अगर क्रिकेट की भाषा में बात करें तो 50 ओवर के भोपाल के इतिहास में तथाकथित नवाबों ने आखिरी की चंद बॉलें ही खेली हैं। वे पूरे मैच के मालिक कभी नहीं थे। मगर भोपाल की पहचान नवाबों के शहर के रूप में ही बनाई गई। हमने भोपाल की एक हजार साल से ज्यादा लंबी महान विरासत को हाशिए पर भी जगह नहीं दी। जबकि यह अकेला शहर है, जिसके पुराने वास्तु के चिन्ह गूगल मैप से अब भी बहुत साफ नजर आते हैं और यह राजा भोज के समय मेगा प्रोजेक्ट्स थे।
आज के चौक बाजार से लेकर भोजपुर, भोजनगर और आशापुरी के कई किलोमीटर लंबे इलाके में भोज ने अपने सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरों, स्थापत्य और बाँध निर्माण के विशेषज्ञों, शिल्पकारों, मूर्तिकारों की पूरी फौज उतार दी थी। भोपाल से उनका क्या संबंध था?
उनकी राजधानी तो भोपाल से तीन सौ किलोमीटर दूर धार में थी। करीब 35 वर्ग किलोमीटर में फैला बड़ा तालाब भोपाल की दुनिया भर में पहचान बना हुआ है और इसका नवाबों से कोई लेना-देना नहीं है।
इसी तालाब के पास एक वर्गाकार शहर की प्लानिंग की गई थी, जिसके बीचों-बीच एक सभामंडल नाम की संस्कृत की विद्यापीठ बनाई गई थी, जहाँ आज का चौक बाजार है। 90 डिग्री पर एक दूसरे को काटती सीधी सड़कें आज भी गूगल मैप से देख लीजिए।
ओम की आकृति के बीचों-बीच बना भोजपुर का शिवमंदिर एक अधूरा प्रोजेक्ट है और अगर यह पूरा हो गया होता तो यह संसार के सबसे बड़े और भव्य मंदिरों में से एक होता, जिसे राजा भोज ने 500 वर्ग किलोमीटर में फैले भीमकुंड के एक किनारे की ऊँची चट्टान पर प्लान किया था।
उस विशाल जलाशय की रचना के लिए बनाए गए मानवनिर्मित बाँध आज भी बहुत बेहतर हालत में मौजूद हैं। इनमें नवाबों का योगदान एक ईंट का नहीं है।
ऐसी नगर योजना से यहाँ आकर कब्जा जमाने वाले जाहिल हमलावर निपट निरक्षर थे। हाँ, वे बनी बनाई विरासत पर छल-कपट से कब्जा जमाने में पैदाइशी तौर पर होशियार थे, क्योंकि बंजर और खानाबदोश इलाकों से वे दो वक्त की रोटी की खातिर भागकर आए थे और उनके पास रिटर्न टिकट नहीं थे। उन्हें जो भी करना था यहीं करना था। उन्होंने वही किया, जो उन्हें आता था।
यह अकेले भोपाल की कहानी नहीं है। यह सिंध से लेकर दिल्ली और आज के अहमदाबाद से लेकर हैदराबाद तक की कहानी है। अहमदाबाद जो पहले कर्णावती और हैदराबाद जो पहले भाग्यनगर था। कब्जा जमाने वालों ने अपने साइनबोर्ड भर टाँग दिए थे और ऐसा करने से इतिहास के मालिक वे नहीं हो जाते।
‘समरांगण सूत्रधार’ नाम की राजा भोज की ही किताब उनके स्थापत्य के कमाल का सबसे बड़ा सबूत है। यह भारत की महान ज्ञान परंपरा की एक बेजोड़ मिसाल है, जिसे हर कब्जे की कहानी में मिटाने की कोशिश की गई।
मस्जिदें बनाने के लिए मलबा भी मंदिरों और विद्यापीठों का ही चाहिए था! ये किताबें नियमित चर्चा के लिए भोपाल के हर स्कूल-कॉलेज की लाइब्रेरी में होनी चाहिए और इसके लिए स्टडी सर्कल बनने चाहिए। निरंजन वर्मा की किताब ‘बानगंगा से हलाली’ 1999 में छपी थी।
यह हमलावर अफगानों के कब्जे में आने के दुखद अध्याय पर केंद्रित एक तथ्यपूर्ण उपन्यास है, जो हर भोपाली को पता होना चाहिए। यह न हिंदुओं का इतिहास है, न मुसलमानों का। यह भारत का इतिहास है, जिसमें एक समय सब एक थे।
एक बार मैं दिल्ली के एक पुराने किले में कहीं था। मेरे आसपास कुछ मुस्लिम पर्यटक भी थे। मुझे गर्व से भरी एक आवाज सुनाई दी-‘देखो, हमारे लोगों ने कैसे बड़े किले और महल बनवाए। हमने छह सौ साल हुकूमत की है। इंशाअल्लाह।’
मैंने परिचय लिया। वे कहीं उत्तरप्रदेश के लोग थे और किसी छोटे कस्बे से थे। थोड़े-बहुत पढ़े-लिखे थे और बड़े मन से पुराने किलों में अपने गौरवशाली अतीत का अनुभव कर रहे थे। अगर उन्हें सच्चा इतिहास पढ़ाया गया होता तो स्थिति उलट होती।
वे बिल्कुल गर्व नहीं कर सकते थे। 12वीं सदी में आए तुर्क हमलावरों और 16वीं सदी में आए मुगल हमलावरों से उनकी कोई ब्लड लाइन नहीं जुड़ती। अगर हमने दिल्ली पर कब्जा जमाने के बाद देश भर हुई बरबादी की इबारतों को इतिहास की किताबों में पढ़ा होता तो पता चलता कि असल में किसने क्या किया था?
1947 में 15 अगस्त की सुबह जिन लोगों ने अपनी सनातन भारतीय पहचान सहित आँखें खोलीं, उन्हें अपने साहसी और महान पूर्वजों के प्रति गहरे अनुग्रह से भरा हुआ होना था। एक लंबी यातनादायी गुलामी की कई भयावह सदियों से होकर वे गुजरे थे और अपनी मूल पहचान और अपनी परंपराओं को नहीं छोड़ा था।
इन सदियों में जो जब कमजोर पड़ गया, धर्मांतरित होता गया। भारतीय उपमहाद्वीप में बदली हुई पहचानों के विस्तार को जरा इस नजरिए से भी देखिए कि उनका अपना सब कुछ खो गया। अपना धर्म, अपनी मूल पहचान, अपने पुरखों के नामोनिशान! वे आज भी एक पीड़ित पक्ष हैं। विक्टिम कार्ड की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि यही है।
आप समकालीन इतिहास के विवरणों में जाकर देख सकते हैं कि धर्मांतरण कैसे-कैसे किए गए? अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के ग्रंथागार में वे सारे दस्तावेज इतिहासकार इरफान हबीब के पीछे की अल्मारी में ही रखे रहे हैं।
इसके बावजूद अगर सत्य के उदघाटन से किसी संवेदनशील की भावनाएँ बैठे-ठाले आहत होती हैं तो हम इसके लिए क्षमाप्रार्थी नहीं हैं। हरवंश मुखिया जैसे वामपंथी इतिहास भी मानते हैं कि धर्मांतरण इस्लामी हुकूमत में जिंदा रहने के लिए सजा का ही दूसरा विकल्प था। अंडरलाइन कीजिए, सजा का विकल्प। सजा का विकल्प पुरस्कार नहीं होता। वह सजा ही होती है।
जजिया नहीं दे सकते, इसे कुबूल कर लीजिए। हार कर बंदी बनाकर लाए गए हैं, अब मौत या कलमा, बोलो क्या चाहिए! गुलामों के बाजार से खरीदकर लाई गई हो, बुतपरस्ती भूल जाओ, अब तुम्हारा नया नाम ये रहा और तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं, हमारे होंगे! उनके नाम भी तुम्हारे नहीं, हमारे होंगे!
कितना अजीब है कि कोई सजा पीढ़ियों तक भोगी गई और वह एक स्थाई भाव बनकर ठहर गई। क्या कयामत है कि फिर लोग अपने कैदी लिबास, अपनी बैरकों और अपने जेलखानों को ही अपनी विरासत समझ बैठे, जिसके खिलाफ उन्हें एक शब्द नहीं सुनना।
शातिर संगठनों ने गुलामी के उनके इस मानसिक ढाँचे को मजबूत बनाने का काम किया है। असलियत उन तक आने ही नहीं दी। सेक्युलर सिस्टम ने ओजोन की परत की तरह उन्हें एक शानदार कवर दे दिया।
सिंध से शुरू करें तो एक हजार साल होते हैं। 40 पीढ़ियों ने बेड़ियों में वंश चलाए। देखा जाए तो 15 अगस्त को सजाओं के सारे विकल्प माफ हो चुके थे लेकिन तब तक वह एक बड़ी आबादी थी, जिसने कहा कि हमें आजादी नहीं चाहिए, अलग जेलखाना दे दो, हम वहीं ठीक रहेंगे।
उन्होंने उसे पाकिस्तान कहा। वह सिवाय एक अतिक्रमण के और कुछ नहीं है। जैसे सरकारी जमीन या प्राइवेट बागीचे पर कोई हरा-लाल झंडा और पाँच वक्त के लिए लाउडस्पीकर लगाकर बैठ जाए। तब भी कश्मीर के रेवेन्यू रिकॉर्ड में नाम किसी पंडित का ही होगा। मुल्क ऐसे कहाँ बनते हैं?
भारत का दुर्भाग्य है यह रहा कि हमने टूटफूटकर आजाद होकर भी अपनी ऐतिहासिक सच्चाइयों का सामना कभी नहीं किया। पहले बैच के सत्ताधीशों की कोशिश सबको खुश रखने की रही और यह एक असंभव काम था।
मैंने मध्यकाल के भारत के ऐतिहासिक दस्तावेजों में चहलकदमी की है। मुझे उन छह-आठ सदियों में गंगा, जमुनी नाम की वे चिड़िया या कबूतर कहीं दिखाई नहीं दिए, जो सेक्युलर घोसलों में कौमी एकता के अंडे दे रहे थे!
अगर हमने अपने इतिहास के भोगे हुए सच का सामना किया होता तो कोई भी किसी लाल किले, कुतुबमीनार या ताजमहल में जाकर गर्व से भरा हुआ महसूस नहीं कर सकता था। उसे कुतुबमीनार के आसपास मलबे में उन 27 मंदिरों के अवशेष कैसे न दिखाई पड़ते, जो अपनी दीवारों और सीढ़ियों से झाँकती मूर्तियों से अपनी असल और इतिहास में खोई हुई कहानी आज भी कह रहे हैं!
वे हमारे महान पुरखों ने बनाए थे, जिन्हें हमलावरों ने लूटकर बरबाद किया था। तब हर रमजान और रिजवान को गौर से देखने पर आइने में कोई रामलाल ही दिखाई दे रहा होता! फिर भले ही वह रमजान और रिजवान के रूप में ही रहता, लेकिन उसके जेहन में भारत के प्रति एक अलग अनुराग होता, ऐसी हम उम्मीद कर सकते हैं।
मगर आज वह बिगड़ी हुई बात किस-किस रूप में प्रस्फुटित हो रही है, यह गौर करने वाली बात है। आज हिजाब, अजान, लाउडस्पीकर, वक्फ, बीफ, शुक्रवार, मजार-मदरसे, जिहादी तालीम, काफिर, कुफ्र, गजवा, तबलीग और जमातों के नए-नए सिलसिले चाँद-सितारे वाले मेन्यू में चमक रहे हैं। जावेद, नसीर, आरफा, सबा, राणा, ओवेसी जैसे हुनरमंद शेफ ढाबे को क्या खूब रौनकदार बनाए हुए हैं!
ईरान की स्त्रियों पर किसी शैतान का साया है और भारत में हिजाब ओढ़कर सीधे सातवें आसमान से आए फरिश्ते सुप्रीम कोर्ट में चहलकदमी कर रहे हैं! शायद वकीलों और जजों के काले लबादे उन्हें अपनेपन का अहसास करा रहे हैं! उन्हें सही ही लग रहा है कि अल्लाह का इंसाफ कहीं है तो यहीं है!! यहीं है! यहीं है!