मैरिटल रेप यानी वैवाहिक बलात्कार को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है। मैरिटल रेप को आपराधिक करार देते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि जब एक सेक्स वर्कर को अपनी मर्ज़ी से ‘हाँ’ या ‘ना’ कहने का अधिकार है तो यह अधिकार किसी पत्नी को क्यों नहीं?
मैरिटल रेप को आपराधिक करार देने को लेकर याचिकाओं पर दिल्ली उच्च न्यायालय में बृहस्पतिवार (13 जनवरी, 2022) को वाद-विवाद हुआ। इस विषय पर न्यायालय ने कई टिप्पणियाँ की और इस अपराध को लेकर भी व्याख्या दी।
इस मामले की सुनवाई दिल्ली उच्च न्यायालय के जज राजीव शकधर और जज हरि शंकर कर रहे थे। पहले मंगलवार को मामले में यह सवाल उठे थे कि एक विवाहित महिला को सेक्स (यौन सम्बन्ध) से इनकार करने के अधिकार से वंचित कैसे रखा जा सकता है जबकि दूसरे लोगों को उनकी सहमति के बिना संबंध होने पर बलात्कार का मुकदमा दर्ज करने का अधिकार होता है।
बहस के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से यह तर्क दिया गया कि शादी के मामले में शारीरिक सम्बन्ध की उम्मीदें होती हैं जैसा कि एक सेक्स वर्कर के साथ होता है परंतु इस पर जज हरि शंकर ने दोनों चीजों को अलग-अलग बताते हुए कहा:
“इसमें कोई शक नहीं है कि महिला को पीड़ा हुई, परंतु हमें उस व्यक्ति के परिणामों को भी ध्यान रखना होगा जिसको 10 साल की कैद सुनाई जा रही है। मैं फिर दोहराता हूँ, धारा 375 का प्रावधान यह बिल्कुल नहीं कहता कि बलात्कार को दंडित न किया जाए। यहाँ प्रश्न यह है कि इसे मैरिटल रेप को बलात्कार की तरह सज़ा दी जानी चाहिए या नहीं।
पहले हुई सुनवाई में यह बहस भी सामने आई थी कि कोई महिला विवाहित हो या अविवाहित उसकी असहमति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस पर न्यायालय ने कहा था:
“अगर किसी महिला के साथ उसका पति उसकी बिना सहमति के यौन संबंध बनाता है तो वह महिला आईपीसी की धारा 375 के तहत मामला दर्ज नहीं करा सकती बल्कि उसे किसी अन्य कानून का सहारा लेना पड़ता है जो ठीक नहीं है।”
न्यायालय ने याचिका को लेकर यह माना कि असहमति के बाद हुआ सेक्स अपराध की श्रेणी में आता है परंतु जजों की पीठ ने कहा कि आईपीसी की धारा 375 के तहत पति पर मुकदमा चलाए जाने के कारण एक दीवार खड़ी हो जाती है।
कोर्ट ने कहा कि न्यायालय को इस बात पर ध्यान देना होगा कि यह दीवार संविधान के अनुच्छेद 14 यानी कानून के सामने समानता और 21 यानी निजी स्वतंत्रता और जीवन रक्षा का उल्लंघन तो नहीं करती है।