‘कौवा चला हंस की चाल और अपनी चाल भी भूल गया’
यह कहावत कुछ समय पूर्व स्वयं को विश्वभर के मुस्लिम समुदाय का नेता और सम्पूर्ण धरा पर खिलाफत स्थापित करने के उपरान्त खलीफा बनने का स्वप्न देखने वाले तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैय्यब एर्दोआँ (Recep Tayyip Erdoğan) के लिए उपयुक्त बैठती है।
मुख्य तौर पर केवल पर्यटन के बल पर अपने देश की पूरी आबादी का पेट भरने वाला तुर्की पिछले कुछ वर्षों में दुनियाभर की नज़रों में आ गया है। इसका मुख्य कारण है देश के राष्ट्रपति एर्दोआँ। वर्ष 2020 में इस्तांबुल स्थित हागिया सोफिया को पुनः मस्जिद बनाकर स्थापित कर तुर्की के राष्ट्रपति ने सोचा था कि उन्होंने विश्व के खलीफा बनने की नींव रख दी है।
इस कृत्य के बाद से ही राष्ट्रपति एर्दोआँ कभी आतंकी राष्ट्र पाकिस्तान को विश्व पटल पर समर्थन देते दिखे; कभी कश्मीर मामले में टाँग फसाते तो कभी इजराइल-फिलिस्तीन विवाद में बेवजह कूदकर फिलिस्तीनी मुस्लिम समुदाय समेत विश्वभर के मुस्लिमों का नेता बनते!
वैसे अचानक तुर्की के राष्ट्रपति की याद आने का कारण तुर्की देश की इन्फ्लेशन दर 20% तक पहुँच जाना या देश के नागरिकों की स्थिति बद से बदतर हो जाना नहीं है। हाल ही में हुई भारत की एक घटना ने तुर्की के राष्ट्रपति का स्मरण करा दिया और यह घटना थी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का मुंबई आकर एक प्रेस सम्मेलन में भाग लेना और कई विपक्षी राजनीतिक दलों के नेताओं से मिलना।
चर्चा यह है कि मई माह में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव जीतने एवं तृणमूल के गुंडों द्वारा संघ स्वयंसेवकों और भाजपा कार्यकर्ताओं की निर्मम हत्या, बलात्कारों और राज्यभर में आगजनी करने के बाद शायद ममता बनर्जी स्वयं को देश के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखने लगी हैं।
यूँ तो प्रधानमंत्री मोदी अपने एक पुराने बयान में कह चुके हैं कि ‘सपने देखने के लिए तो कौन मना कर सकता है भई’, परंतु फिर भी ममता के इस सपने को लेकर जहाँ देशभर की जनता और सोशल मीडिया खासा गरमाया हुआ है, वहीं प्रधानमंत्री और गृहमंत्री उतने ही ‘चिल’ हैं, जितने ये लोग बंगाल चुनावों के बाद राज्य में अपने कार्यकर्ताओं और संघियों की जले और पेड़ से टँगे शव देखने के बाद थे।
एर्दोआँ के समान ही सपना ममता द्वारा भी सजाया जा रहा है। इस पूरे समीकरण में आसपास के पात्र भी लगभग एक से ही हैं। जहाँ एर्दोआँ के साथ प्रांतों से अधिक आतंकी संगठन पालने वाले पाकिस्तान जैसे मुल्क खड़े थे और भविष्य के ‘खलीफाई मुल्क’ तुर्की की मदद से अपने भारत जैसे जन्मदाताओं को मिटाने का स्वप्न देख रहे थे, वहीं ममता के मामले में साथ में बॉलीवुड का फुस्स हो चुका एक धड़ा, कुछ अपने राज्य और पार्टियों में भी विश्वसनीयता खो चुके नेता और एक नृशंस भीड़ खड़ी है।
अपने-अपने क्षेत्रों में विफल हो चुके इन कथित कलाकरों की चंडाल चौकड़ी का केवल एक ही उद्देश्य है, और वह है भाजपा मुख्यतः मोदी को कुर्सी से उतारना और देश की बहुसंख्यक आबादी को उग्र साबित करना, जिसका विफल प्रयास ये बॉलीवुडिए और खान मार्किट गिरोह के सिगार फूँकते एलीट बूढ़े भेड़िए गत सात वर्षों से कर रहे हैं।
जिस तरह हागिया सोफिया को एक मस्जिद बनाकर स्थापित करना एर्दोआँ और उसके समर्थकों को तुर्की राष्ट्रपति की एक जीत और एर्दोआँ की खलीफा बनने की काबिलियत का एक मानक लग रहा था, उसी प्रकार समस्त विपक्ष भी, पश्चिम बंगाल चुनावों के बाद स्वयंसेवकों और भाजपा कार्यकर्ताओं के हत्यारों को संरक्षण प्रदान करने के ममता के कृत्य को प्रधानमंत्री बनने की एक योग्यता की भाँति देख रहा है।
संघ स्वयंसेवकों की हत्याओं, पश्चिम बंगाल के कानूनी व्यवस्था के चीर हरण और केवल भाजपा का समर्थन मात्र करने के कारण बलात्कार और मार दिए गए भाजपा कार्यकर्ताओं के विषय में धृतराष्ट्र बन जाने वाली ममता मुंबई में अपनी इस बैठक में UAPA और विचारों और बोलने की स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर बात करती दिखीं।
हालाँकि स्वयं को राष्ट्रीय स्तर का नेता साबित करने चलीं ममता, आधा राष्ट्रगान गाकर ही रुक गईं। शायद उनकी व्यापक सोच का दायरा यहीं तक हो, शायद में केवल बंगाल को ही राष्ट्र और स्वयं को ही उस राष्ट्र का प्रधान समझ बैठी हों, परंतु अभी तक तो ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि देश की जनता का ममता को 2024 में प्रधानमंत्री के रूप में देखने का किंचित मात्र भी मन है।
इस पूरे समीकरण में जहाँ केंद्र बिंदु ममता रहीं, वहीं इस पूरे खेल का सूत्रधार प्रशांत किशोर को भी माना जा रहा है। ममता को पश्चिम बंगाल जिताने वाले और थाली का बैंगन कहे जाने वाले राजनीतिक रणनीतिज्ञ प्रशांत किशोर इस अवसर पर देश की सबसे पुरानी पार्टी और अपनी पूर्व मुवक्किल कॉन्ग्रेस पर ही वैचारिक बाण छोड़ते देखे गए।
अगर ममता को ऐसा लग रहा हो कि कॉन्ग्रेस को 10 वर्षों में 90% चुनाव हार जाने की बात कहकर ट्रोल करने वाले किशोर ममता को आने वाले 5 सालों में देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी थाली में सजाकर दे देंगे, तो शायद दीदी को आत्ममंथन की आवश्यकता है।
इसे इस तरह से भी देखा जा सकता है कि तुर्क राष्ट्रपति एर्दोआँ के खलीफा बनने के समर्थन में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान का न तो कोई विशेष योगदान था, न उन्हें कोई गंभीरता से ले रहा था। इसका कारण था कि लोग यह जानते हैं पाकिस्तान और इसके नेता जब आज तक अपनी जनता के सगे न हुए तो दूसरे देश उन पर विश्वास कैसे कर सकते हैं।
ठीक वैसे ही एनडीए को लोकसभा, नीतीश कुमार को बिहार और आम आदमी पार्टी को दिल्ली जिताने का दावा करने वाले प्रशांत अगर ममता को प्रधानमंत्री पद जिताने का वादा कर रहे हैं तो दीदी को अवश्य ही इसे शक की निगाहों से देखना चाहिए।
रही बात भाजपा की, तो ये लोग वही कर रहे हैं जो करने के चलते पिछले कुछ वर्षों से इनकी पार्टी मशहूर हुई है। 420वीं बार ममता को एक्सपोज करने के बाद भाजपा के कुछ तथाकथित नेता इस बार भी ममता पर ‘राष्ट्रगान का अपमान’ करने का आरोप लगा रहे हैं और उनके विरुद्ध शिकायत की कड़ी माँग कर रहे हैं।
ऐसी कड़ी माँगें भाजपा के कई ‘ट्विटर नेता’ और ‘सोशल मीडिया कार्यकर्ता’ मई माह से कर रहे हैं, परंतु भाजपा के कुछ शीर्ष नेतृत्व यानी ‘सख़्त लौंडे’ जब अपने लोगों की लाशें देखकर नहीं पिघले तो इनकी माँगों को क्या ही गंभीरता से लेंगे?
ममता के प्रधानमंत्री बनने की बात करें तो इस विषय में इस लेख का पहला वाक्य ही उपयुक्त प्रतीत होता है। तुर्की के राष्ट्रपति का सपना तो न केवल टूटा अपितु टुकड़ों में तहस-नहस होते हुए उनके पूरे देश को ही ले डूबा।
दुनियाभर के प्रतिबंध लगने के बाद आज तुर्की दिवाला निकल जाने की कगार पर है, और हालात यह हैं कि राष्ट्रपति और उनके मंत्री अब देशवासियों से खाने-पीने की चीज़ों को लेकर भी कंजूसी करने जैसे अनुरोध कर रहे हैं।
दीदी के शुभचिंतकों को डर केवल इस बात का होना चाहिए कि कहीं दीदी भी इसी तरह मालपुआ खाने के चक्कर में हाथ की चुपड़ी रोटी भी न गँवा बैठें क्योंकि देश का मनोदशा से तो कुछ ऐसा ही होता है।
ममता ने बंगाल भले ही साम-दाम-दंड-भेद (मुख्यतः दंड और भेद) से जीत लिया हो, परंतु अगर भाजपा नेताओं में अब भी रीड की हड्डी का कुछ अंश बचा है तो शायद वे पूरे देश में ‘खेला’ तो नहीं होने देंगे।
रही बात दीदी के 7 लोक कल्याण मार्ग के गार्डन में बैठ कर कीबोर्ड बजाने के स्वप्न की, तो इस पर प्रधानसेवक का वही जुमला उचित बैठता है “अब सपने देखने के लिए तो कौन मना कर सकता है भई”!!