भीख में ही मिली थी आजादी, ठीक से समझ लो

16 नवम्बर, 2021 By: अजीत भारती
कंगना के बयान से असहमत होने वालों को आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है

‘अरे झक्की है, सायको है, कॉन्ट्रोवर्सी में रहती है तो दुकान चलता है इसका…’, ‘बिना कुछ उल्टा बोले तो इसका खाना ही नहीं पचता’, ‘बिकिनी में फोटो लगाती है, ये क्या बात करेगी हिन्दुओं की, फ़र्ज़ी है’, ‘मैंने तो पहले ही कहा था इस अनपढ़ को ज्यादा हवा मत दो…’

ये कुछ बातें हैं जो सोशल मीडिया के तत्वज्ञानी आए दिन कंगना रणौत के बारे में बोलते रहते हैं। ऐसा बोलना अत्यंत ही सहज है क्योंकि चमड़े के मुँह से हवा ही तो निकालनी होती है, जो कि अभी तक तो सर्वत्र निःशुल्क उपलब्ध है। टाइप करने में भी अंगूठा ही चलाना है। अपने बाप के पैसों से छत्तीस की उम्र में बीए, एमए, एम फिल, पीएचडी, नेट और न जाने क्या-क्या करते खलिहर युवा कंगना के ब्रा के स्ट्रैप और बिकिनी के आकार में भारतीय संस्कार परंपरा को खपाते पाए जाते हैं। 

कंगना के एक साक्षात्कार पर विवाद हुआ है। कुछ लोगों को बुलाया ही इसीलिए जाता है कि उनसे विचित्र प्रश्न पूछे जाएँ, उत्तर के टुकड़े निकाले जाएँ और फिर वह बात सिद्ध की जा सके जो हमने पहले से ही तय कर रखा है। आजादी कब मिली, कंगना का कथन उचित था या नहीं, इस सब पर हम आगे चर्चा करेंगे परंतु एक सफल स्त्री चरित्रहीन से ले कर मूर्खा तक बताने में हमारा समाज पीछे नहीं हटता।

एक स्वाबलम्बी स्त्री का सिगरेट पीना एक विकार है, संस्कारों की मलिनता है परंतु एक औसत पुरुष के लिए चेन स्मोकर होना ग्लैमर है। एक उत्थानोन्मुख नारी का बिकिनी पहन कर समुद्र किनारे बैठना चारित्रिक पतन का द्योतक है, परंतु अपनी पुत्री के वय की लड़की के साथ अश्लील संवादों के साथ फिल्म बनाना या किसी पार्टी में नाचना सफलता का जश्न है। 

वस्तुतः, कंगना ने जो पिछले सप्ताह कहा, जो पिछले महीने कहा, या जो पिछले साल या दशक में कहा, वह कभी भी केन्द्रबिन्दु है ही नहीं। कंगना के शब्दों से, उसके अर्थों से, उसके संदर्भ से एक पूरे वामपंथी गिरोह को और संस्कार, राष्ट्रवाद कुछ ठेकेदारों को अलग-अलग कारणों से समस्या होने लगती है।

वामपंथियों का तो पता है कि वो गाजर और नारंगी खाना तो दूर, देखना भी नहीं चाहते क्योंकि रंग भगवा है, तो कंगना जैसे लोग उन्हें कैसे सुहाएँगे जो उनके प्रभुत्व वाले क्षेत्र में बैठ कर, अपनी करोड़ों की क्षति झेल कर, एक वैसे उद्योग में आगे बढ़ रही है जहाँ हत्यारे भाइयों के एक फोन कॉल पर किसी को फिल्म नहीं मिलती, किसी का गाना भाई खुद ऑटोट्यून कर के गा लेते हैं, किसी का पूरा करियर बर्बाद कर देते हैं।

ठेकेदारों की समस्या यह है कि स्वयं उनके इनबॉक्स में ‘हे बेबी, हाय, जवाब तो दे दो, अरे बहुत घमंडी है, तेरे जैसे बहुत देखे हैं, साली भाव मत खा’ से होते हुए बिना उसके जवाब के बारह मिनट के अंदर उसे वेश्या कह कर अपनी निराशा कहीं बहा लेते हैं, लेकिन पब्लिक में उन्हें सब चकाचक चाहिए। ये लोग स्वयं किसी को अपना नायक या नायिका मानते हैं, तत्पश्चात् यह आशा रखते हैं कि कंगना कपड़े पहनने से पहले उन्हें एक फोन कर ले कि ये वाला आपके हिसाब से उचित रहेगा या नहीं, फिर ही कोई तस्वीर इन्स्टाग्राम पर डाले।

इन ठेकेदारों को साल भर हिन्दुओं को दुत्कारने वाले अभिनेता या अभिनेत्रियाँ गणपति उत्सव के समय अगरबत्ती जलाने के फोटो और तिलक लगा कर दीप प्रज्ज्वलित करते तस्वीर लगा कर स्खलित कर देते हैं कि देखो, वो तो दीया जला रहा है, घंटी बजा रहा है बच्चों के साथ। 

कंगना को नीचे खींचना इसलिए आवश्यक है इनके लिए क्योंकि उसके पास पैसा है, चार राष्ट्रीय पुरस्कार हैं, पद्मश्री है, अपनी प्रोडक्शन कम्पनी है और वामपंथियों के वर्चस्व से घिरे धंधे में वो किसी को दो पैसा भाव नहीं देती और खुल कर कहती है कि जिसको जो उखाड़ना है, उखाड़ लो।

कंगना निशाने पर इसलिए है क्योंकि कंगना अपनी आत्मा कॉन्ग्रेस को गिरवी रख कर, अपने उत्थान का रास्ता नहीं तय कर रही, वो उनकी जीहुजूरी नहीं कर रही, वो अपने घर और कार्यालय के गैरकानूनी तोड़-फोड़ के बाद भी टूटी नहीं, बल्कि और प्रखर हो कर ललकार रही है। कंगना निशाने पर इसलिए है क्योंकि कंगना खुल कर मोदी जी का समर्थन करती है जो कि आज के समय में एक पूरे गिरोह के लिए स्वतः एक नकारात्मक बिंदु बन जाता है। कंगना को निशाने पर लेना मोदी को निशाने पर लेने जैसा है क्योंकि इनकी औकात भौंकने भर की है, कर कुछ नहीं सकते। 

कंगना ने लगभग पैंतीस मिनट के साक्षात्कार में छः मिनट एक ऐसे विषय पर बोला जो कि समसामयिक हो चला है, और लोक व्यवहार में चर्चा में लगातार आ रहा है। बात सावरकर की हो रही थी और एंकर नाविका कुमार ने उनसे एक प्रश्न किया।

उत्तर सावरकर के विराट व्यक्तित्व से होता हुआ, अंग्रेजों की नृशंसता, स्वतंत्रता की पहली लड़ाई से होते हुए ‘भीख में मिली आजादी’ तक पहुँची और इसका उपसंहार इस बात से हुआ कि सही अर्थ में स्वतंत्रता तो 2014 के बाद मिली है। इसमें से एक मिनट का हिस्सा काटा गया और बताया गया कि कंगना ने तो कह दिया आजादी भीख में मिली है, ये तो देशद्रोही है, इसको जेल में डालो। ट्विटर पर ट्रेंड चलने लगा और फिर अपना कान न देख कर कौए के पीछे दौड़ने की प्रवृत्ति वाले लोग पागल हो गए। 

स्पष्ट रूप से कह रहा हूँ कि हाँ, हमें स्वतंत्रता भीख में ही मिली। किसी तारीख को अंग्रेजों का चला जाना यह नहीं साबित करता कि हमने स्वतंत्रता उन्हें भगा कर ले ली। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के बाद, उसी दौरान सुभाषचंद्र बोस समेत कई नेताओं द्वारा वैश्विक पटल पर अंग्रेजी शासन पर दवाब बना कर उनसे एक-एक कर राष्ट्रों को खाली करवाया गया।

भीख शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि देश के बापू और चाचा, अपना सारा राष्ट्रवाद, स्वाभिमान अंग्रेजों के अंडकोशों का वजन नापने में खपा रहे थे। ये लोग अपनी लॉबिइंग में थे कि मैं कैसे प्रधानमंत्री बन जाऊँ, और मैं कैसे अंतरराष्ट्रीय नेता कि अपने ही देश को बाँटने के लिए अनशन पर बैठ कर उसे अनंत काल तक के लिए एक सतत युद्ध की स्थिति में झोंक दूँ। ऐसे राष्ट्रपिता घोड़े की पीठ पर चार चवन्नी रख कर कविता पाठ के लिए बने हैं। ये हमें आजादी दिलवा रहे थे बिना खड्ग बिना ढाल?

हरि सिंह नलवे और भगत सिंह के साथ गीतों में ‘रंग अमन का वीर जवाहर से’ लिखवा कर जो प्रपंच फैलाया है, उन सबकी पंडिताई उनके जन्म दिवस पर लोगों द्वारा ठरकी दिवस मनाने पर सामने आ जाता है। विद्रोह किया किसी ने, बलिदान दिया किसी ने, लंदन तक जा कर अंग्रेजों को मारा किसी ने, प्रधानमंत्री चुना कोई और गया लेकिन बना नेहरू।

अपने स्वार्थ के लिए नेहरू जैसे लोगों ने समझौता किया था, और भीख ही माँगी थी। मोदी के आने से पहले तक तो साढ़े पाँच बजे शाम में बजट आता था हमारा, और आज भी उनसे जलियाँवाला बाग हो, बंगाल का अकाल हो या सैकड़ों छोटे-बड़े नरसंहार, एक औपचारिक माफी तक नहीं मँगवा पाए। 

जा कर पढ़िए अप्रैल 1948 में लिखी नेहरू की चिट्ठी जहाँ नौ लाइन में तीन बार ‘हर मेजेस्टी’ ऐसे लिखा है जैसे कि न लिखें तो उसकी प्रधानमंत्री की कुर्सी विक्टोरिया छीन लेगी। माउंटबेटेन के नाम के आगे छः सम्मान ऐसे लगाए हैं जैसे कि न लगाएँ तो एडविना रूठ जाएगी। क्या यह भाषा होती है एक स्वाभिमानी राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष की जिसने स्वतंत्रता जीत कर ली हो? जी नहीं, यह भाषा भीख में मिली स्वतंत्रता और भीख में मिली कुर्सी पर बैठे भिखारी और पराभूत आत्मसम्मान के साथ जीने वाले रीढ़हीन जीव की होती है जो किसी दूसरे की गुलामी कर रहा हो।

लड़ कर ली गई स्वतंत्रता वाला राष्ट्र गेटवे ऑफ इंडिया हो या इंडिया गेट, संसद भवन हो, राष्ट्रपति भवन हो, जॉर्ज पंचम की मूर्ति हो या विक्टोरिया मेमोरियल, हर उस औपनिवेशिक नासूर को पहले ही दिन ध्वस्त करता है जो उसे उसकी गुलामी की याद दिलाता है। हमने क्या किया? हमने उन्हीं भवनों को, उन्हीं स्मारकों को इस तरह से सम्मान देना शुरु कर दिया जैसे कि हमारे पास स्थापत्य कला नहीं थी, हमारे पास लोग नहीं थे, पैसे नहीं थे, सोच नहीं दी, दृष्टि नहीं थी कि हम अपना राष्ट्र बनाएँ। 

अरे रीढ़ होती नेहरू जैसे लोगों में तो वो पहले ही दिन से औपनिवेशिक प्रतीकों को ध्वस्त करते, आग लगा देते विक्टोरिया मेमोरियल में जिसके प्रधानमंत्री चर्चिल की शह पर लाखों बंगालियों की सुनियोजित हत्या की गई थी। लोगों में नेताओं ने स्वाभिमान की अगर लहर डाली होती तो गेटवे ऑफ इंडिया से ले कर हर वो भवन हाथों से लोग नोच देते जिन्होंने हमारे पूर्वजों को मारा, काटा, गुलामों की तरह रखा।

आप इतिहास उठा कर देख लीजिए कि ऐसी विलक्षण हीनभावना और किस भू-भाग पर है कि गुलाम भी रहे, यह भी क्लेम किया कि हमने आजादी पा ली, और फिर अपने गोरे मालिकों के बनाए घर में बैठ कर शाम के साढ़े पाँच बजे बजट पेश कर रहे हैं। भीख में मिली आजादी वाले राष्ट्र ही ऐसा करते हैं।

स्वाभिमानी राष्ट्र तब तक टेंट गाड़ कर संसद की कार्रवाई खुले मैदान में करता जब तक हमारे अपने श्रमिकों द्वारा, हमारे अपने आर्किटेक्ट द्वारा डिजाइन किया हुआ भवन न बना दिया जाता। स्वाभिमानी राष्ट्र सबसे पहले गुलामी के हर प्रतीक को तोड़ते हैं, यहाँ तो सबको कोट-पैंट पहन कर अंग्रेज बन कर, वैसा ही दिखने की ललक थी। 

इसलिए जब कंगना कहती है कि आजादी हमें भीख में मिली, तो जान लो, बूझ लो, समझ लो कि हाँ, आजादी भीख में ही मिली। यह बात अवश्य है कि भीख में मिली आजादी कहने से उन बलिदानियों का बलिदान व्यर्थ नहीं हो जाता जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए प्राण न्योछावर किए थे। परंतु हाँ, उनकी आत्मा अवश्य ही कलपती होगी जब नेहरू जैसे लोग ‘हर मेजेस्टी’ लिख कर डोमिनियन ऑफ इंडिया कह कर लंदन से अपने देश को चलाने की अनुमति माँगते थे।

उन्हें 47 की जगह 57 की स्वतंत्रता की स्वीकार्य होती, हमारे दस हजार क्रांतिकारी और बलिदान होते लेकिन स्वतंत्र राष्ट्र डोमिनियन ऑफ इंडिया नहीं होता, वो सिर्फ इंडिया होता और हमारे प्रधानमंत्री विक्टोरिया से देश चलाने की परमिशन नहीं माँग रहे होते। किसी स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं हम? पता कीजिए कि हमारे आदिवासी जनजातियों को क्या पंद्रह अगस्त को ही स्वतंत्रता मिल गई थी?

उन्हें ‘आपराधिक जनजाति कानून’ से इसी राष्ट्र ने 1952 में हटाया तो अवश्य लेकिन 500 ऐसी जनजातियों को दोबारा ‘हैबिचुअल ऑफेन्डर्स एक्ट’ के तहत, जन्मजात अपराधी की जगह, आदतन अपराधी बना दिया गया। ये नेहरू की कैबिनेट ने किया। नेहरू जैसे पढ़े-लिखे प्रधानमंत्री ने अपने ही राष्ट्र के 500 आदिवासी जनजातियों को अंग्रेजों द्वारा जन्म से ही अपराधी मानने को पाँच साल तक ढोया और बाद में उन सबको, ‘आदतन अपराधी’ बता दिया। 

ये भीख में मिली आजादी ही नहीं, भीख में मिला कानून था। ऐसे सैकड़ों कानून तो नरेन्द्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में निरस्त किए हैं। हमारा भारतीय दंड विधान, आपराधिक विधान सब तो भीख में ही मिला है, जब इतने वकील थे संविधान सभा में जो संविधान छाप रहे थे, तो अपने समाज के हिसाब से दंड विधान क्यों नहीं बनाया? आप अपने समाज को चलाने की सारी प्रक्रिया स्वतंत्रता के बाद भी वही रखे हुए हैं जो एक मालिक ने गुलामों को साधने के लिए लिखा था।

आप इस आधारभूत अंतर को समझिए कि मैं अगर अपने खेत में काम करने वाले नौकरों के लिए कानून लिखूँगा, नियम बनाऊँगा तो कैसा बनाऊँगा और क्या वही नौकर जब खेत का स्वामी हो जाएगा, तो स्वयं को, या अपने परिजनों को चलाने के लिए उसी कानून का अनुसरण करेगा? यह कैसी विलक्षण मूर्खता है? ऑक्सफोर्ड में पढ़ता था न लेहरू, उस चमचे के यह समझ में नहीं आया कि अपने समाज को अपने दृष्टिकोण से देखना चाहिए, न कि अंग्रेजों के?

यह भीख नहीं है और यह भिखमंगों वाला एटीट्यूड नहीं है तो क्या है? दुर्भाग्य यह है कि आंशिक रूप से तो आज भी ढो ही रहे हैं हम उसे! हमने कभी भी पूरी स्लेट को साफ किया ही नहीं, हम बस अंग्रेजों के टायपो सुधारते रहे और गुनगुनाते रहे कि साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल! 

कंगना ने कहा कि कॉन्ग्रेस पार्टी अंग्रेजों के शासनशैली का एक विस्तार मात्र थी। उन्होंने कहा कि कॉन्ग्रेस इज एन एक्सटेंशन ऑफ द ब्रिटिश। इसमें गलत क्या है? नेहरू ने और कॉन्ग्रेस जैसी अधम पार्टी ने अंग्रेजों के ही अजेंडे को आगे बढ़ाया। आज तक विद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में अंग्रेजों का महिमामंडन स्पष्ट रूप से और विस्तार से वर्णित है ही, हमें अंग्रेजी बोलने पर गौरव का अनुभव करने कहा जाता है, उनकी वेशभूषा पहनना आधुनिकता है और इस पार्टी ने सतत प्रयास किए हैं हमारे राष्ट्र की भाषाओं और संस्कृतियों को नष्ट करने के लिए।

कंगना तो सही कहती है कि कॉन्ग्रेस ब्रिटिश शासन की एक शाखा मात्र है। नहीं होती, और रत्ती भर भी आत्मगौरव होता, तो हमारी शिक्षा पद्धति ऐसी औपनिवेशिक ही नहीं, मुगलिया गुलामी को ग्लैमराइज करने वाली नहीं होती। 

सत्य यह है कि, कंगना के ही शब्दों में, हम स्वतंत्र तब हुए जब हमें भारतीय होने पर गौरव का अनुभव होना शुरु हुआ, जब हमें अपनी संस्कृति पर अभिमान होना आरंभ हुआ, जब हमें लगा कि हिन्दी, राजस्थानी, हरियाणवी, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ बोलना भी गौरवपूर्ण बात है।

हमें अंग्रेजी का एक्सेंट या भाषाई ज्ञान न होने पर होने वाली शर्मिंदगी से छुटकारा तो अब मिला है। चाहे कोई स्वीकारे या न स्वीकारे, सामूहिक रूप से राष्ट्रीयता और धार्मिकता को जो बोध नरेन्द्र मोदी के आने के बाद हुआ है, उसका कोई समानांतर नहीं।

मानसिक दासत्व से मुक्ति तभी मिलती है जब हम अपनी प्रथाओं पर, अपनी भाषा-संस्कृति पर, अपने परिधान पर, अपने भोजन पर गर्व करते हैं। वैश्विक संदर्भ में अंग्रेजी बोलना एक एक आवश्यकता है, एक भाषाई कौशल है, परंतु वही हमारे व्यक्तित्व का आधार नहीं बनना चाहिए। वह हमारे व्यक्तित्व का एक हिस्सा हो सकता है, पूरा व्यक्तित्व नहीं। 

इतिहास विजेता अवश्य लिखते हैं लेकिन जब वो मिट्टी में मिल जाते हैं, और हमें हारे हुए लोगों के अक्षर जब मिलने शुरु होते हैं तो आने वाली पीढ़ी उस सत्य को भी अनावृत करती है, क्योंकि लिखना सिर्फ गोली चलवाने वाले जनरल को ही नहीं आता, लिखना उन्हें भी आता है जो जलियाँवाला बाग से लाशें ढो कर ला रहे थे।

इतिहास किसी खानदान की रखैल नहीं है, भले ही रखैलें रखने और रखेल बनने का उनका इतिहास पुराना हो, इतिहास अधूरा, एकपक्षीय हो कर पूर्ण होने का ढोंग कर सकता है, लेकिन दूसरा पक्ष भी कालचक्र के साथ दबी मिट्टी से बाहर प्रस्फुटित होता है।

तुम चाहे लाख गाँधी का चश्मा छाप दो, भजनों को पैरोडी बना कर ईश्वर-अल्ला तेरे नाम बना कर एक अधम श्रेणी के स्वार्थी, जिद्दी और हिन्दूद्रोही को राष्ट्र का बाप मान लो, लेकिन उसके जन्मदिन पर नाथूराम गोडसे का ट्रेंड होना बताता है कि समाज को सच्चाई का पता चल चुका है। सत्तर साल का अर्थ यह नहीं है कि हम इतिहास की त्रुटियों और प्रपंचों के सत्यान्वेषण में न उतरें। बाहर झाँको तो तुम पाओगे कि दासता के प्रतीकों को अमेरिका में आज भी नोचा जा रहा है।

कंगना तो उस मंच पर है जहाँ वो बोल सकती है, लोग सुन सकते हैं। इसलिए उसका भी होना आवश्यक है। जो गैरवामपंथी लोग कंगना को लताड़ रहे हैं उन्हें स्वयं पर नियंत्रण तो रखना ही चाहिए, साथ ही आधे मिनट की क्लिप पर विश्वास करने की जगह पूरा साक्षात्कार सुनना चाहिए। नरेन्द्र मोदी ने भारत को उसका आत्मसम्मान दिया है। चूँकि आज के परिप्रेक्ष्य में इंडिया गेट को ढाहना दुष्कर है तो उन्होंने बलिदानियों के लिए बगल ही में राष्ट्रीय स्मारक बनवाया। चूँकि आज हम संसद को यह कह कर नहीं ढाह सकते कि यह अंग्रेजों की निशानी है क्योंकि ऐसा करना पूर्व सरकारों का उपहास हो जाएगा कि तबसे क्या पैसे नहीं थे कि नया बनवाते, इसलिए नया सेंट्रल विस्ता बन रहा है।

मैं मोदी जी की तरह व्यवहारिक व्यक्ति हूँ नहीं। मैं इन तमाम इमारतों को सार्वजनिक मूत्रालय और शौचालय बना देना चाहता हूँ जो अंग्रेजों ने बनवाई हैं। विक्टोरिया मेमोरियल में सुलभ इंटरनेशनल वालों को मूत्रालय बनाने का ठेका दे देना चाहिए। मुगलों की जितनी इमारतें हैं सबका रखरखाव बंद होना चाहिए, या वहाँ सूअरों के बाड़े बनाए जाने चाहिए या उन्हें ध्वस्त कर के वहाँ मंदिर आदि, गंगा जल से शुद्ध करने के बाद, बनाना चाहिए। यह एक संदेश होगा वैसे राष्ट्र को जिसने अपना कलुषित इतिहास छुपाया और माफी तक नहीं माँग रहे। 

राष्ट्र और स्वाभिमान को ले कर मेरा पक्ष स्पष्ट है कि मैं भूखा और नंगा रह कर, सड़क पर सो लूँगा लेकिन उस व्यक्ति के, जिसने मेरी माँ-बहन का बलात्कार किया, पिता की हत्या कर दी, बनाए घर में इसलिए नहीं रहने लगूँगा कि वो कल से किसी और जगह जा रहा है।

मुझे मैक्समूलर भवन, चेम्सफोर्ड रोड, संसद भवन, लाल किला, विक्टोरिया मेमोरियल चुभते हैं आँखों में, धिक्कारते हैं मेरी आत्मा को क्योंकि मैंने देखा है स्वतंत्र होते राष्ट्रों को उन मूर्तियों को गिराते हुए, उन भवनों को नष्ट करते हुए जो उन आतंकियों ने बनाए जिन्होंने उन्हें गुलाम बनाए रखा था। कंगना का कहना शब्दशः सत्य है कि हमें आजादी भीख में मिली थी, मेरा उसे पूर्ण समर्थन है। 



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