फसादी किरदार: नाम-जगह बदल दो, सवाब की राह में सब जायज़

16 अप्रैल, 2022 By: विजय मनोहर तिवारी
कश्मीर से मध्यप्रदेश और सिंध से बांग्लादेश तक पनपती विषैली विचारधारा के फसादी किरदार पर रोशनी डालता विजय मनोहर तिवारी का लेख

कश्मीर में किसी गंजू या किसी टिक्कू का कत्ल करने वाले आज कहीं तो होंगे। किसी औरत के साथ बारी-बारी से रेप करके आरे से चीरने वाले भी अपने कामकाज में लगे होंगे। लाशों के टुकड़े-टुकड़े करने वाले भी किसी दुकान पर बैठे होंगे। खून से सने चावल खिलाने वालों के दाएँ-बाएँ हाथ भी अपने घर-परिवार में जिंदगी का लुत्फ ले रहे होंगे। मध्यप्रदेश के खरगोन में पकड़े गए किरदार भी ऐसे ही हैं, जिन्होंने अभी-अभी अपने हिस्से का सवाब कमाया है।

संवेदनशील भावनाओं को ठेस न पहुँचे इसलिए नाम बदले हैं। ये तो बस हर शहर की आर्थिक गतिविधियों के तरह-तरह के किरदार हैं। जैसे-मुजाहिद (बदला हुआ नाम) 16 साल का है। मदरसे में कुछ साल पढ़ा। फिर रहमान के गैराज में लग गया। महात्मा गाँधी मार्ग के एक कोने में पहले गुमटी की शक्ल में गैराज थी। काम बढ़ा तो फैलती गई। अब मुजाहिद की ही उम्र के पाँच लड़के लगे हैं। 

अशरफ 19 साल का है। नेहरू रोड पर ऑटोमोबाइल के शोरूम में उसी जैसे सात मेहनती लड़के हैं। 27 साल का फहीम कोरिअर के सामान का बैग अपनी बाइक पर लादे दिन भर पचास किलोमीटर घूमता है और दस से ज्यादा ठिकानों पर जाकर सामान पहुंचाता है। उसी की उम्र का मजीद होटलों से ऑनलाइन ऑर्डर पर खाने के पैक ले जाता है।

बीस साल के सलमान और शाहरुख को चिकन शॉप के लिए उस मजार के बगल में गुमटियाँ मिल गई हैं, जो मौलवी मुहम्मद अब्दुल्ला की कोशिशों से खूब फैल गई है। 

आशिक की उम्र 19 साल है और उसके साथ छह लड़कों का समूह रंगाई-पुताई में हुनरमंद है। साल भर उनका काम शहर की नई कॉलोनियों में चलता है। फर्नीचर का काम करने वाले 24 वर्षीय अब्दुल को भी साल भर काम मिल जाता है। उसके साथ भी उसी जैसे आठ लड़के हैं। तीन मामू के और पाँच चाची-फूफी के।

इनमें से किसी ने भी स्कूल की पूरी पढ़ाई नहीं की है। ज्यादातर मदरसों में मौलवियों से ज्ञान प्राप्त करके निकले हैं। फुटपाथ पर, सड़क किनारे, खाली प्लॉट या नुक्कड़ पर लगे सब्जी और फलों के हजारों गुमटी-ठेले भी किसी न किसी रहीम या रहमान की आजीविका का हिस्सा हैं, जो ज्यादातर गैर मुस्लिम इलाकों पर निर्भर हैं। 

इनमें से ज्यादातर किराया नहीं देते। कोई टैक्स नहीं। नाजायज कब्जों पर नेताओं और नगरीय निकायों के भ्रष्ट अफसरों का नियंत्रण है, जो ज्यादातर हिंदू ही हैं। यह गंगा-जमनी धारा का एक अजूबा प्रवाह है।

पाँचों वक्त की नमाज के वक्त अपना काम छोड़कर पास की ही किसी मस्जिद में इबादत करने बिलानागा जाते ही हैं। जिन इलाकों में ये काम करते हैं, वे ज्यादातर गैर मुस्लिम हैं। बड़े मार्केट, कारोबारी मुख्य मार्ग, प्रेस कॉम्पलैक्स, इंडस्ट्रियल एरिया, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, कोर्ट-कचहरी और दूसरे प्राइवेट या सरकारी दफ्तर वगैरह। 

यहाँ के 99 फीसदी रहवासी या कारोबारी जैन, सिख या हिंदू ही हैं, जहां ऊपर बताई गई सेवाओं में लगे बड़ी तादाद में मेहनतकश मुस्लिम होते हैं, जो आसपास या दूर की किसी सघन बस्ती के छोटे घरों से आते हैं। 

इन बस्तियों में किसी को नहीं मालूम कि जिंदगी कैसी है? वहाँ दीन की खिदमत में लगे मौलवियों की नेटवर्किंग से मदरसे और मस्जिदों की रौनक आबादी से भी तेज रफ्तार में बढ़ रही है।

अब हम रामनवमी के दिन हमलों की वारदातों पर आते हैं। वे 90 चेहरे कौन हैं, जो मध्यप्रदेश के खरगोन में पकड़े गए? वे सब ऐसे ही चेहरे हैं। वे किसी इबरील-जिबरील नाम के फरिश्ते की उँगली थामकर सात आसमान से नहीं उतरे हैं। वे सब साल के बाकी दिन नुक्कड़ पर पंचर जोड़ते हैं ताकि हम आराम से गाड़ी का मजा ले सकें। 

ऑनलाइन ऑर्डर पर पसंदीदा भोजन हम तक लाते हैं। वे पिछली दिवाली घर की उम्दा पुताई करके गए थे। जो कपड़े, किराने और ऑटोमोबाइल के शोरूम्स में हर दिन नजर आते हैं और जो चिकन, मीट, मटन की चमचमाती गुमटियों में गोश्त के टुकड़े करते हैं और पास ही कहीं से अजान की आवाज आने पर टोपी लगाकर चुपचाप इबादत के लिए निकल पड़ते हैं।

इन्हीं की तरह कल तक जो सब्जी और फलों की दुकानों पर भावताव और तोलमोल करने में लगे थे, एक सुबह चेहरे पर नकाब बाँधकर निकले और उनका किरदार बदल गया। हमलों में अनगिनत हाथ ऐसे ही होते हैं। जो नहीं पकड़े गए वे आज फिर हमारे बीच, बाजारों में, गलियों में, नुक्कड़ों पर, गुमटी-ठेलों पर मुस्कुराते हुए अपने काम में लगे हैं। 

कश्मीर में किसी गंजू या किसी टिक्कू का कत्ल करने वाले आज कहीं तो होंगे। किसी औरत के साथ बारी-बारी से रेप करके आरे से चीरने वाले भी अपने कामकाज में लगे होंगे। लाशों के टुकड़े-टुकड़े करने वाले भी किसी दुकान पर बैठे होंगे। खून से सने चावल खिलाने वालों के दाएँ-बाएँ हाथ जिनके होंगे, वे भी अपने घर-परिवार में जिंदगी का लुत्फ ले रहे होंगे।

शहर के कारोबार में सबके कारोबार चल रहे हैं। दीन के भी, दीनहीन के भी। जहाँ जंगल हैं, वहाँ नाजायज कटाई और कब्जे के काम बेखटके जारी हैं। शिकार पर कानूनी रोक बाहर वालों के लिए एक सूचना है। खुली जीपों में रात के अँधेरे में कब किस रास्ते से कूच करना है, उन्हें मालूम है। 

हिरण या बारहसिंघे कब कहाँ पानी पीने आएँगे, यह रेंजर ने ही बता दिया है, क्योंकि डीएफओ साहब को मैसेज आ गया था। मुस्लिम वोटर बहुल इलाका है, हर बार सेक्युलर पार्टी के टिकट पर कोई याकूब कुरैशी या कोई प्यारे मियां की ताजपोशी हो जाती है, जिनके बूचड़खानों में गोवंश बेखटके आता रहा है। 

एक बंद फैक्ट्री के महफूज दरवाजे से एक बार में तीस टन मीट मटन ढोने के लिए अनगिनत फिरोज, नवाज, आमिर, सुहैल, अनवर और रईस को काम मिला हुआ है। सरकार अपनी हो तो पूरा जंगल अपना ही समझो। डीएफओ और रेंजर को भी तो अपने हिस्से के साथ इज्जत से रहना है। जंगलों का जंगलराज जंगली ही जानते हैं।

कोई कभी दिल्ली में उपराष्ट्रपति रहा हो या मुख्य चुनाव आयुक्त के ऑफिस में दिखाई दिया हो या कानपुर में कमिश्नर बनाया गया हो। आईएएस हों या आईआईटियन या किसी मीडिया पोर्टल में बैठी और ट्विटर पर चहकती मोहतरमा हों। खवातीन हों या हजरात हों।

नाम कुछ भी हों। सारे दिमाग एक ही फ्रीक्वेंसी पर सेट हैं। सबका सुर एक ही है। अब वह सुर आम श्रोताओं की पकड़ में आ गया है। यही गड़बड़ हो गई है। अब तक जिस प्रोडक्ट को सेक्युलर मार्केटिंग ने खुशबूदार बताया था, उसका ढक्कन खुल गया है और सब नाक दबाकर जान बचाए हुए हैं!

जिंदगी की दौड़भाग में किसे यह देखने की फुरसत थी कि नाला किनारे एक दरख्त के नीचे कब एक मौलवी आकर हरी चादर डाल गया। कौन ईंटें और सीमेंट पटक गया। किसने कब्र बना दी। साल भर बाद कोई एक साइन बोर्ड भी टाँग गया। फिर लोभान का धुआं उड़ने लगा। हरी चादरों के ठेले सज गए। सजदा करने वाले तो कभी कम थे ही नहीं। 

कुछ सालों बाद जब आसपास बाजार बढ़े, कारोबार चमके तो कब्र की किस्मत भी जागने लगी। मौलवी का कैश काउंटर अब अगली अंगड़ाई के लिए तैयार था। देखते ही देखते आसपास की खाली जमीन को नाले तक नाप दिया। पाँच मंजिला कांक्रीट का स्ट्रक्चर तनकर खड़ा होने लगा।

एक सुबह हरे आइल पेंट से पुते ईंटें और पत्थर बाहर सड़क पर नजर आए। दरख्त गायब था और कब्र को उखाड़ दिया गया था। गुमटी अब चार मंजिला शोरूम में बदल गई, जिस पर चारों दिशाओं में टंगे लाउड स्पीकर पांचों वक्त अपनी फतह का ऐसा ऐलान करने लगे कि आसपास के दफ्तरों में मीटिंग मुहाल हो गई। 

जुमे के दिन सड़क से निकलना भी मुश्किल हो गया। जबकि यह पूरा कॉम्पलैक्स हिंदू, सिंधी और सिख कारोबारियों का है। कोई मुस्लिम कॉलोनी नहीं है। लेकिन शोरूम और गैराज, ठेलों और गुमटियों पर अपनी आजीविका कमाने वालों को एक शानदार इबादतगाह बिल्कुल वहीं उनके ही हिसाब से मिल गई। मौलवी फरमाते हैं कि अल्लाह सबका हिसाब रखता है। वह सब्र करने वालों का साथ देता है।

पता चला कि मौलवी ऐसी पाँच दरगाहों के नेटवर्क में अपने पूरे परिवार को लगाए हुए हैं। कहीं घोड़े वाले पीर, कहीं झब्बू बाबा, कहीं रंगीले-छबीले की मजार, कहीं छोटे मियाँ-बड़े मियाँ की दरगाह। 

मौलवी के रिश्ते सेक्युलर पार्टियों में ही नहीं, सांप्रदायिक पार्टियों में भी बराबर हैं। पहली बीवी का तीसरा बेटा सियासत में दाव आजमा रहा है। एमएलए का दायाँ हाथ है। इस नए रसूख का ही जलवा है कि शौक के मुताबिक अफसरों को उनका हिस्सा फार्म हाऊसों की दावतों में मुहैया करा दिया जाता है। मौलवी तो सबके लिए दुआ माँगते हैं। रहमतउल्लाअलैह की मेहरबानी है। दुआए खैर में सबको सब याद कर लेते हैं।

जलेसर से लेकर जबलपुर तक और मुरादाबाद से लेकर मुर्शिदाबाद तक, अहमदाबाद से लेकर हैदराबाद तक सब कुछ यूं यूँ ही आबाद है। खुशगवार माहौल में सब कुछ चल रहा है। आँखों के सामने। 

अब तक धीमी आँच पर उबलते मेंढक की तरह भारतीय समाज को बस अपने खत्म होने का इंतजार अब नहीं रहा है। उसके सामने से हर परदा हट रहा है। हर नकाब उतर गया है। हसीन चेहरे के पीछे छिपा वहशी विचार उजागर है। 

इतना ही क्या कम है कि वह सच को जान गया है। जब जान गया है तो देर-अबेर संभल भी जाएगा। नहीं भी संभला और खत्म भी होना पड़ा तो उसे मरते वक्त याद रहेगा कि असलियत यह थी और मैं इसके खिलाफ खड़ा हुआ था!

कश्मीर में तो 1990 में रामनवमी के जुलूस नहीं निकले थे। सिंध में आज भी कौन जयश्री राम के नारे लगा रहा है? बांग्लादेश में किसने मंदिर वहीं बनाने की माँग की? अफगानिस्तान में किस वजह से गुरु ग्रंथ साहिब को सिर पर रखकर निकलना पड़ा? न्यूयार्क या लंदन में कौन से बजरंग दली सक्रिय थे? 

मैंने यहाँ नाम बदले हैं। वह महात्मा गाँधी मार्ग की जगह एमजी रोड भी हो सकता है और जवाहरलाल नेहरू पथ की जगह राजीव गाँधी रोड भी हो सकता है। नाम में क्या रखा है। वह तो कम्बख्त एक इशारा भर है!



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