हाल ही में बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में रेलवे की दो परीक्षाओं को लेकर भारी विवाद हुआ। बिहार में तो इस विवाद ने रौद्र रूप तक ले लिया और परीक्षार्थी सड़कों और रेल की पटरियों पर उतर आए। 24 जनवरी, 2021 से चल रहे इस प्रदर्शन में न केवल अराजकता हुई बल्कि ट्रेन की बोगियों को आग लगाई गई और पटरियों पर भी तोड़फोड़ की गई। इस मामले में बिहार प्रशासन ने कई अज्ञात परीक्षार्थियों समेत कुछ अध्यापकों के विरुद्ध भी मामला दर्ज किया है।
केंद्रीय और राज्य के स्तर की परीक्षाओं में भी इस प्रकार देरी होना कोई नई बात नहीं रह गई है। फिर चाहे वह परीक्षा की तारीख हो, परिणाम हो या परीक्षा में सफल हो जाने के बाद भी भर्तियों में देरी होना। यह समस्या एक लंबे समय से चली आ रही है, चाहे वह SSC द्वारा कराई गई CGL की परीक्षा हो या RRB द्वारा कराई जा रही NTPC और ग्रुप डी की परीक्षा।
इस बार जिस मामले ने तूल पकड़ा है वह मुख्य तौर पर आरआरबी यानी रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड द्वारा कराई जाने वाली दो परीक्षाएँ हैं, जिसमें पहली एनटीपीसी यानी नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी है और दूसरी ग्रुप-डी यानी चौथी श्रेणी के पदों के लिए होने वाली परीक्षा।
एनटीपीसी की परीक्षा से 35,281 पदों पर भर्ती होनी थी और ग्रुप-डी की परीक्षा के माध्यम से 1,03,769 पदों पर।
एनटीपीसी की इस परीक्षा में 35,281 में से 11,000 पद केवल 12वीं पास परीक्षार्थियों के लिए थे। पहले तो कोरोना बीमारी के कारण यह परीक्षा टल गई।
मार्च 2020 में होने वाले पेपर जाकर दिसंबर 2020 से जुलाई 2021 के बीच हुए और इस पहले राउंड की परीक्षा का परिणाम 14 जनवरी, 2022 को सामने आया। इन परिणामों में पाया गया के 35,281 पदों के लिए 7,05,446 लोग अगले राउंड के लिए क्वालीफाई हो गए हों। यह पदों से 20 गुना अधिक परीक्षार्थी थे।
बताया जा रहा है कि 14 जनवरी को जो सूची आई, उसमें परीक्षार्थियों का नाम न देखते हुए केवल रोल नंबर चुने गए जिस कारण कई अलग-अलग पदों के लिए एक ही व्यक्ति को चुन लिया गया। इससे परीक्षार्थियों के बीच में भ्रांति की स्थिति उत्पन्न हो गई। इस परीक्षा में जिन 11,000 पदों पर केवल 12वीं पास परीक्षार्थियों का चयन होना था उनमें भी ग्रेजुएट लोग चुन लिए गए।
इस पूरी गड़बड़ी को परीक्षार्थी एक घोटाले का नाम देते हुए यह माँग कर रहे हैं कि एक पद के लिए केवल एक ही व्यक्ति चुना जाए और इस भर्ती के लिए 12वीं पास और ग्रेजुएशन के आवेदकों की परीक्षाएँ अलग-अलग हों।
इसके साथ ही ग्रुप-डी यानी चतुर्थ श्रेणी की परीक्षा को लेकर भी एक विवाद सामने आया। दरअसल इस परीक्षा के माध्यम से चपरासी, ट्रैकमैन जैसे पदों पर भर्ती होती है और इसमें केवल एक ही राउंड की परीक्षा होती है जिसके बाद नौकरी मिल जाती है।
इस परीक्षा को लेकर रेलवे ने एक नया नोटिफिकेशन जारी किया जिसमें उन्होंने कहा कि 23 फरवरी, 2022 को इस परीक्षा के पहले राउंड यानी CBT-1 की परीक्षा होगी। रेलवे ने परीक्षा को दो राउंड में बाँटने का यह तर्क दिया कि उनके पास कम पदों पर बहुत अधिक आवेदन आ गए हैं, जिस कारण उन्हें ऐसा करना पड़ रहा है।
रेलवे के इस निर्णय से इस परीक्षा में बैठने वाले परीक्षार्थी संतुष्ट नहीं दिखे और उन्होंने कहा कि बोर्ड इस तरह अंतिम समय में परीक्षा का पैटर्न कैसे बदल सकता है ?अब तक सारे परीक्षार्थी एक ही राउंड के हिसाब से तैयारी करते आ रहे हैं। अब अंत में वे दो राउंड के हिसाब से तैयारी कैसे करेंगे?
इसी कारण ग्रुप डी के परीक्षार्थी भी रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड के विरुद्ध सड़कों पर उतर आए और आंदोलन का हिस्सा बने।
फिलहाल तो रेलवे ने इन दोनों ही परीक्षा हो यानी एनटीपीसी की CBT-2 और ग्रुप-डी के CBT-1 को स्थगित कर दिया है और एनटीपीसी की परीक्षा के परिणामों की अनियमितता में जाँच के लिए भी एक कमेटी का गठन कर दिया है। कमेटी से 4 मार्च, 2022 तक रिपोर्ट सौंपने को कहा गया है, जिसके बाद ही आगे की परीक्षाओं को लेकर निर्णय लिए जाएँगे।
सवाल यह है कि इस पूरी समस्या का ज़िम्मेदार किसे माना जाए?
उन नेताओं को जो चुनावों से पहले भाषणों में हज़ारों-लाखों नौकरियाँ देने के वादे करते हैं? उस बोर्ड को जो निष्पक्षता से परीक्षा कराने और भर्तियाँ लेने का दावा करता है ? या हमारे समाज की उस मानसिकता को जो स्वतंत्रता के 75 वर्षों और ग्लोबलाइज़ेशन के लगभग 30 वर्षों बाद आज भी केवल सरकारी नौकरी को ही नौकरी मानती है और एक सरकारी पद पर बैठे व्यक्ति को ही प्रतिष्ठित का तमगा देती है।
सीधे तौर पर देखा जाए तो इसके लिए कोई एक व्यक्ति या समूह आरोपित नहीं, बल्कि गलती सभी की है। किसी की अधिक तो किसी की कुछ कम। उन सरकारों और नेताओं को घेरा जाना आवश्यक है क्योंकि यह ये ही लोग हैं तो चुनावों से पहले कभी 5 लाख तो कभी 10 लाख नौकरियों का वादा कर युवाओं से केवल वोट बटोरते हैं।
वैसे तो इस मामले में न तो पुरानी सरकारों के क्रियाकलाप कुछ बेहतर थे न ही तत्कालीन सरकार के हैं, परंतु फिर भी ऐसे आंदोलनों के समय सत्ताधारी सरकार ही लोगों के प्रति जवाबदेह होनी चाहिए।
साथ ही केवल सरकार को पूरी समस्या की जड़ बता देना इसलिए समझदारी नहीं क्योंकि सरकारें आती-जाती रहती हैं। परीक्षाओं को लेकर जो महत्वपूर्ण कार्य करते हैं वे हैं रिक्रूटमेंट बोर्ड और अधिकारी लोग।
आंदोलन कर रहे परीक्षार्थियों को अपने नेताओं के साथ-साथ इन बाबुओं और प्रशासन में बैठे अधिकारियों से भी ये सवाल पूछने की आवश्यकता है कि इसी प्रक्रिया से गुज़र कर, इस पीड़ा से परिचित होने के बाद भी क्यों ये सरकारी अधिकारी समय पर परीक्षाएँ कराने, परिणाम घोषित करने और भर्तियाँ लेने में अक्षम रह जाते हैं?
देश और व्यवस्था बदलने का प्राण लिए सरकारी विभागों में जाने वाले यही उम्मीदवार, अधिकारी बनते ही क्यों अपने संघर्ष और परिश्रम को भूलकर उसी सड़े-गले शक्तिहीन सरकारी तंत्र का हिस्सा बन जाते हैं?
इस सब के बीच अगर हम आँकड़ों की बात करें तो वे चौंका देने से अधिक तो पीड़ा देते हैैं। जब केवल डेढ़ लाख से कम पदों के लिए ढाई करोड़ से अधिक आवेदन आएँ तो हमें एक राष्ट्र के तौर पर यह आत्ममंथन करने की आवश्यकता भी है कि केवल यह परीक्षा या ऐसी कुछ परीक्षाएँ करा देने और नौकरियाँ दे देने से यह भयावह स्थिति नहीं बदलेगी।
भारत की सरकारी परीक्षा पद्धति को जड़ से बदलने या नए सिरे से पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है। एक ग्रेजुएट युवा को केवल पकौड़े तलने की बात कह देना उसकी समस्या का समाधान नहीं, अपितु यह उसके गुस्से को और आग ही देगा।
देश के युवा और उससे भी अधिक हमारे समाज को यह समझने की आवश्यकता है कि केवल सरकारी नौकरी ही एक आय के स्रोत और एक उच्च स्तरीय जीवन शैली का माध्यम नहीं है।
करोड़ों की संख्या में आवेदन आना देश में बेरोज़गारी के आँकड़े सामने लाने के साथ-साथ सरकारों को यह संदेश भी साफ़ करता है कि इतनी बड़ी संख्या में वे नौकरियाँ नहीं दे सकते। उन्हें इस क्षेत्र में कोई और राह चुननी ही होगी। फिर चाहे वह निजीकरण के माध्यम से किसी भी विभाग को व्यापक रूप देना हो या लोगों में एंटरप्रेन्योरशिप यानी उद्यमवृत्ति की भावना भरना।
अब आते हैं इन परीक्षार्थियों के विरोध प्रदर्शन और उन पर लाठी बरसाते पुलिसकर्मियों पर, जो कि कुछ वर्षों पहले स्वयं उनकी जगह पर खड़े थे। पुलिस के शीर्ष अधिकारियों और प्रशासन को यह समझने की आवश्यकता है कि ये परीक्षार्थी केवल एक ही दिन में सड़कों पर नहीं आ गए हैं। एक लंबे समय से चल रहे शांत विरोध के बाद ही इन परीक्षार्थियों ने यह आक्रामक रुख अपनाया है जो कि निसंदेह निंदनीय है।
केंद्र और राज्य सरकारें उपद्रव के पीछे विपक्षी दलों का हाथ बता रही हैं और हर बार की तरह मुद्दे का राजनीतिकरण करने का सम्पूर्ण प्रयास किया जा रहा है। बिहार में कई जगहों पर AISA जैसे वामपंथी छात्र संघ और कुछ विपक्षी दल भी परीक्षार्थियों के साथ दिखे।
कुछ ऐसे वीडियो भी सामने आए जिनमें कुछ लोग रेल की पटरियाँ तोड़ रहे हैं। ऐसे ही एक वीडियो में उपद्रव मचाता एक व्यक्ति देखा जा सकता है जो किसी दृष्टि से परीक्षार्थी या छात्र प्रतीत नहीं होता है। आंदोलन करने वाले परीक्षार्थियों को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि उनका आंदोलन इस प्रकार के अराजक तत्व न कब्ज़ा पाएँ।
परीक्षार्थियों के आंदोलन पर अगर यह विपक्ष की राजनीति हावी हो जाएगी, तो यह सारा मुद्दा केवल सत्ता और विपक्ष के आपसी टकराव कर रह जाएगा, जिसमें असल में ज़रूरतमंद परीक्षार्थी केवल चारा बनकर रह जाएगा।
परीक्षार्थियों के भीषण विरोध के बाद नींद से जागे रेल मंत्री ने सामने आकर बयान दिया, जो अगर पहले ही दे दिया जाता तो इतना उपद्रव और सरकारी संपत्ति का नुकसान होने से बचाया जा सकता था। इसी प्रकार केंद्र और राज्य सरकारें, सभी नेतागण खुलकर सामने आ जाएँ। अगर वे युवाओं को रोज़गार नहीं दे सकते तो कम से कम उन्हें नौकरियों के झूठे स्वप्न न दिखाएँ।
ऐसा करने से सरकारों के अपने मुखोटे तो उतरेंगे ही साथ ही साथ उस युवक का वह पैसा भी बच जाएगा जो वह उत्तर प्रदेश-बिहार के किसी गाँव से अपनी ज़मीन बेच या गिरवी रख कर राज्य की राजधानी या देश की राजधानी के विभिन्न क्षेत्रों में परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए लाता है।
वह युवक इसी पैसे को किसी अन्य काम में लगा कर अपने परिवार के लिए 2 जून की रोटी कमाने का कोई और साधन ढूंढेगा।