PETA को 2020 में लगभग 66.3 मिलियन डॉलर मिले जो भारतीय रुपयों में ₹4,77,36,00,000 (477 करोड़ से अधिक) होता है। इसमें से ₹459 करोड़ ($63.8 मिलियन) इन्हें दान से मिले, जबकि ₹40,64,544 ($56,452) इन्होंने अपने मर्चेंडाइज आदि बेच कर कमाए। कमाल की बात यह है कि इसी मर्चेंडाइज को बनाने में इनका निवेश $461,979 था, जो कि इनकी उन्हीं वस्तुओं से कमाई का 8.2-गुणा है। मतलब 40 लाख रुपए की बिक्री और 332 लाख रुपए इन्होंने, अपनी ही फायनेंसियल रिपोर्ट के अनुसार, ‘क्रूरतामुक्त मर्चेन्डाइज अभियान’ में खर्च किया।
पेटा की साइट पर दिए गए रिपोर्ट के अनुसार इस संस्था ने अपने ऑपरेटिंग खर्चे में $59.5 मिलियन दिखाया है जिसमें से ‘सदस्यता विकास’ के मद में $94,78,100 का खर्च दिखाया गया है और ‘मैनेजमेंट एवं सामान्य खर्चे’ में $7,21,229 दिखाया है।
रिपोर्ट के अंतिम टेबल में उन्होंने इस खर्चे पर प्रतिशत में बताया है कि ‘डायरेक्ट प्रोग्राम सपोर्ट’ में इन्होंने इस ऑपेरेटिंग खर्चे का 82.88% खर्च किया है। यहाँ इन्होंने बताया है कि शोध, जाँच और बचाव के लिए लगभग $20 मिलियन खर्च किए हैं और लोगों तक पहुँचने के लिए, उन्हें अपनी बात बताने के लिए, उन्हें इन मामलों में शिक्षित करने के लिए लगभग $17 मिलियन खर्च किए हैं।
सबसे कमाल की बात यह है कि इन्होंने अपने वास्तविक कार्य, यानी जानवरों के जीवन बचाने, को ले कर सीधे तौर पर कितना खर्च किया है, वो नहीं बता पाए। इसलिए उसे ‘शोध, जाँच एवम् बचाव’ के मद में एक साथ डाल दिया है। इन्होंने यह नहीं बताया कि कितने जानवरों की जीवन में बेहतरी आई है इनके कारण और उनके लिए कुल खर्च, इनके पूरे खर्च का कितना प्रतिशत है। जबकि, यह खर्च इनका सबसे बड़ा खर्च होना चाहिए था।
2015 के इनकी रिपोर्ट के एक विश्लेषण करने वाले ने 2017 में एक लेख के माध्यम से इनके खर्चों पर चिंता व्यक्त की थी जहाँ इनके पूरे खर्च का 56% सैलरी और कन्सल्टेंसी में थी, 22% मीडिया में प्रमोशन पर और सिर्फ 4% जानवरों से जुड़ी संस्थाओं को सहयोग करने पर। इस रिपोर्ट के बाद इनकी बहुत भद्द पिटी थी। शायद यही कारण है कि इन्होंने इस बार मीडिया/प्रमोशन आदि के खर्चे पर कुछ ज्यादा विस्तार से नहीं लिखा है।
हो सकता है कि हिन्दू त्योहारों पर ज्ञान देने वाली इस संस्था का मूल कार्य प्रोपेगेंडा है जिसमें ये अपने हिसाब से धर्मों और देशों को चुनते हैं तथा ‘कस्टम टेलर्ड’ प्रपंच बेचते हैं। शायद यही इनके अंतरराष्ट्रीय ग्रासरूट्स अभियान के ₹87 करोड़ खर्चे का कारण है। चाहे रक्षाबंधन में हिन्दुओं से ‘गाय की रक्षा’ करने जैसे विचित्र कैम्पेन हों, या फिर हाल में अमूल जैसे कम्पनी को (जो करोड़ों भारतीय लोगों के जीवन का आधार है) ‘वीगन दूध’ बनाने को कहना, यह संस्था बेवकूफी की नई मिसाल बनाती रहती है।
पब्लिक आउटरीच एंड एजुकेशन, यानी लोकशिक्षा, के लिए इनका बजट लगभग ₹122 करोड़ का है। अर्थात् मुस्लिम और ईसाई देशों में ईद, क्रिसमस, थैंक्सगिविंग समेत ऐसे त्योहारों पर जहाँ जानवरों का मांस एक मुख्य हिस्सा है, इन्होंने काफी झंडे गाड़े होंगे। परंतु, ऐसा नहीं है। हर साल मरने वाले जानवरों और पक्षियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। इसका सीधा अभिप्राय है कि इनके कारण कोई सीधा बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता। हर ईसाई या इस्लामी त्योहार पर मारे गए बकरों, भेड़ों, गायों और टर्कियों की संख्या करोड़ों में होती है, लेकिन पेटा ने वहाँ क्या बदलाव किए हैं, वह बता नहीं पाती।
फिर, हमें दिखता है कि ये लोग ‘वोक’ लम्पटों का एक समूह मात्र हैं जो अपनी बेकार और मूर्खतापूर्ण माँगों के नाम पर करोड़ों कृषकों के व्यवसाय को बर्बाद कर देना चाहते हैं। भले ही, इन्हें कोई खास सफलता नहीं मिलती दिखती, लेकिन लोगों के मस्तिष्क में ऐसे विचार डालना कि दूध की आवश्यकता सिर्फ बचपन में ही होती है, बताता है कि इनका लक्ष्य उन कम्पनियों के लिए लॉबी करना है जो तथाकथित ‘वीगन दूध’ बनाते हैं।
आप अगर वीगन मिल्क का मूल्य देखने जाएँगे तो आपको पता चलेगा कि एक लीटर ‘वीगन मिल्क’ का दाम ₹290 से ले कर ₹400 तक है। अब कोई यह समझाए कि गाँव में ₹30-35/लीटर और शहरों में ₹45-60/लीटर खरीदने वाले लोग लगभग दस-गुणा मूल्य चुका कर किस बजट के हिसाब से दूध खरीदेंगे? भारत में हर व्यक्ति को वैसे भी दूध नहीं मिल पाता, जिनको मिल रहा है, उनमें से भी एक बहुत बड़ा हिस्सा उसे बच्चों के पोषण हेतु उपयोग में लाते हैं।
दूध लग्जरी नहीं, आवश्यकता है। ऐसे में पेटा जब ‘वीगन दूध’ की बातें कर रहा है तो वो यह भूल जाता है कि करोड़ों किसानों के रोजगार के साथ-साथ गरीबों के जीवन से खेलने की बातें कर रहा है। सवाल यह है कि पेटा वालों को ‘वीगन दूध’ की याद क्यों आती है! क्या यही कम्पनियाँ जो अब ‘वीगन दूध’ के व्यवसाय में आई हैं, वो पेटा वालों को ‘दान’ दे रही हैं?
विशुद्ध मूर्खतापूर्ण तर्कों से ही चलें, जो पेटा प्रयोग में लाता है, तो फिर हमें पौधों के भी फल और फूल लेने का अधिकार किसने दिया? पौधे भी तो सजीव हैं, उनके फलों से दूध और घी क्यों बनाएँ? चूँकि पौधे बोल नहीं सकते तो उन्हें भोजन बनाना सही है, लेकिन वैसे जानवरों के दूध नहीं पिए जाएँ जिन्हें किसान अपने परिवार को जीवित रखने के लिए पालते हैं। ये सिवाय कन्विनिएंस वाले कुतर्क के और कुछ भी नहीं। अपने देश में जब कुछ खास नहीं कर पाए, कोई सकारात्मक बदलाव नहीं ला पाए तो इनका ध्यान भारत जैसे देशों पर है जहाँ ये कुछ भी कह कर बच जाते हैं।
USA में नौ अरब मुर्गियाँ और लगभग 22 करोड़ टर्की हर साल मारे जाते हैं। यह संख्या हर साल बढ़ती ही है। एनिमल क्लॉक नामक वेवपोर्टल के अनुसार सिर्फ US में हर साल लगभग 3.58 करोड़ गाय-भैंस काटे जाते हैं, 12.3 करोड़ सूअर, 68.8 लाख भेड़ तथा 2.9 करोड़ बत्तख मारे जाते हैं। यह पोर्टल आपको बताएगा कि पेटा जैसों की अपील का कितना असर होता है या इनके तमाम अभियान कैसे लोगों की आँखों में धूल झोंकने का तरीका हैं क्योंकि उसका ट्विटर के पोस्ट्स से लोगों में कितनी जागरूकता आती है, वो इन आँकड़ों से पता चलता है।
एक टेबल में इन्होंने यह भी बताया है कि कानूनी बातों पर इनका खर्च कुल एक मिलियन डॉलर (₹7.2 करोड़) है जबकि बिना किसी निश्चित मद के खर्चों में कुल $8,444,504 (₹60.5 करोड़) गए हैं। आप ही देखिए कि इतनी बड़ी राशि के खर्च का ब्योरा नहीं है। ब्योरा तो खैर जिस तरह से इन्होंने दिया है, उससे यही प्रतीत होता है कि इनके पास स्वयं ही पारदर्शिता के नाम पर खानापूर्ति के अलावा और कुछ है नहीं।
कुल मिला कर ऐसी संस्थाएँ, भारत के संदर्भ में, हिन्दू लोगों की आस्था पर हमले करने, कृषकों की आय खत्म करने और वोक ज्ञान देने की साजिश करती ही नजर आती हैं। इससे इतर इनके द्वारा कोई भी ढंग का कार्य नहीं किया जा रहा। त्योहारों पर इनके हर कैम्पेन में हिन्दूफोबिया (हिन्दूघृणा) टपकती दिखती है। इनका अजेंडा वेटिकनपोषित संस्थाओं के अजेंडे से बिलकुल भी भिन्न नहीं है।