महाराष्ट्र में दो महिला डॉक्टरों ने एक जोड़े के रूप में एक साथ जीवन बिताने का संकल्प लिया है। समाचार एजेंसी ANI ने ट्वीट कर इस सम्बंध में जानकारी दी है। दोनों के परिजन इस रिश्ते से खुश हैं।
देश में समलैंगिक विवाह का एक और मामला सामने आया है। नागपुर की दो महिला डॉक्टर्स ने एक दूसरे से विवाह कर जीवनभर साथ रहने की तैयारी शुरु कर दी है। दोनों लंबे समय तक एक साथ एक दूसरे को जानती हैं।
कई सालों तक एक दूसरे को जानने समझने के बाद अब दोनों ने शादी करने का फैसला किया है।पिछले हफ्ते नागपुर में एक ‘कमिटमेंट रिंग सेरेमनी’ में दोनों महिला डॉक्टरों ने एक जोड़े के रूप में एक साथ जीवन बिताने का संकल्प लिया।
महिलाओं में से एक पारोमिता मुखर्जी ने कहा, “हम इस रिश्ते को ‘जीवनभर की प्रतिबद्धता’ कहते हैं। हम गोवा में अपनी शादी की प्लानिंग कर रहे हैं।”
परोमिता मुखर्जी ने कहा कि उनके पिता को 2013 से उनके सेक्सुअल व्यवहार एवं झुकाव के बारे में पता था। उन्होंने कहा कि जब उन्होंने अपनी माँ को इस बारे में बताया, तो वह चौंक गई। लेकिन बाद में वह मान गई क्योंकि वह चाहती हैं कि उनकी बेटी खुश रहे।
समलैंगिक जोड़े की दूसरी सदस्य डॉक्टर सुरभि मित्रा ने कहा, “मेरे परिवार की ओर से मेरे सेक्सुअल ओरिएंटेशन का कभी कोई विरोध नहीं किया गया। दरअसल, जब मैंने अपने माता-पिता को बताया तो वे खुश हुए। मैं एक मनोचिकित्सक हूँ और कई लोग मुझसे दोहरी जिंदगी जीने की बात करते हैं क्योंकि वे अपने लिए स्टैंड नहीं ले सकते हैं।”
देश दुनिया में जहाँ लगातार समलैंगिक रिश्तों के मामले बढ़ते जा रहे हैं, वहीं ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जिनका ये सोचना है कि समलैंगिकता सिर्फ और सिर्फ दिमागी या शारीरिक बीमारी है और जिसे किसी तरह की तकनीक से ठीक किया जा सकता है।
कुछ ही दिनों पहले ‘इंडियन साइकैट्री सोसायटी’ ने एक आधिकारिक बयान में कहा था कि अब समलैंगिकता को बीमारी समझना बंद होना चाहिए। सोसायटी के अध्यक्ष डॉ अजित भिड़े ने फ़ेसबुक पर एक वीडियो जारी करके कहा कि पिछले 40-50 सालों में ऐसा कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं मिला है जो ये साबित कर सके कि समलैंगिकता एक बीमारी है।
डॉ भिड़े ने ये भी कहा कि समलैंगिक होना बस अलग है, अप्राकृतिक या असामान्य नहीं। हालाँकि आईपीसी की धारा-377 भी समलैंगिक सम्बन्धों को अप्राकृतिक और दंडनीय अपराध मानती आई थी, लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने भी समलैंगिंक संबंधों को वैध करार दे दिया है।
आईपीसी की धारा 377 के मुताबिक जो कोई भी किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के खिलाफ सेक्स करता है, तो इस अपराध के लिए उसे 10 वर्ष की सजा या आजीवन कारावास से दंडित किए जाने का प्रावधान है।
सितंबर 2018 में देश की सर्वोच्च अदालत ने भी समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था। इसके अनुसार आपसी सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अब अपराध नहीं माना जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, एएम खानविल्कर, डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संवैधानिक पीठ ने 55 मिनट की सुनवाई में ही धारा 377 को रद्द कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को अतार्किक और मनमानी बताते हुए कहा कि LGBT समुदाय को भी समान अधिकार है। धारा 377 के ज़रिए एलजीबीटी की यौन प्राथमिकताओं को निशाना बनाया गया है
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यौन प्राथमिकता बायलॉजिकल और प्राकृतिक है। अंतरंगता और निजता किसी की निजी पसंद है। समलैंगिकों के निजी जीवन मे झाँकने का हक किसी को नहीं है।
धारा 377 को पहली बार कोर्ट में 1994 में चुनौती दी गई थी। गैर सरकारी संगठन ‘नाज फाउंडेशन’ ने 2001 में धारा 377 के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। 24 साल और कई अपीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने अंतिम फ़ैसला दिया था।