगी सरकार का कानून व्यवस्था से जुड़ा एक विज्ञापन छपा था। विज्ञापन के एक व्यक्ति की दो अलग अलग तस्वीरों से साथ कैप्शन दिया गया था कि ‘2017 से पहले दंगाइयों का खौफ, 2017 के बाद माँग रहे माफी।’

इस विज्ञापन की तस्वीर के साथ इंडियन एक्सप्रेस के चीफ़ एडिटर राज कमल झा को टैग करते हुए कविता कृष्णन ने ट्वीट किया,

“फ्रंट पेज पर करीब से नज़र डालें, जिसमें यूपी सरकार के एक बड़े इस्लामोफोबिक विज्ञापन को जगह दी गई है। आप यह दावा नहीं कर सकते कि यह केवल एक व्यावसायिक निर्णय है, यह विज्ञापन अखबार को फासीवाद का जरिया बनाता है।”

दिलचस्प बात ये है कि न तो विज्ञापन के शब्दों में कहीं इस्लाम या मुसलमान शब्द का प्रयोग किया गया था और न ही तस्वीर में दिख रहा व्यक्ति इस्लामी वेशभूषा में नज़र आ रहा था। बावज़ूद इसके कृष्णन ने इसे इस्लाम से जोड़कर अल्पसंख्यक समुदाय को भड़काने और अखबार को दबाव में लेने का प्रयास किया। कृष्णन के इस ट्वीट पर सोशल मीडिया यूजर्स ने तुरत्न ही रिएक्शन भी दिया।

सेंट्रल वफ्फ बोर्ड के सदस्य रईस पठान ने कृष्णन के इस ट्वीट को रीट्वीट करते हुए लिखा,

“विज्ञापन में मुस्लिम का कोई जिक्र नहीं है, लेकिन इस क्रूर महिला ने ‘दंगाई’ शब्द को मुसलमानों से जोड़ा है और इसे इस्लामोफोबिक कहा है। वास्तव में ये लोग व्यक्तिगत रूप से मुसलमानों के बारे में यही सोचते हैं और चाहते हैं कि हर कोई ऐसा ही सोचे ताकि बाद में ये इसका राजनीतिक लाभ उठा सकें।”

लेखक साकेत सूर्येश ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि सभी सिविल सोसायटीज़ को इस कट्टर कविता कृष्णन के खिलाफ खड़ा होना चाहिए।

ट्विटर यूजर ‘यो यो फनी सिंह’ लिखते हैं, “जब आतंकवाद का कोई मजहब ही नहीं होता तो फिर एक दंगाई का कैसे कोई मजहब हो गया? देखो। यहाँ कट्टर कौन है।”

ट्विटर यूजर नागेश कृष्ण शर्मा ने लिखा, “हे काले दिमाग की महिला! तुमने इस विज्ञापन को मुसालमानो से कैसे जोड़ा, इसमें तो ऐसा कुछ लिखा ही नहीं। जाओ अपना इलाज करवाओ, तुम समाज के लिये हानिकारक हो।”

अमृतपाल सिंह संधू लिखते हैं, “मतलब तुम मानती ही कि दंगाई हमेशा मुस्लिम ही होते हैं।”

मयंक लिखते है, “मैम, विज्ञापन इस्लामोफोबिक है या तुम? क्योंकि विज्ञापन में इस्लाम या किसी नाम का जिक्र नही है, इसमें सिर्फ ‘दंगाई’ कहा गया है। क्या आपके कहने का मतलब यह है कि दंगा करने वाले ज्यादातर इस्लाम के अनुयायी होते हैं? यह गलत बात है, इतना इस्लामोफोबिया अच्छा नहीं मैम!”

एक अन्य यूज़र ने अमर जवान ज्योति पर लात मारते उपद्रवियों की तस्वीरों के साथ लिखा, “यदि इन वास्तविक तस्वीरों का उपयोग किया जाता तो कहा जा सकता था कि हाँ मुसलमानों को दर्शाया जा रहा है लेकिन विज्ञापन में कहीं भी मुसलमानों को दंगाइयों के रूप में नहीं दिखाया गया है। कविता क्यों फैला रही है मुसलमानों के खिलाफ नफरत?”

विवेक एक तस्वीर ट्वीट करते हुए लिखते हैं, “जैसे ही योगी आदित्यनाथ दंगाइयों के के खिलाफ एक्शन लेते हैं, तब लिबरल्स की हालत ऐसी हो जाती है।”

नील मुखर्जी लिखते हैं, “इस ट्वीट के जरिये आप देश को ‘दंगाईयो’ का मजहब समझा दिए हो, मेरे तरफ से धन्यवाद और अभिनंदन। आशा है उत्तर प्रदेश के मतदाता अपने मतदान का अधिकार को प्रयोग करते समय आपकी बात को जरूर याद रखेंगे।”



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