भारत यात्राओं के दौरान मुझे देश के कई आदर्श गाँवों में जाने का मौका मिला। मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले में करेली के पास बघवार कई बार गया हूँ। महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले में हिवरेबाजार और रालेगण सिद्धि तो देश भर में प्रसिद्धि पाए। गुजरात में स्वाध्याय परिवार के गाँवों में अकल्पनीय आबोहवा में गया हूँ।
बघवार एक ऐसी पंचायत थी, जिसमें कई दशक तक निर्विरोध ही सरपंच चुना गया। कुछ लोग ऐसे थे, जो सरकारी सेवाओं से रिटायर होने के बाद गाँव में आकर बसे और अपने अनुभव से गाँव को समृद्ध किया। यह गाँव ऐसा माहौल बनाने में कामयाब हुआ कि जब सबको गाँव की भलाई के लिए काम करना है तो कौन सरपंच, कौन पंच और कौन नहीं, क्या फर्क पड़ता है।
यह अकेला ऐसा गाँव था, जहाँ किसी काम के लिए अगर चार लाख रुपए मंजूर हुए तो गाँव के लोग छह लाख का प्लान करते और दो लाख अपनी तरफ से मिलाकर शर्त रखते कि इसे कोई सरकारी एजेंसी नहीं बनाएगी, हम बनाएँगे।
बीते तीस सालों में नरसिंहपुर जिले में आए कलेक्टर और जबलपुर संभाग के कमिश्नर इस गाँव से सीधे जुड़े थे, जो रिटायर होने के बाद भी गाँव वालों से हाल पूछते देखे गए। ऐसी पहचान बनी।
आप वहाँ के सामुदायिक भवन देखिए और भोपाल के चार इमली के सरकारी बंगलों से उसका हुलिया मिलाइए। पंचायत भवन को लेकर धूल खाती हुई एक जर्जर सी इमारत की छवि उभरती है लेकिन बघवार के बहादुरों ने उसे न्याय मंदिर बनाया। गाँव के घरों की खाली दीवारों पर गलियों के दोनों तरफ संसार भर का सामान्य ज्ञान लिखा ताकि चलते-फिरते आप कुछ पढ़ते हुए जा सकें।
सरकारी स्कूल किसी भी निजी स्कूल को मात देने वाला, जहाँ सेवानिवृत्त शिक्षक भी अपना योगदान देते हैं। वे दिन भर खाट पर बैठकर बीड़ी नहीं फूँकते। हर काम में आपको निष्ठा, समर्पण और ऊँचे चरित्र की झलक दिखाई देगी। पिछले एक चुनाव में निर्विरोध चुनने की परिपाटी टूटी, जब एक सिरफिरा सरपंच बनने के लिए लालायित हो उठा। गाँव वालों ने उसकी जमानत जब्त करा दी।
हिवरेबाजार में यही रौनक अकेले एक आदमी की बदौलत आई और उसका नाम है पोपटराव पवार। वह 1990 में पुणे से पढ़ाई करके गाँव बसने के इरादे से लौटा और अपने पुरुषार्थ से हिवरेबाजार को देश भर में प्रसिद्ध कर दिया।
पोपट को पिछले साल भारत सरकार ने पद्म सम्मान दिया। तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश जब उसके गाँव गए तो हैरत में भरकर बोले थे कि हमें देश भर में पोपट के क्लोन बनाने होंगे ताकि हर गाँव ऐसा हो सके।
उन्होंने 12 करोड़ की लागत का एक ऐसा ट्रेनिंग सेंटर घोषित किया, जहाँ गाँवों के विकास से जुड़ा हर विभाग का सरकारी अमला पोपटराव पवार से गाँव की भलाई के गुर सीखेगा। पास में ही रालेगण सिद्धि है, जिसे अण्णा हजारे के कारण सब जानते हैं। हर राज्य में ऐसे कुछ गाँव विकसित हुए हैं, जो वाकई सबके लिए मिसाल हैं और लोकतंत्र के अर्थों को आदर्श रूप में पूरा कर रहे हैं।
मध्यप्रदेश में पंचायती चुनाव सिर पर हैं। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने निर्विरोध चुनाव की स्थिति में 5 से लेकर 15 लाख रुपए की प्रोत्साहन राशि का ऐलान किया है। इसमें 15 लाख रुपए वे उस पंचायत को देने वाले हैं, जहाँ पंच-सरपंच सभी महिलाएँ चुनी जाएँगी और वो भी निर्विरोध।
दूसरी बार निर्विरोध सरपंच के चुनाव पर सात लाख रुपए। 12 लाख रुपए उस पंचायत को जहाँ चुनाव से ही सही, सब पदों पर महिलाएँ चुनकर आएँ। यह एक ऐसी पहल है, जिसका लाभ लेने की होड़ पंचायतों में होनी चाहिए। भरसक कोशिश निर्विरोध चुनाव की ही होनी चाहिए और जहाँ संभव हो, महिलाओं को ही मौका दिया जाना चाहिए।
प्रोत्साहन की राशि से स्थाई महत्व का कोई ऐसा काम किया जा सकता है, जो इस ऐतिहासिक अवसर की याद लंबे समय तक याद दिलाए। जैसे-फलदार वृक्षों का एक बाग, जिसे गाँव के दिवंगत परिजनों की स्मृति में रोपा जाए या सड़क के दोनों तरफ बाँस, गुलमोहर या अमलतास के पौधे।
चंद आदर्श गाँवों की गिनती छोड़ दें तो तीन स्तरीय पंचायती राज आने के बाद गाँवों में क्या हुआ है? सत्ता शक्ति के इस विकेंद्रीकरण से गाँवों में हवा बदलनी चाहिए थी। लेकिन किसी भी कानून से एक आदर्श समाज की रचना की उम्मीद उस समाज से संभव है, जिसने जीवन मूल्यों को पहले से हर क्षेत्र में तरजीह दी हुई हो।
पंचायती राज में ज्यादातर गाँव कलह से भर गए। आपसी मनमुटाव पहले से गाढ़ा हुआ। एक दूसरे के प्रति रंजिश का भाव पैदा हुआ। बेशक इस तनावपूर्ण स्थिति के मूल में पैसा और प्रतिष्ठा है। गाँवों को अब पहले से ज्यादा फंड मिल रहे हैं। इसमें भी कोई दो मत नहीं कि हर योजना में तमाम मनमानी और भ्रष्टाचार के बावजूद गाँवों में कई तरह के काम हुए हैं।
पिछले कुछ सालों में इन्फ्रास्ट्रक्चर पर जितना काम हुआ है, उतना पहले कभी नहीं हुआ था। ज्यादातर गाँवों की रोड कनेक्टिविटी बड़े शहरों से बेहतर हुई है। ज्यादा समय बिजली है। सोलर के विकल्प हैं। मगर इस इन्फ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल गाँव के लोग क्या कर रहे हैं?
उन्हें अपनी खेती की आदतों को बहुत तेजी से बदलने की जरूरत है। अगर कोई बड़ा शहर एक या दो घंटे की दूरी पर आ गया है तो क्या बुरा है कि जमीन के एक हिस्से पर वे सब्जियाँ और फल उगाएँ या दूध उत्पादन में उतरें।
सड़क और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं के अकाल ने ही गाँवों को वीरान बनाकर रख दिया था। बढ़ते हुए परिवारों का बोझ संभालने में अक्षम सीमित जमीन को पीछे छोड़कर आसपास के कस्बों, छोटे और बड़े शहरों में आबादी का एकतरफा पलायन दशकों तक जारी रहने के बाद आज स्थिति यह है कि गाँवों में परंपरागत दक्षता के कार्यों के लोग ही गायब हो गए।
लकड़ी, लोहा और मिट्टी के हुनरमंद लोग अब मामूली पगार पर शहरों में मजदूरी कर रहे हैं। रिक्शे चला रहे हैं। अनाज गाँव से मिल जाता है। भविष्य कुछ नहीं है।
सरकार की मुफ्त की योजनाओं ने गाँव में बचे-खुचे मानव संसाधन को हद दरजे का आलसी और निकम्मा बना दिया है। वे सरकारी अनाज बेचकर शराब और गांजा पीकर पड़े हुए ताश खेल रहे हैं।
यह भी सही है कि खेती और सिंचाई की तकनीक के विकास ने काफी मदद की है और गाँवों की आर्थिक समृद्धि भी बढ़ी है। ट्रैक्टर, कारें और जीपें, महंगे मोबाइल, टीवी, फ्रिज, कूलर, ऐसी अब गाँववालों के लिए बेहद आम हैं। मगर गाँवों की तस्वीर से वे चार-पाँच भले लोग भी गायब हो गए हैं, जो गाँव वालों पर अपना असर रखते थे। गाँव का सामाजिक तानाबाना पूरी तरह बिखरा हुआ है।
मुझे लगता है कि अब रिवर्स माइग्रेशन का एक व्यापक आंदोलन शुरू होना चाहिए। गाँव-कस्बों से 30-40 साल पहले पढ़कर शहरों में नौकरियों के लिए निकले लोग अपनी गाड़ी में रिवर्स गियर लगाएँ, यह समय की जरूरत है। अब उनकी अगली पीढ़ी शहरों में अपना भविष्य बना रही है तो इसका मतलब है कि शहरों में उनकी भूमिका खत्म हो चुकी है।
सेवानिवृत्त होकर शहर के किसी कवर्ड कैम्पस या मल्टीस्टोरी बिल्डिंग के फ्लैट में सुबह-शाम दवाओं की खुराक के साथ जिंदा रहने से बेहतर है कि वे अपना बचा हुआ समय गाँवों को दे दें। जीवन में जो कुछ भी अनुभव, संबंध और पूँजी कमाई है, उसके एक हिस्से पर पुरखों की जमीन का हक है। वह हक अदा करें। शहरों की भीड़ कम करें।
पिछले साल एक सामाजिक प्रसंग में एक जगह मेरा जाना हुआ। मैंने पाया कि वहाँ सरकारी नौकरियों से सेवानिवृत्त दर्जनों लोग थे, जो शहर में ही अटके पड़े थे। कोई काम नहीं है।
गाँव में जमीन है। जाकर देख आते हैं। निखट्टू होकर ऐसा शहरों में क्यों रहना? अब गाँवों तक सड़कें बेहतर हैं। किसी भी आपात स्थिति में वे घंटे-दो घंटे में शहर में आ सकते हैं। उनका कोई काम नहीं है। उन्हें लौटना चाहिए।
हिवरेबाजार की दशा जब सुधरी तो पुणे और मुंबई में तीस साल पहले पलायन करने वाले सौ से ज्यादा लोग सपरिवार गाँव लौट आए थे। शहरों के श्मशानघाटों में गुमनाम अग्नि को समर्पित होने की बजाए पढ़े-लिखे, नौकरियों और अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त साठ पार के लोगों को अपना सामान बांध लेना चाहिए। पुरखों को यही सच्चा तर्पण होगा।
जीवन में जो कुछ अर्जित किया है, उस पर उनका भी थोड़ा हक है, जिन्हें पीछे छोड़ आए थे! लौटकर कुछ नया करें। कुछ नहीं तो गाँव के स्कूल में बच्चों के बीच जाकर बैठें, अपने अनुभव बताएँ। उनका ही सहारा बन जाएँ। बढ़ी हुई औसत उम्र का इस्तेमाल क्या है? क्या केवल अपनी निष्क्रिय आलीशान रिहाइशों में मृत्यु की प्रतीक्षा?
मैं इस दिशा में तीन साल से बिना अवकाश लिए सक्रिय हूँ और मुझे लगता है कि आजादी के अमृतकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रिवर्स माइग्रेशन का आव्हान अगली 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से देश भर से करना चाहिए।
अगर दस करोड़ पढ़े-लिखे, संपन्न सेवानिवृत्त और शहरों में अपनी भूमिका पूरी अदा कर चुके लोग भी लौटकर अपने गाँव चले जाएँ तो आत्मनिर्भर भारत बनाने में गाँव भी एक गियर लगा देंगे!