हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता!
अकबर इलाहाबादी ने ये शेर हिन्दुओं की दशा के लिए लिखा तो नहीं था, लेकिन आज के हिन्दुओं पर ये शेर इतना सटीक बैठता है कि ये किसी और बात के लिए लिखा गया था, ऐसा सोच पाना भी मुश्किल है। नारों पर चर्चा एक छुरेबाजी से ज्यादा! वो भी तब जब इसी डासना मंदिर के महंत का सर कलम करने के लिए एक मुहम्मडेन विधायक ने इनाम की घोषणा तक कर दी थी।
वैसे तो उत्तर प्रदेश में होने वाली मामूली से मामूली कानून-व्यवस्था की कमी पर राष्ट्रीय स्तर पर रुदालियाँ बैठती हैं, लेकिन इस बार जिसकी हत्या की कोशिश हुई है वो तो साधू था! तो भइये जैसे पालघर में संतों की हत्या में कोई चर्चा के लायक बात नहीं थी, वैसे ही किराए की कलमों को इसमें भी चर्चा के लायक कुछ नहीं दिखेगा।
कैसी विकट परिस्थिति है कि भारत में ही हिन्दुओं को आज भी, दूसरे दर्जे के नागरिकों की तरह जीवनयापन करना पड़ता है। अयोध्या के राम मंदिर का फैसला पाँच सौ वर्षों बाद हमारे पक्ष में आता है तो हम दिए नहीं जला सकते, उत्सव नहीं मना सकते! क्यों? क्योंकि छप्पन इंची सरकार का आदेश है।
जिस ओवैसी पर ‘पंद्रह मिनट के लिए पुलिस हटा के देखो’ जैसे दंगे भड़काने वाले बयान देने का आरोप है, उसी का कोई भाई सदन में कहता है कि जंतर-मंतर पर भड़काऊ बयान दिया गया है और गृह मंत्रालय हरकत में आ जाता है। ये तेजी तब तो नहीं दिखी थी जब महीनों तक (दि)शाहीन बाग़ के जरिए दिल्ली को बंधक बनाए रखा था। दिल्ली दंगों में हिन्दुओं को आम आदमी पार्टी के विधायकों से बचाने में नहीं दिखी थी।
ये तेजी तब भी नहीं दिखी थी जब खालिस्तानी सरेआम दिल्ली में दौड़ा दौड़ा कर पुलिसकर्मियों को पीट रहे थे। ये तेजी तब कहाँ गयी थी जब मुश्किल से हफ्ते भर पहले राहुल गाँधी खुद ही पोक्सो और जुविनाइल जस्टिस की गैरजमानती धाराओं का उल्लंघन कर रहे थे?
हाँ ये तेजी तब जरूर नजर आ गई थी, जब द्वारका के नागरिक ऐसे मुश्किल वक्त में हज भवन बनवाने के बदले अस्पतालों को सुधारने की माँग लेकर सड़कों पर उतरे। उस समय एपिडेमिक एक्ट की कोई धाराएँ कोई नहीं भूला। बिना जाँच ही जब एक बलात्कारी को सभी अख़बार ‘हिन्दू पुजारी’ घोषित कर रहे थे, तब अफवाहें फ़ैलाने का मामला उन पर भी नहीं बना। एक दिन रुक कर जाँच कर लेते। फर्ज़ी नाम रखकर हिन्दू बने मुहम्मडेन बलात्कारी को किसी शमशान का हिन्दू पुजारी ही क्यों घोषित करना था ये किसी ने नहीं पूछा!
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्ध पर लेख में लिखा है कि हिन्दुओं को अपने मृतकों के लिए जोर से विलाप करने की भी इजाज़त नहीं थी। कहने को तो आज भारत में इस्लामिक निज़ाम नहीं है, लेकिन बदला क्या है? पालघर में जब हिंसक भीड़ साधुओं की हत्याएँ करती हैं तो प्रचार तंत्र के बड़े बड़े नाम, अख़बार, चैनल वगैरह उनकी बात करने नहीं उतरते।
हिन्दू विलाप भी न कर सकें इसके लिए उन्हें चुप करवाने की कोशिश की जाती है। डासना में जो हुआ वो कोई अनहोनी घटना नहीं थी। इसका अंदेशा पहले से था। मलेच्छ हमलावर ‘रंगीला रसूल’ लिखे जाने के वक्त ऐसा कर चुके हैं। वो स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या में ऐसा कर चुके हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश में ही कमलेश तिवारी की हत्या में भी ऐसा ही किया था। सर तन जुदा के पोस्टर तो विधानसभाओं तक में लहराए हैं!
ऐसी कौन सी वजहें थी कि सुरक्षा फिर भी पुख्ता नहीं की गईं। इस पर सवाल क्यों नहीं उठने चाहिए? जब जागना और पहरा देना था तो सिपाही सो क्यों रहे थे? अब इस पर भी कुछ धिम्मी पूछेंगे कि मोदी-योगी खुद दरवाजे पर डंडा लिए पहरा देने खड़े हो जाएँ क्या? तो फिर हमें भी मजबूरन पूछना ही पड़ेगा कि ‘मैं भी चौकीदार’ भी जुमला ही था क्या?
कैसी विचित्र बात है कि इस देश में एक चर्च का शीशा टूटना अंतरराष्ट्रीय खबर बन जाता है। वो भी तब जब जाँच में पता चलता है कि इसके नाम पर हिन्दुओं को बदनाम करने की कोशिश कर रहे जॉन जैसे लोग झूठ बोल रहे थे। तनख्वाह न मिलने पर किसी पुराने कर्मचारी ने ही शीशा तोड़ा था। उसी देश में मंदिरों पर हमला करके साधुओं को मार दिया जाता है तो वो भारत में पहले पन्ने की खबर भी नहीं होती! नहीं ये पहली बार भी तो नहीं था। गौरक्षा के लिए जाने जाने वाले कुछ साधुओं को पहले भी मंदिर में ही मार डाला गया है।
बाकी ये सवाल तो रहेगा कि हमारे मुद्दों पर हमारे लोग बोलने के बदले चुप्पी क्यों साधते हैं। चौथे खंभे से कब ये पूछा जाएगा कि वो जनता के मुद्दों पर बात करने के बदले अपना नैरेटिव गढ़कर अपनी विश्वसनीयता खोना कब बंद करेगा। सवाल बहुत से हैं, उम्मीद है पूछे जाएँगे, क्योंकि फ़िलहाल पूछने पर जीएसटी तो नहीं लगता!