“काहे के अच्छे दिन तेल तो सौ रुपए लीटर से ऊपर जा रहा है।”
“मोदी को लाने का भी कुछ फायदा नहीं हुआ, जनता को ठगा है।”
“रामदेव तो कहता था ₹30/लीटर का पेट्रोल देगा।”
“तुम्हारे मोदी ने पेट्रोल और बियर बराबर कीमत के कर दिए, हें-हें-हें।”
गत दो-तीन वर्षों में और मूलतः पिछले वर्ष से अब तक इस प्रकार के तर्क-वितर्क और अधिकतर कुतर्क हम सब ने विभिन्न समय पर विभिन्न लोगों से सुने ही होंगे या सोशल मीडिया पर तो पढ़ ही लिए होंगे।
कुछ लोगों की मोदी सरकार से यह नाराजगी एवं माँग सही भी है कि जब वे पेट्रोल के बढ़ते दामों को मुद्दा बनाकर सत्ता में आए थे तो आज पेट्रोल डीज़ल की कीमतें कॉन्ग्रेस राज से भी अधिक क्यों हैं ?
वर्ष 2018 में भी पेट्रोल के दामों को लेकर गर्मा-गर्मी देखी गई थी। उसके बाद कुछ समय स्थिर चलने पर गत वर्ष चीनी वायरस के कारण हुए लॉकडाउन से अब तक निरंतर पेट्रोल डीज़ल के दाम केवल बढ़े ही हैं। लोगों का यह कहना भी पूर्ण रूप से गलत नहीं कि मोदी राज में तेल मनमोहन राज से भी अधिक दामों पर है।
इस सब को देखते हुए ध्यान देने का विषय यह है कि क्या सरकार जानबूझकर इन दामों में बढ़ोतरी कर रही है या इसके पीछे कुछ और तकनीकी खेल है?
मोदी सरकार को अक्सर देश से संबंधित बड़ी विपदाओं को लेकर नेहरू एवं पूर्व सरकारों को दोषी ठहराने के कारण ट्रोल किया जाता है। हर मामले में इस तरह पिछली सरकारों को दोष देना गलत है भी, परंतु अर्थव्यवस्था जैसे कई मामले जिन पर लिए गए निर्णय कई दशकों तक अपने परिणाम छोड़ते हैं। ऐसे मामलों पर पिछली सरकारों एवं प्रधानमंत्रियों को ज़िम्मेदार ठहराना आवश्यक बन जाता है।
इस बात में तो कोई संकोच नहीं कि तेल सरकारी राजस्व (केंद्र और राज्य दोनों) की रीढ़ की हड्डी है और इसके क्षेत्र में आज लिए गए निर्णय भविष्य में बहुत कुछ बदलने की क्षमता रखते हैं।
दरअसल 2005-09 की समयावधि के बीच कच्चे तेल की कीमतों में भारी उछाल देखा गया था। विश्व भर में अर्थव्यवस्था पर संकट मंडरा रहा था और ऐसे में तेल व्यापारियों को भी भारी वसूली का सामना करना पड़ रहा था। इस दौरान यूपीए सरकार ने इनके दामों को स्थिर बनाए रखने के लिए ऑयल बॉन्ड नामक विधि का सहारा लिया।
ऑयल बॉन्ड एक प्रकार के विशेष प्रतिभूतियँ होती हैं, जो भारत सरकार द्वारा तेल कंपनियों या खाद्य कंपनियों के लिए जारी की जाती हैं। इन से सीधे तौर पर राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit) नहीं दिखता क्योंकि इनमें नकदी सब्सिडी की भाँति नकदी का प्रवाह नहीं होता है।
कॉन्ग्रेस सरकार द्वारा 2005-06 से 2008-09 के बीच लगभग 1.4 लाख करोड़ के ऑयल बॉन्ड जारी किए गए थे। इनके द्वारा ही तेल कंपनियों की 2.9 लाख करोड़ रुपए की अंडर रिकवरी की भरपाई की गई। ऐसा करके उस समय देश में तेल की कीमतों को स्थिर बनाए रखने में सहायता मिली।
इस निर्णय के बाद से आज तक की सभी सरकारें इसका ब्याज चुका रही हैं, तथा समय-समय पर मूल भी अदा किया जाता है। बता दें कि इन बॉन्ड्स का मोचन 2026 तक जारी रहेगा।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार आखिरी मूल का भुगतान वर्ष 2015 में किया गया था। यह राशि ₹3,500 करोड़ की थी। इसके बाद अब तक बकाया लगभग ₹1.3 लाख करोड़ है, जिसमें से इस वर्ष ₹10 हजार करोड़ मूलधन और साथ ही ब्याज भी दिया जाना है।
बता दें कि कोई सरकार यह भुगतान पहले नहीं कर सकती। विशेषज्ञों की मानें तो सरकारें यह भुगतान पहले करती भी नहीं हैं। बॉन्ड्स ‘तैयार’ होने का भी एक निर्धारित समय होता है तभी उनका भुगतान संभव होता है।
यह बात साफ है कि सरकार को इस साल ‘पकने’ वाले बॉन्ड्स का भुगतान करना है, इसलिए तेल की कीमतों में राहत संभव नहीं हो सकती।
यह सवाल भी सही है कि पिछले एक साल के भीतर ही तेल के दामों में अचानक इतना उछाल कैसे देखा गया ? इसका मुख्य कारण गत वर्ष हुए लॉकडाउन एवं सरकार द्वारा चीनी वायरस को लेकर शुरू की गई कई योजनाएँ हैं।
सरकार द्वारा बजट में 35 हज़ार करोड़ कोरोना के टीकाकरण के लिए जारी किया गया है और सूत्रों की मानें तो इस राशि को ₹50 हज़ार करोड़ तक बढ़ाए जाने की संभावनाएँ हैं।
इसी तरह, सरकार के दिवाली तक लोगों को मुफ्त राशन दिए जाने की योजना में भी लगभग ₹1.1-₹1.3 लाख करोड़ की धनराशि खर्च हो सकती है। लगभग इतनी ही राशि गत वर्ष भी जनता को मुफ्त राशन दिए जाने में लगाई गई थी।
इसके साथ-साथ अस्पतालों एवं ऑक्सीजन प्लांट लगाने में भी केंद्र सरकार द्वारा एक भारी धनराशि का व्यय हुआ है। महामारी के दौरान समस्त देश में लॉकडाउन के कारण तेल की खुदरा बिक्री में भी अच्छी खासी गिरावट देखी गई है।
बेंगलुरु के बीआर अंबेडकर स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के वाइस चांसलर एन आर भानुमूर्ति कहते हैं कि सरकार के पास प्रतिबद्धता के कारण क़र्ज़ चुकाने के सिवा कोई अन्य विकल्प नहीं है।
एक विशेषज्ञ द्वारा यह बात भी कही गई कि आज का करदाता एक दशक से भी पुराने उपभोक्ता को दी गई सब्सिडी का भुगतान कर रहा है और ऐसा शायद उसे अगले 5 साल, यानी साल 2026 तक करना पड़े।
अगर आसान भाषा में कहा जाए तो गत यूपीए सरकार द्वारा तेल को लेकर लिए गए कुछ निर्णय भाजपा पर प्रभाव तो डाल ही रहे थे, जिसके कारण तेल के दाम घटाना संभव न था। इसके साथ-साथ चीनी वायरस द्वारा फैलाई गई महामारी ने गत एक वर्ष में इस स्थिति को बद से बदतर ही किया है।
समस्त मामले में ऑयल बॉन्ड तो दोषी हैं ही साथ ही, कोरोना वायरस के कारण जारी लॉकडाउन और इस पर खर्च किया गया बजट भी बराबर के हिस्सेदार हैं।
तर्क यह आता है कि लगातार अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल के दाम घट रहे हैं, फिर भी मोदी सरकार मूल्य कम नहीं करती। लेकिन लोग यह भूल रहे हैं कि ढाँचागत विकास के लिए जानी जाती भाजपा सरकार लगातार हाइवे, एक्सप्रेस वे, सामान्य सड़कें, हॉस्पिटल, कॉलेज, रेल की पटरियाँ आदि बनवाती जा रही है, जो विकसित देश की आधारशिला समान हैं। यह सब पैसों से ही संभव होता है।
कोविड ने अर्थव्यवस्था पर न सिर्फ रोक लगाई बल्कि सरकार के खर्च को भी बढ़ा दिया। तात्पर्य यह है कि आमदनी कम और खर्च अधिक होने से आर्थिक क्षति बढ़ती ही रही। अतः, यह तर्क देना कि मोदी तो तेल से कमा भी तो रहा है, फिर भी कुछ नहीं कर रहा, मूर्खतापूर्ण तर्क है।
यह बात भी सही है कि आज का समय बीस साल पहले के समय से अलग है, जब गाँव-मोहल्ले में बहुत कम कारें, मोटरसाइकिलें आदि हुआ करती थीं। आज मध्यमवर्ग के पास कार और बाइक तो हैं ही, निम्न वर्ग के पास भी पेट्रोल उपभोग हेतु गाड़ियाँ हैं। यह यातायात भी भारतीय अर्थव्यवस्था का हिस्सा ही है, न कि ऐसा है कि सारे लोग मोटरसाइकिल पर बैठ कर सैर पर जाते हैं और तेल फूँक कर आते हैं।
ऐसे में सरकार सारा बोझ आम जनता पर ही नहीं डाल सकती। पेट्रोल की खरीद और बिक्री का अर्थव्यवस्था से सीधा संबंध होता है, उससे सामानों का आवागमन होता है, उससे माल की ढुलाई होती है, उसके मूल्य बढ़ने से उसी मिडिल क्लास की थाली का भोजन महँगा होता है जो तेल खरीद कर ऑफिस जाता है। यह एक विषैला वृत्त है, जिसमें मध्यम वर्ग घूमता रहता है। अतः, महामारी के इस दौर में यह समस्या तो विकट है ही कि सरकार के पास विकल्प भी नहीं हैं और तेल पर सरकारी टैक्स का हिस्सा बढ़ता ही जा रहा है।
फिर भी, आपात स्थिति देखते हुए थोड़ी राहत देने की व्यवस्था होनी चाहिए। क्योंकि अभी के दौर में दो रुपए की छूट भी आम आदमी के लिए बड़ी छूट होगी।