मुल्तान के हिंदू और जैन मंदिरों में मदरसे

02 नवम्बर, 2022 By: विजय मनोहर तिवारी
पाकिस्तान कोई मुल्क नहीं भारत के विस्तृत भूभाग पर मजहबी अतिक्रमण का नमूना है। मुल्तान के भव्य मंदिरों की मौजूदा हालत पर विजय मनोहर तिवारी की व्याख्या।

इंटरनेट की एक गली में कुछ महीनों पहले डॉक्टर साजिद टकरा गए। मैं लाहौर से आगे कुछ खोजते हुए मुल्तान पहुँचा था और वे पुराने मुल्तान के गली-मोहल्लों में निकल रहे थे। मुल्तान का नाम मूल स्थान से पड़ा है, जहाँ किसी समय कोणार्क जैसा एक विशाल सूर्य मंदिर था। क्रिकेटर इमरान खान ने एक उम्दा किताब लिखी थी, जो मैंने बीस साल पहले पढ़ी थी- ‘इंडस जर्नी।’ मुल्तान के सूर्य मंदिर का जिक्र उसमें था।

इधर लखनऊ से जितना दूर दिल्ली है, उधर मुल्तान दिल्ली से उतना ही दूर है। पाँच सौ किलोमीटर के आसपास। गांधार से इंद्रप्रस्थ के पारिवारिक संबंधों के समय मुल्तान बीच रास्ते का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा होगा। अखंड भारत के बीच रास्ते में जगमग मूल स्थान। मगर अब वह भारत में नहीं है। अब वह भारत नहीं है।

साजिद दो सौ साल पुराने मुल्तान के जैन मंदिरों की तरफ ले जाते हैं, जिनमें आखिरी दिवाली पर लाडू चढ़ाने समृद्ध जैन समाज के लोग 1946 में ही आए होंगे। उसके बाद इतिहास ने भयानक करवट ले ली थी।

712 में मोहम्मद बिन कासिम के हाथों पतन के पहले 80 सालों तक सिंध के लोगों ने अरबों को जोरदार टक्कर दी थी। मुझे एक मुलाकात में केआर मलकानी ने बताया था कि कासिम की फतह का जिक्र इतिहास में बहुत हुआ लेकिन वे 80 साल किसी को याद नहीं जब हमने अरबों को लगातार धूल चटाई गई थी।

1193 में मोहम्मद गोरी के नाम से कुख्यात मोइजुद्दीन मोहम्मद साम के दिल्ली फतह तक 481 साल और गुजरे। तब से 1947 तक 754 साल और।

मुल्तान में हिंदू, जैन और सिखों की आबादी गुलामों, खिलजियों, तुगलकों, लोदियों और मुगलों के प्राणलेवा थपेड़ों के बावजूद दो सौ साल पहले अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनी हुई थी। वे शानदार मंदिर, गुरुद्वारे और हवेलियाँ बनवा रहे थे। जाहिर है कि जैन आचार्यों और मुनि संघों के प्रवास और चातुर्मास भी मुल्तान के आसपास होते रहे होंगे। परंपराएँ पूरी तरह नष्ट नहीं हुई थीं।

आखिरी मजहबी धक्का मोहम्मद नाम के अली जिन्ना के हाथों लगना था, जो दो पीढ़ी पहले काठियावाड़ के पुंजाभाई वालजी ठक्कर का पोता था। पुंजाभाई श्रीनाथजी के भक्त थे। जिन्ना की माँ मिट्‌ठू बाई और बुआ मानबाई। वो कोई आठ सौ साल राज करने की खोखली ठसक से भरा तुर्क या मुगल नहीं था! वो विशुद्ध हिंदू था!

भावरा मोहल्ला पुराने मुल्तान में है, जहाँ की एक गली में 160 साल पुराने जैन मंदिर की छतों और दीवारों पर चटख हरे, लाल, नीले रंगों की कारीगरी अब तक कायम है। यह एक श्वेतांबर जैन मंदिर था, जहाँ अब तक हिरण, मोर और सिंह की आकृतियाँ दिखाई देती हैं। एक गाइड खालिद महमूद कुरैशी बताते हैं कि मंदिर का नया परिचय मौलाना हमीली खान के मदरसे का है। मदरसा ताजमुल कुरान!

करीब ढाई सौ साल पुराना एक दिगंबर जैन मंदिर भी है, जहाँ नक्काशीदार लकड़ी के भारीभरकम दरवाजे वैसे ही हैं, जैसे जैनियों के जत्थे आखिरी बार बंद करके निकले होंगे। यह अंदरुनी मुल्तान की सबसे मजबूत इमारतों में शामिल है। अब तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ नहीं हैं। इस प्रांगण में मुसलमानों की आबादी है। उनकी दुकानें चलती हैं।

साजिद संकरी गलियों में से गुजरते हुए बताना नहीं भूलते कि मुल्तान का यह हिस्सा ऊँची सुरक्षा दीवारों से घिरा था, जहाँ आए दिन के हमलों से बचने के लिए लोगों ने जीने की अपनी शैली विकसित कर ली थी।

हमलावर जत्थों से बचने के लिए चक्करदार गलियाँ इतनी संकरी कर दी गईं थी कि हाथी और घोड़े तो दूर चार लोग एक साथ भी न निकल सकें। ‘जैनी जानवरों से प्यार करते हैं। उनके घरों और मंदिरों में जानवरों की तस्वीरें लाजमी हैं।’ साजिद कहते हैं।

दिल्ली भारत में रह गई। दिल्ली गेट मुल्तान में है, जिससे सटी है चौड़ी सराय। यहाँ वार्ड नंबर-3 में दो सौ साल पुराना एक भव्य मकान किसी अश्विनी जैन का है, यह तीन पीढ़ी से कब्जेदार मुसलमानों को याद है। उन्हें यह भी मालूम है कि अश्विनी जैन का परिवार आज दिल्ली में हीरे-जवाहरात का कारोबारी है।  

एक समय यह हिंदुओं, जैनियों और सिखों से भरा हुआ मोहल्ला था, जहाँ की बुलंद इमारतों में रह रहे लोग अब लाउड स्पीकरों पर पाँच वक्त की अजानें सुनकर अल्लाह की इबादत करते हैं। हिंदू, जैन और सिखों के सुनसान घरों में कब्जा जमाने वाले पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ नहीं हैं।

लेकिन अपने घर, दुकान, खेती और उद्योग से हमेशा के लिए उखाड़े गए वही पुरुषार्थी और पराक्रमी लोग भारत में राख में से न सिर्फ फिर खड़े हो गए बल्कि देश की मजबूत नींव में उनके हिस्से के पत्थर भी पड़े हैं।

गलियों से गुजरते हुए एक ध्वस्त हिंदू मंदिर पर नजर पड़ती है, जहाँ कभी मूर्ति हुआ करती थी। लेकिन ज्यादा ध्यान खींचती है रौनकदार यादगार मस्जिद, जिसके बारे में लोग आपको बताएँगे कि मोहम्मद बिन कासिम ने यहाँ नमाज पढ़ी थी और अल्लाह कितना रहम करने वाला है!

यहाँ से आगे बढ़ेंगे तो एक ऐसे मंदिर में पहुँचेंगे, जहाँ एक और मदरसे में दीनी तालीम चल रही है। बच्चे कुरान रट रहे हैं। और मदरसों की महान शिक्षा प्रणाली के क्या कहने? अब तो मोमिन, काफिर, कुफ्र, शिर्क, सवाब, माले-गनीमत के ‘प्रेरक पाठ्यक्रमों’ के बारे में इस अभागी धरती का अंतिम बुद्धिहीन भी जान गया है। भले ही वह शातिर भारत के बदबूदार सेक्युलर हिजाब में अज्ञानी बनकर बैठा हो!

चार फुट की एक संकरी गली के पतले कोने में एक मजार नजर आ जाएगी, जहाँ हर साल उर्स भरता है। अरबी लिपि में किसी ने कुछ लिख दिया है। कोई रहमतुल्लाअलैह, जिनकी अनगिन मजारों की बहार भारत के गाँव, कस्बों और शहरों में भी तेजी से आई हुई है।

फूल बाजार है मतलब रंगबिरंगे फूलों का कारोबार रहा होगा। फूलों का मस्जिद और मदरसों में क्या काम और सच्चे मोमिन तो दिवाली भी नहीं मनाते। फूल बाजार मुल्तान की यादों में रह गया अब सिर्फ एक नाम है, जहाँ फूल हट्‌टा मस्जिद ने अपनी नींव जमा ली है।

जुमे का दिन है। बाजार बंद है। बिजली के तारों के मकड़जाल में उलझी संकरी गलियों से गुजरते हुए एक विशाल मंदिर की इमारत में 15 फुट ऊपर गणेशजी की मूर्ति को साजिद अपने कैमरे में जूम करते हैं। किसी हिंदू, जैन या सिख की चार मंजिला इमारत किसी इकबाल झरियावाले का पता बता रही है।

कुप बाजार से अन्नू के छज्जे की तरफ बढ़ेंगे तो मुल्तान का प्रसिद्ध हनुमान मंदिर आपका ध्यान खींचेगा। एक मोहल्ले से स्टेडियम दिखाई देने लगता है। यह कभी धानी मोहल्ला था, अब ताज मोहम्मद के नाम से है। मालिक बनने का सबसे आसान तरीका है नाम बदल दीजिए। शहर का, मोहल्ले का, इंसान का। बस नई पहचान सामने नजर आएगी। गलियों से बच्चों की आवाजें आ रही हैं। मदरसों से लौटते बच्चों काे क्या पता, उनकी असल पहचान क्या है!

पुराने नामों की खनक आज भी है-खन्ना मेंशन…कूचा टहलराम…छन-छन मंगल वाली गली…साजिद इनके नाम सुनकर कहते हैं-‘जबर्दस्त नाम हैं, मुझे ही पता नहीं थे।’

अब वे दुनिया की सबसे तंग गली तक हमें ले आए हैं, जिसमें से आखिर में एक ही आदमी निकल सकता है। एक और शानदार घर सामने है। नुक्कड़ पर गोलाकार फ्रंट एलिवेशन में बना यह भुवनेश खन्ना का घर है।

सन् 1947 में खन्ना का परिवार जब ताले लगाकर निकला होगा तो उन्होंने गलियों और माेहल्लों में जिहादी नारे सुने होंगे। आग और धुएँ की लकीरें मुल्तान के आसमान में देखी होंगी। दंगाइयों के ये लक्षण आज भी दर्शनीय हैं। शायद उन्हें उम्मीद रही होगी कि सब कुछ सामान्य हो जाएगा और वे वापस आ जाएँगे। वे कभी नहीं आए। कोई बताता है-‘माशाअल्ला, भुवनेश खन्ना दिल्ली में एक मीडिया संस्थान के मालिक हैं। उनके माँ-बाप यहाँ पैदा हुए थे।’

मुल्तान की गलियों में अखंड भारत के अवशेष बहुत ताजा हैं। इनसे निकलकर जब आप मुख्य सड़क पर आते हैं तो इलेक्ट्रॉनिक मार्केट में आज के पाकिस्तानियों की भीड़भाड़ में खो जाते हैं।

हर दिन पाँच बार चारों तरफ अजान की आवाजें आपको यह भूलने नहीं देती कि आप ईमान की रोशनी से तर इलाके में हैं। बटवारे के पहले का पुराना किरोन सिनेमा टूटकर तबाह हो चुका है। उसके मालिक भी अगर बचकर निकल पाए होंगे तो भारत के किसी शहर में खप गए होंगे।

1946 की दिवाली पर मुल्तान की इन गलियों के मूल निवासियों ने कभी सपनों में नहीं सोचा होगा कि एक साल नहीं अब अंतिम चंद महीने ही उनके पास हैं! अल्लाह का फैसला मोमिन के हक में हो चुका है! मुल्तान में अब उनका कोई हक नहीं!

पाकिस्तान और बांग्लादेश क्या हैं? 75 साल पहले काल के गाल में समा गए हमारे ही हिस्से। भारत क्या है? हमारी धरती का बचा हुआ वह हिस्सा, जिसने अभी-अभी आजादी का अमृतकाल मनाया। भारत की भाग्य रेखाओं में काल और अमृतकाल एक साथ गति कर रहे हैं।

डॉक्टर साजिद अपने अगले वीडियो के लिए फिर मुल्तान के किसी और गली-मोहल्ले का रुख करेंगे। उनके साथ इंटरनेट का भी शुक्रिया। अपने ही भारत के एक बड़े काल कवलित भूभाग की मुल्तानी सूखी टहनी दिखाने के लिए!



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