‘भारत में इस्लाम’ के पहले भाग की 25 में से आखिरी कहानी 8 जुलाई 1320 की है। दिल्ली की वह रात जब क्रूर खिलजी खानदान का खात्मा घर में घुसकर किया गया था। कम से कम चार समकालीन लेखकों ने उसकी ग्राउंड रिपोर्ट दर्ज की हैं। उन लोगों के नाम सहित, जिन्होंने भारत की तबाही के शुरुआती गुनहगार अलाउद्दीन खिलजी के महलों के चिराग बुझा दिए थे।
वह एक ऐसी मुहिम थी, जो केवल तख्त पर कब्जे के लिए नहीं की गई थी। आप साफ देख सकते हैं कि भारतीयों का वह समूह लंबे अरसे तक तैयारी करता था और अवसर की प्रतीक्षा में वह सब करता रहा, जो खिलजी चाहते थे। वे दिल्ली में बसे अपने जातीय समूह का अस्तित्व दाव पर लगाकर मिशन मोड पर लगे थे। आखिर वे कौन लोग थे?
दिल्ली के लेखकों ने उनके ब्यौरे बहुत स्पष्ट लिखे हैं। वे लेखक, जो भारत भर की लूट के माल पर अपने आकाओं के इशारों पर मजे कर रहे थे। उस रात खिलजी के महलों में मची अफरा-तफरी ने सबके चेहरों की रौनक उड़ा दी थी।
वे बड़ी नाउम्मीदी से भरकर लिखते हैं कि कुतबुद्दीन मुबारक को कत्ल कर दिया गया है। उसका कटा हुआ सिर महल के फर्श पर पड़ा है। मस्जिदों में बुत रख दिए गए हैं। दिल्ली में इस्लाम का सूरज बुझ गया है। कुफ्र का बोलबाला कायम हो गया है।
वे गुजरात मूल के लोग थे, जिन्हें परवार, बरवार, ब्रादो कहा गया है। उनका लीडर था हसन नाम का एक आदमी, जो हाल ही में हिंदू से मुसलमान बना था। उसके आसपास कई और रिश्तेदार और परिजन नजर आते हैं, जिनके नाम हिंदू ही हैं। जैसे उसका एक मामा रंधौल।
वे संगठित और सशस्त्र रूप में एक दिन अपनी पूरी तैयारी के साथ शाम ढलते ही खिलजी के महल में दाखिल होते हैं। हसन की उपाधि खुसरो खां थी और उसे इसी नाम से संबोधित किया है। वह अलाउद्दीन खिलजी की मौत के बाद चार साल से तख्त पर कब्जा जमाए बैठे कुतुबुद्दीन मुबारक का नायब है। दिल्ली में दूसरे नंबर का ताकतवर आदमी।
इस दिन का यह ‘सर्जिकल ऑपरेशन’ दिल्ली पर कब्जा जमाने वाले तुर्कों के भीषण उत्पाती दौर का एक दिलचस्प अध्याय है। हसन किस हिंदू परिवार से था? गुजरात में कहाँ से था? किन हालात में वह मुसलमान बन गया था? इसकी कोई डिटेल नहीं है।
हाँ, 1299 में अलाउद्दीन खिलजी का भीषण हमला गुजरात पर हुआ। राजा कर्ण के राज्य को बुरी तरह लूटकर बरबाद किया था। उसके लुटेरों की फौजें रानी कमलावती को भी लेकर गई थीं, जिन्हें खास तोहफे के रूप में खिलजी को सौंपा गया था। इन लूटमारों में मंदिरों को तबाह करना इस्लामियों के लिए पैदाइशी तौर पर सवाब का काम रहा है, सोमनाथ को भी दूसरी बार बरबाद किया गया था।
तब इस धर्मांतरित हसन के परिवारजन गुजरात में कहाँ और कौन थे? क्या वे अपने राज्य की बरबादी का बदला लेने के लिए दिल्ली चले आए थे और संगठित रूप में तैयारी करते रहे थे? दिल्ली केंद्रित दस्तावेजों में इसका कोई सिरा पकड़ में नहीं आता। वह सिरा अभी-अभी मुझे गुजरात में मिला है, अहमदाबाद के सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता श्रीकांत काटदरे के पास। वे कई वर्षों से दिल्ली के सिरे की तलाश में थे, जो उन्हें भारत में इस्लाम श्रृंखला के पहले हिस्से में मिल गया।
वह साबरकांठा जिले के मोड़ासा का कानिया झापड़ा था। खिलजी के समय इस छोटी सी रियासत का राजा था वत्तड़देव। उनकी रानी थी बहुलादेवी।
इस्लाम के इन अंधड़ों की चपेट में गुजरात की राजधानी पाटन ही नहीं आई थी, कई छोटी रियासतों में भी खिलजी के लकड़बग्गे दाँत गड़ाए घूमते थे। रानी बहुलादेवी को इस कानिया झापड़ा ने अपनी पत्नी बताकर बचा लिया था। फिर वह अपने जत्थे के साथ खिलजियों का वफादार बनकर दिल्ली चला गया।
खिलजियों के करीब आने के लिए इस्लाम कुबूल करके वह हसन हो गया। कुतुबुद्दीन मुबारक तक आते-आते वह नंबर टू पोजीशन में दिल्ली का एक ताकतवर सियासी शख्स बन गया। राजा कर्ण के मंत्री माधव पर यह तोहमत है कि उसने अपनी निजी खुन्नस के लिए खिलजी को न्यौता दिया था। कानिया ने इस दगाबाज को भी मारा। गुजरात में कहानी के ये सिरे कहाँ दर्ज हैं?
काटदरे के पास नवसारी की एक सौ साल पुरानी लाइब्रेरी में मौजूद गुणवंत राय आचार्य की किताब है, जो 1954 में पहली बार छपी थी और 1964 में दूसरा संस्करण भी आया। 408 पेज में 38 अध्यायों वाली इस किताब का शीर्षक है-‘कराल काल जागे।’ गुणवंत राय गुजराती के एक महान रचनाकार हैं, जिन्होंने ऐतिहासिक विषयों पर ईदर ग्रंथावली और विजयनगर ग्रंथावली जैसी लाजवाब श्रृंखलाएँ रची हैं।
‘कराल काल जागे’ का नायक है कानिया झापड़ा। कानिया गुजरात की एक दलित जाति से है, जिसके बारे में यह जो श्मशान घाटों के इंतजाम देखा करते थे। यह भी कहा जाता है कि वह अपने समय के मनोरंजन से जुड़े बहुरूपियों के समाज से था।
जो भी हो, वह एक साधारण पृष्ठभूमि से था और दिल्ली पर काबिज हो चुके इस्लामी लुटेरों के हाथों अपने गुजरात की तबाही का चश्मदीद था।
जब आप खिलजियों या किसी भी इस्लामी लुटेरों के झुंड के हाथों किसी इलाके की लूटमार के विवरण पढ़ेंगे तो वह एक जैसी तस्वीर पेश करते हैं। जैसे एनिमल प्लानेट पर भेड़ियों या लकड़बग्गों के हिंसक झुंड। कोई किसी का मांस मुँह में दबाए दौड़ रहा है, कोई किसी की हड्डी खींच रहा है, किसी को कोई और टुकड़ा मिल गया और काेई आपस में ही खींचतान में गुर्रा-गुर्राकर लहुलुहान है।
वे किसी राज्य शासक के लक्षण कहीं नहीं हैं, जिन्हें सुलतानों के ताज हमारे इतिहासकारों ने पहना दिए!
श्रीकांत काटदरे को आजादी के अमृतकाल में गुजरात से दिल्ली तक कानिया की यात्रा और हसन बनकर खिलजियों का सर्वनाश करने की महागाथा में जैसे अपना ही एक खोया हुआ नायक मिल गया है। इतिहास का एक विस्मृत नायक, जिसने भारत के संगठित प्रतिरोध का एक उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया।
जब मैं श्रीकांत काटदरे से अहमदाबाद में मिला तो वे ‘कराल काल जागे’ किताब लेकर ही आए। उस किताब में कई प्रभावशाली रेखाचित्र भी हैं, जो पचास के दशक में प्रचलन में थे। इस किताब के हिंदी अनुवाद की तैयारी है।
साथ ही मोड़ासा में कानिया की स्मृति के रेखांकन की भी। 70 साल पहले एक रचनाकार ने स्थानीय स्त्रोतों के हवाले से यह किताब लिखी थी। दिल्ली के समकालीन स्त्रोतों के हवाले से मेरी श्रृंखला में दूसरा सिरा अनायास आ गया।
भारत के इतिहास के ऐसे कई बिंदुओं को जोड़कर ही हम ठीक से समझ सकते हैं कि हमारे पूर्वज खामोशी से बैठकर अत्याचार सहन नहीं कर रहे थे। वे मुँह तोड़ जवाब उन्हें उनकी ही भाषा में दे रहे थे।
मैं इसीलिए कहता हूँ कि इतिहास मुर्दा जानकारियों का कब्रस्तान नहीं है। उसमें हमारी जिंदा कहानियाँ हैं। हमारे पुरखों की आपबीतियाँ। कानिया हमारा पुरखा है। एक ऐसा वीर नायक, जिसने गुजरात के अपमान का बदला लेने के लिए कई सालों का इंतजार किया।
वह खिलजियों के बीच ही रहा। उन्हें खुश करने के लिए कलमा हलक में उतार लिया और एक दिन मौका पाकर खिलजियों के महलों में घुसकर ही उन दुर्दांत लुटेरों का खात्मा किया।
अमीर खुसरो की डायरी में वह तारीख 8 जुलाई 1320 है, जो मोड़ासा, साबरकांठा और गुजरात वालों के लिए तो कभी भूलने जैसी नहीं है!