डॉ. विजय अग्रवाल 1983 बैच के सिविल सर्वेंट हैं, जो तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा के निजी सचिव रहे। उन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति से करीब आठ साल पहले ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली थी। वे तब से यूपीएससी में कैसे कामयाब हों, इसके लिए हर साल देश भर के पाँच सौ से ज्यादा विद्यार्थियों को मार्गदर्शन देते हैं।
इनमें ज्यादा हिंदी भाषी राज्यों के प्रतिभाशाली युवा होते हैं, जो दो सप्ताह की सघन कक्षाओं के लिए भोपाल आते हैं। मैं उनके लगभग हर बैच में अपनी भारत यात्राओं के अनुभव सुनाने इन युवाओं के बीच गया हूँ।
मार्गदर्शन के लिए उनकी दो बहुत महत्वपूर्ण किताबें हैं- ‘आप आईएएस कैसे बनेंगे।’ यह संयोग ही है कि इन दिनों मैं उनकी यही किताबें पढ़-पलट रहा था। हालाँकि अब आईएएस बनने की कोई गुंजाइश नहीं है, क्योंकि कॉलेज की पढ़ाई को छोड़े हुए ही 30 साल हो गए।
पढ़ाई के दिनों में भी सरकारी नौकरी मेरी प्राथमिकता कभी नहीं थी। मेरे कुछ सहपाठी जरूर आईएएस बनने का सपना देखते थे, जो राज्य प्रशासनिक सेवाओं के किनारे जा लगे थे। मैंने कभी सरकारी नौकरियों के विज्ञापन नहीं देखे थे। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए छपने वाली प्रसिद्ध पत्रिकाओं में उन युवाओं के इंटरव्यू जरूर पढ़ता था, जो आईएएस या आईपीएस बन गए थे।
उन घिसे पिटे फॉर्मेट वाले इंटरव्यू में एक सवाल सबसे पूछा ही जाता था-आपके आदर्श कौन हैं? वह 22-25 साल का ताजा सिलेक्ट हुआ युवा रटेरटाए से जवाब देता था। अगर लड़का है तो वह स्वामी विवेकानंद और महात्मा गाँधी से नीचे बात नहीं करता था। लड़की है तो उसकी जुबान पर मदर टेरेसा भी आ जाती थीं।
यह बताने के पीछे भाव यह रहता था कि वह इन सर्वोच्च सेवाओं में कितने ऊँचे आदर्शों को लेकर आ रहा है। सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है। बाकी कौन से विषय लिए, कैसे टाइम टेबल बनाया, नोट्स कैसे बनाए, कोचिंग ली या नहीं, माताजी-पिताजी से जुड़े सवाल होते थे, जिनसे दूसरे युवाओं को कामयाबी की पुड़िया मिल जाए। आगरा से लेकर इंदौर से छपने वाली ऐसी अनगिनत पत्रिकाएँ लाखों में बिकती थीं। एक पीढ़ी को इनसे रास्ते मिले हैं।
आईएएस या आईपीएस बनना तो सपने का शिखर था, लेकिन रास्ते पर चलते हुए आप राज्य प्रशासनिक सेवाओं, बैंक, बीमा, रेलवे जैसे किसी भी किनारे पर जा पहुँचते थे। एक पक्की-पूरी सरकारी नौकरी, जो भारतीय समाज में आपकी काबिलियत का पैमाना होती है। फिर उसके बाद जिंदगी पटरी पर ही बनी रहती है। टेक ऑफ के लिए एक के बाद एक कई रनवे मिलते जाते हैं। आसमानी सपनों में रंग भरने से कोई किसी को नहीं रोकता।
मैं साक्षी भाव से पद पराक्रमियों के इन सपनों को देखता हुआ एक दूसरी पगडंडी पर चला गया था। मैंने कई बार जिक्र किया है कि केवल लिखने का शौक ही मुझे हर दिन और हर पल अनिश्चितताओं से भरी अखबारी जिंदगी में लेकर आया था, जहाँ आते ही रोटी-दाल के भाव मालूम पड़ गए थे।
पत्रकारिता की डिग्री मेरे साथ लेने वाले कई युवा साल भर में ही लौटकर दूसरे कामों में लग गए थे। कोई सरकारी नौकरी में, कोई बिजनेस या राजनीति में। वे अपनी मेहनत से वहाँ सफल हुए। मैंने हजार-आठ सौ के वेतन पर बीपीएल में रहकर आगे बढ़ना मंजूर किया, क्योंकि लिखना चाहता था। ये वो दौर था, जब चैनलों की चकाचौंध ने मीडिया को ग्लेमर का प्रसाद नहीं दिया था। अखबारों में टिकना अंदरुनी कारणों से भी नए युवाओं के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण था।
तीस साल बाद डॉ. विजय अग्रवाल की दो पुस्तकें देखीं। 361 पेज की पहली ही किताब उन विद्यार्थियों के लिए हर कदम पर सटीक मार्गदर्शन करती है, जो आईएएस बनना चाहते हैं।
विषयों के चयन से लेकर सीमित समय में उनके उत्तर, घर पर तैयारी के लिए 24 घंटे में समय का कड़क प्रबंधन, तीन स्तरों की परीक्षाओं के हर स्तर पर रणनीति, इंटरव्यू में प्रश्नों का सामना करने के पहले कक्ष में प्रवेश करने की बारीकी, कोई कोना नहीं छूटा है। डॉ. अग्रवाल सेवानिवृत्ति लेने से पहले प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो के सीनियर अफसर रहे हैं और नौकरी न छोड़ते तो प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार जैसे टॉप सर्कल में हम उन्हें देखते।
वे डॉ. शंकरदयाल शर्मा के साथ दस साल रहे हैं और दुनिया घूमी है। समय प्रबंधन पर लिखीं उनकी किताबें बेजोड़ हैं। हर साल डिग्री लेकर निकलने वाले लाखों युवाओं के लिए उनकी सीखें कुछ ठीक-ठाक रास्तों पर प्रेरित करने के लिए पर्याप्त मार्गदर्शन करती हैं।
अब मैं इस विवरण के दूसरे महत्वपूर्ण सिरे पर आता हूँ। उनकी किताब को पढ़ते हुए ही इस समय दूसरी सुर्खी झारखंड से आई, जहाँ एक आईएएस अधिकारी पूजा सिंघल ने देश भर का ध्यान खींचा हुआ है। वह साल 2000 में 21 साल की उम्र में पहले ही प्रयास में बनी आईएएस थीं।
जाहिर है तब देहरादून में सिंघल परिवार की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा होगा और सिंघल समाज ने अपनी सामााजिक पत्रिकाओं में उन्हें समाज का गौरव बताया होगा। प्रतियोगी पत्रिकाओं में इंटरव्यू में उन्होंने भी महात्मा गाँधी और मदर टेरेसा के नाम अपने आदर्शों में लिए होंगे। उन्हें झारखंड कैडर मिला और एक अफसर के रूप में उनकी राजसी जिंदगी के कई फ्रेम रांची में चर्चाओं में हैं।
22 साल बाद वह होनहार बेटी राँची की बिरसा मुंडा जेल की एक बेरक तक पहुँच गई है, जिसने एक अफसर के रूप में कई सरकारों के टॉप बॉस के निकट रहकर काम किया। वे आईएएस थीं तो राहुल पुरवार नाम के एक और आईएएस के साथ उनकी शादी हुई, जो दो साल ही चली।
उनकी जिंदगी में अभिषेक झा नाम के सज्जन आए, जो ऑस्ट्रेलिया से एमबीए थे। दोनों की शादी हुई तो निश्चित ही बिहार के किसी गाँव में कहीं झा परिवार ने लाड़ली लक्ष्मी की दस्तक महसूस की होगी। जिंदगी खुशगवार थी। आसमानी सपनों में रंग कुछ ज्यादा ही चटक हो रहे थे। वे माइनिंग जैसे मलाईदार माने जाने वाले विभाग की सचिव बनीं। मलाई की कटोरी अभिषेक झा की टेबल पर थी।
पूजा सिंघल अकेली होनहार आईएएस नहीं हैं, जो जेल की किसी बैरक तक पहुँची हैं। हर राज्य में पिछले तीस सालों में ऐसे कई नाम हैं, जो महात्मा गाँधी को आदर्श बताते हुए करेंसी पर छपे महात्मा गाँधी तक फोकस्ड हो चुके थे। जिनके यहाँ छापे पड़े, जो सस्पेंड या बर्खास्त तक हुए और उनके मायावी जगत के दर्शन भवसागर को उन्हीं की तरह पार करने के लिए खड़े करोड़ों आम लोगों को संभव हुए।
राज्य प्रशासनिक सेवाओं के ऐसे प्रतापी अफसरों को भी जोड़ लें तो यह फेहरिस्त लंबी है, जिसमें हर दिन ही कोई जुड़ जाता है। इन्कम टैक्स, सीबीआई, ईडी, लोकायुक्त, ईओडब्ल्यू जैसी एजेंसियों के आर्काइव इन प्रतिभाओं से भरे हुए हैं।
इतिहासकार डॉ. सुरेश मिश्र द्वारा अनुवादित एक किताब है- ‘भारत हमें क्या सिखा सकता है?’ यह प्रोफेसर मैक्समूलर के उन सात व्याख्यानों का अनुवाद है, जो 1882 में आईसीएस की परीक्षा में चयनित अंग्रेज युवाओं को प्रशिक्षण के दौरान दिए गए थे।
ब्रिटिश सरकार का मकसद उन युवाओं को भारत का परिचय देने का था, जो अपना करिअर बनाने के लिए लंदन से निकलने वाले थे। वे व्याख्यान सबको पढ़ने चाहिए। मुझे नहीं पता कि मसूरी की लालबहादुर शास्त्री अकादमी में पूजा सिंघल को भारत का परिचय कराने के लिए कौन आया होगा? अगर आज ऐसी कोई व्यवस्था होती तो वे आईएएस ही दूसरे होते।
आम लोगों में देश की इन सबसे प्रतिष्ठित मानी जाने वाली सरकारी नौकरियों के प्रति आदर, सम्मान और विश्वास कितना है, इसके बारे में हम सब जानते हैं। हर राज्य में अपवाद भी हैं, जिनके कामकाज, बोल-व्यवहार और रहन-सहन उनके बताए आदर्शों से बिल्कुल मेल खाते हैं। वे पब्लिक से जुड़े हैं।
अपनी जिम्मेदारियों के प्रति चौकन्ने हैं और हाँ, चौबीस कैरेट ईमानदार भी। कम हैं, लेकिन हैं। ज्यादातर नहीं हैं, बिल्कुल नहीं हैं। चेयर पर आते ही वे आम लोगों के प्रति हिकारत से भरे सुलतान और सुलेमान हैं, जिन्हें यह अहसास होना चाहिए कि इन्कम टैक्स, ईडी, सीबीआई जैसे तीसरे नेत्र उन पर भी लगे हुए हैं।
अगर वे बचकर रिटायर हो भी गए तो वे फ्यूज बल्ब भर जाएँगे और उनके सारे रुतबे धरे रह जाएँगे। तीस-बत्तीस साल का यह समय रेत की तरह मुट्ठी से सरक जाएगा। यह बेशकीमती अवसर है, जब वे अपने विभाग में, अपने जिले में, अपने विषय में कायापलट जैसा बहुत कर सकते हैं।
बशर्ते वे इसी एक काम के लिए यूपीएससी के सामने लाखों की भीड़ में शामिल होकर निकले हों। वर्ना सितारे अपनी दशाएँ बदलते भी हैं। उनकी चमक हमेशा कायम नहीं रहती और गर्दिशें भी वजूद में हैं।
इसलिए साल 2000 में भारत की होनहार बेटी पूजा सिंघल की 2022 की सुर्खियों की रोशनी में डॉ. विजय अग्रवाल को मेरा सुझाव होगा कि वे अपनी दोनों किताबों में एक अध्याय सबसे पहले रखें, जिसका शीर्षक हो- ‘आईएएस बनना क्यों है?’