दुःख बुढ़िया के मरने का नहीं है, दुःख इसका है कि मौत ने घर देख लिया

20 नवम्बर, 2021 By: पुलकित त्यागी
आखिर उपद्रवियों के आगे क्यों झुकी मोदी सरकार?

धन्यवाद मोदी जी! आपका बहुत-बहुत आभार। आपने वह कर दिखाया जो 70 वर्षों में इस देश में बड़े से बड़ा बुद्धिजीवी, भीषण से भीषण घटना या अन्य कोई विचारधारा नहीं कर पाई। और वो है वामणपंथियों और दक्षिणपंथियों को एक करना।

गत 7 वर्षों से वामपंथी गले की नाड़ियाँ फाड़-फाड़ कर जो ‘तानाशाही आ गई है। देश कहाँ जा रहा है? क्या यही लोकतंत्र है?’ की दहाड़ें मार रहा था। अब दक्षिणपंथियों (अगर भारत में कोई हैं तो) का एक बड़ा धड़ा भी कुछ ऐसे ही सवाल पूछने को मजबूर, हो गया है। कि ‘मोदी जी क्या यह लोकतंत्र है?’

इस देश की जनसंख्या 130 करोड़ है, 2019 लोकसभा चुनावों में 90 करोड़ से अधिक मतदाता थे, लगभग 67% मतदान हुआ जिसमें से 38% यानी लगभग 23 करोड़ लोगों ने भाजपा को पूर्ण बहुमत दिया।

संसद में 303 सीटों के साथ बहुमत पाने के बाद भी आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि देश के प्रधानमंत्री को देश की संसद द्वारा पारित किए गए एक कानून को इस प्रकार निष्कासित करना पड़ा?

क्या यह सिर्फ एक कृषि कानून बिल या केवल एक निर्णय की बात है?

क्या केवल इन बिलों को वापस लेने ले से सब शांत हो जाएगा?

इसका उत्तर है बोल्ड एंड कैपिटल में ‘ना’। सिटिज़नशिप अमेंडमेंट एक्ट (CAA) के विरोध में शाहीनबाग और पूरी दिल्ली में विरोध प्रदर्शन का एक साँचा तैयार किया गया, जिस साँचे में कृषि कानूनों के विरोध में हो रहे कथित प्रदर्शन के नाम पर बारूद भरा गया और अगर हमारे प्रधानमंत्री को ऐसा लगता है कि उनके बिल वापस ले लेने के निर्णय ने इस ज्वलनशील पदार्थ को शांत कर दिया है तो शायद वे गलत हैं।

इस निर्णय से देशभर में केवल एक संदेश गया है और वो यह कि अब इस देश में लोकतंत्र नहीं भीड़ का तंत्र चलेगा, संसद द्वारा पारित किए गए कानून नहीं सड़क जाम कर के तैयार की गई नियमावली चलेगी। देश के लिए निर्णय जनता द्वारा चुने गए नुमाइंदे नहीं कुछ सड़क जाम करके ब्लैकमेल करने और देश जलाने की धमकियाँ देने वाले उपद्रवी लेंगे।

एक उदाहरण समझिए, एक माता-पिता हैं जिनका किशोर पुत्र या पुत्री नशा बेचने वालों यानी ड्रग पेडलर्स की संगति में आ जाता है और वे उसे लगातार ड्रग्स के फायदे गिना रहे हैं। जो कि सीधे तौर पर उस किशोर की भलाई के लिए नहीं बल्कि उन ड्रग्स बेचने वालों के फायदे के लिए हैं।

अब इस बात में तो कोई दोराय नहीं कि किशोरावस्था में युवकों और युवतियों को माँ-बाप द्वारा कोई भी बात समझाना किसी जंग जीतने से कम नहीं होता है, पर इसका यह अर्थ तो नहीं कि माँ-बाप ऐसे समय में अपने सारे हथियार डालकर यह कह दें कि बेटा हम तुम्हें ड्रग्स से होने वाले नुकसान के बारे में समझाने में नाकाम रहे और अब हम तुमसे उन्हीं दर्ज पेडलर दोस्तों के पास जाने और उनके हिसाब से जीवन जीने का ही निवेदन करते हैं।

कुछ ऐसा ही प्रकाश पर्व के शुभ अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा देश के किसानों के साथ किया गया। प्रधानमंत्री ने कहा कि हम देश के किसानों को कृषि बिलों के फायदे बताने में नाकाम रहे।

कहने को तो यह केवल एक वाक्य था, परंतु यह अपने आप में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की हार और उन अराजक तत्वों की जीत का बिगुल था, जिनकी मंशा किसान का फायदा तो दूर बल्कि केवल उसका खून चूसना है।

क्योंकि यह तो साफ है कि सालभर से एक राष्ट्रीय राजमार्ग को जाम करके बैठे कुछ उपद्रवी किसान तो बिल्कुल नहीं हो सकते। लेकिन उन लोगों से क्या शिकायत, उनसे यही अपेक्षित है।

उन्हें देश ने नहीं चुना, देश ने तो ऐसे व्यक्ति, ऐसी पार्टी को चुना जो धमकियों से नहीं डरती थी। पिछले 7 वर्षों से जिस बात और शौर्य का उदाहरण दिया जाता था, उरी और बालाकोट की बातें की जाती थीं और कहा जाता था कि ये वह सरकार है जो पाकिस्तान जैसे मुल्क की गीदड़ भभकियों से नहीं घबराती।

तो फिर ऐसा क्या हुआ कि यह सरकार अपने ही देश के कुछ उपद्रवियों की गीदड़ भभकियों से डर गई और न केवल डर गई बल्कि एक ऐसा ऐतिहासिक निर्णय ले गई जो इस देश के इतिहास में काली स्याही से ही लिखा जाएगा।

इस देश में वह दौर भी देखा है जब लगभग आधी संसद यानी पूरे विपक्ष को जेल में डाल कर देश के संविधान की प्रस्तावना को बदला गया था।  

उस समय से अगर आज के समय की तुलना की जाए तो दोनों को ही अलग-अलग संदर्भों में भारतीय राजनीति के 2 काले पृष्ठों से कम कुछ भी कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा। एक बार इस देश में तानाशाही सरकार द्वारा लोगों पर निर्णय थोपे गए थे और दूसरी बार लोगों के द्वारा चुनी गई सरकार से कुछ तानाशाहों द्वारा अपने निर्णय मनवाए गए हैं। 

विश्वास नहीं होता कि यह वही पार्टी है जिसके नेता स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई ने 1998 में गठबंधन की सरकार होने के बाद भी पूरे विश्व के विरुद्ध जाकर भारत को एक न्यूक्लियर ताकत बनाने के लिए कई ठोस निर्णय लिए थे। जबकि वे जानते थे कि ऐसा करके अमेरिका, रूस समेत लगभग पूरा यूरोप और सभी बड़े देश अपने दुश्मन बन सकते हैं, परंतु फिर भी उनके कदम नहीं डगमगाए।

पोखरण 1998 (चित्र साभार-PTI)

फिर ऐसा क्यों कि केवल 2 दशकों में ही इस पार्टी की जड़ें इतनी दुर्बल हो गई हैं कि आज संसद में पूर्ण बहुमत से भी अधिक सीटें होने के बाद भी अपने ही देश के कुछ उपद्रवियों से घबराकर सरकार के पैर और हाथ तो क्या नींव तक कँप-कँपा गई है।

अब आते हैं दूसरे सवाल पर कि क्या यह केवल इस बिल पर पलटे गए निर्णय की बात है?

और इसका उत्तर भी उतने ही बोल्ड और कैपिटल ‘ना’ ही है क्योंकि अगर आदरणीय प्रधानमंत्री सोचते हैं कि उन्होंने इस प्रकार अपने निर्णय से कदम पीछे खींच कर सबके साथ और सबके विकास के साथ सबका विश्वास भी जीत लिया है, तो शायद इस मामले में भी वे गलत हैं।

मसला केवल कृषि कानूनों या किसान आंदोलन का नहीं था, मसला और प्रश्न यह था कि अब इस देश में कानून बनने की प्रक्रिया क्या होगी? क्या हर कानून बनने से पहले पूरे 130 करोड़ लोगों से हामी भरवाई जाएगी या सभी से मान्यता प्राप्ति के आवेदन पत्र लिए जाएँगे।

क्योंकि CAA क़ानून के विरोध के बाद अब किसान विरोध से भी प्रतीत तो कुछ ऐसा ही होता है। क्या किसी ने जाकर उन कथित CAA विरोधियों से यह प्रश्न किया है कि जिस बिल को आए लगभग 2 वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं उससे कितने भारतीय मुसलमाओं की नागरिकता चली गई है।

कहाँ हैं अब वो सारे नारे वो दावे कि ‘मुसलमानों की नागरिकता छीन ली जाएगी, सभी मुसलमानों को बांग्लादेश भेज दिया जाएगा, डिटेंशन सेंटरों में डाल दिया जाएगा, खाने को नहीं देंगे।’ ऐसी भ्रांतियाँ फैला कर छोटे-छोटे बच्चों से मोदी और अमित शाह को जान से मार देने जैसी बातें बुलवाई गईं।

चित्र साभार- Hindustan Times

महत्वपूर्ण बात यह है कि उस समय भी भ्रांतियाँ फैलाने वाले लगभग वही थे जो इस बार हैं। बस अंतर केवल इतना है इस बार ये लोग सफल हो गए।

उत्तर भारत में एक कहावत बहुत मशहूर है कि ‘दुःख इस बात का नहीं है कि बुढ़िया मर गई, दिक्कत तो यह है कि मौत ने घर देख लिया।’

इसका सरल अर्थ है कि कृषि कानून निष्कासित होना और इस तरह प्रधानमंत्री का स्वयं आकर माफी माँगना केवल इन लोगों की एक छोटी सी जीत ही नहीं है बल्कि यह एक शुरुआत है एक ऐसी व्यवस्था की जहाँ एक धड़ा यह समझ चुका है कि उन्हें अपनी हर सीधी या उल्टी माँग मनवाने के लिए किसी प्रतिनिधि, किसी प्रकार के ज्ञान या विचारधारा की आवश्यकता नहीं है।

उन्हें केवल चाहिए कुछ हज़ारों की भीड़ और उससे फिर या तो कोई राजमार्ग रोका जाएगा या कोई शहर जलवाया जाएगा, नहीं तो देश की संसद और स्मारकों का अपमान करना तो आम है ही। 

26 जनवरी, 2021

आदरणीय प्रधानमंत्री ने अपने इस कृत्य से जिन्हें खुश करने और जिनका विश्वास जीतने का प्रयास किया है वे उनके इस निर्णय का कितना सम्मान करते हैं, यह चंद घंटों में ही सामने आ गया था।

आज 700 मृत किसानों को नरेंद्र मोदी से मुआवजा देने की माँग की जा रही है, यह मुआवज़ा दे दिया जाए और फिर देखिएगा कि अन्य 7000 कथित किसान खड़े किए जाएँगे और कहा जाएगा कि पिछले एक वर्ष में इनके सड़क पर बैठे रहने के कारण इनका जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई भी नरेंद्र मोदी करें।

आप वह भरपाई भी करिएगा तो उसके अगले दिन 70 हज़ार अन्य किसान खड़े किए जाएँगे और कहा जाएगा कि ये लोग पिछले एक वर्ष से सड़क पर बैठे रहने के कारण हल चलाना भूल गए हैं और प्रधानमंत्री अब स्वयं आएँ और उन किसानों के खेतों में हल भी चलाएँ।

बोतल से जिन्नात निकल चुका है मोदी साहब और अब इसे वापस डालने का शायद कोई उपाय नहीं है।

अब इस सरकार को और इस देश को इस ऐतिहासिक निर्णय के कारण बोतल से निकले इस जिन्नात के कारनामे भविष्य में किस रूप में देखने को मिलेंगे, इसका प्रमाण उस समय मिल जाएगा जब संसद में यही कथित पूर्ण बहुमत वाली सशक्त सरकार जनसंख्या नियंत्रण कानून और यूनिफॉर्म सिविल कोड के पहले ड्राफ्ट प्रस्तुत करेगी।

धन्यवाद



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