अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा की जा रही बर्बर हत्याओं और ‘वीभत्स कुकृत्यों’ के बीच भी कुछ लोग हैं जिन्हें इन शर्मनाक कृत्यों की आड़ में ‘मजहब प्रचार’ का बेहतरीन मौका मिल गया है।
वामपंथी पोर्टल ‘द क्विंट’ खुलेआम इस अवसर पर फायदा उठा कर दुनिया को ये समझाने में लगा हैं कि इस्लामी शरीयत एक शानदार कानून है, जिसके अंदर जिसके अंदर बलात्कारी, व्यभिचारी, अपराधी को क्रूरता से सजा देने का प्रावधान है।
तालिबान की आड़ में ‘द क्विंट’ इस्लामी शरीयत कानूनों का बखान करते हुए बैलेंस्ड दिखने के लिए तालिबान के पिछले शासन में इस्लाम और शरीयत के नाम पर महिलाओं के साथ हुई बर्बरता का जिक्र तो करता है, मगर ये बताने में लज्जित महसूस करता है कि हाल ही में तालिबान द्वारा बुर्क़ा न पहनने पर दो महिलाओं और एक पुलिस चीफ की गोली मार कर सरेआम की गई हत्या किस ‘लोकतांत्रिक’ कानून के तहत की गई है।
शरीयत का अप्रत्यक्ष बचाव करते हुए अपने इस ‘लेख’ में ‘द क्विंट’ ये बताने की कोशिश करता है कि तालिबान जिस शरीयत का पालन करता है, वो विस्तृत इस्लामी शरीयत का एक छोटा सा हिस्सा है, बाकी का शरीयत कानून तो दया और रहम से भरा हुआ है, उसमें बस अपराधियों को सजा देने की बात कही गई।
ऐसे में जरूरी हो जाता है कि जिस ‘शरीयत कानून’ का प्रचार ‘द क्विंट’ ये कहते हुए कर रहा है कि तालिबान ‘शरीयत का थोड़ा सा’ हिस्सा फॉलो करता है, उसके विस्तृत रूप की थोड़ी सी पड़ताल कर ली जाए।
साल 2005 में मुजफ्फरनगर की एक 28 साल की मुस्लिम महिला इमराना के साथ उसके ससुर अली मोहम्मद ने घर की चार-दीवारी के भीतर ही बलात्कार किया था। इसके बाद उसके ‘समाज’ मे इस बात को लेकर बहस छिड़ गई थी कि इमराना अब शौहर के साथ रहेगी या ससुर के साथ।
एक लोकतांत्रिक और सभ्य समाज मे जब ऐसी घटना घटती है तो अपराधी को सजा मिलती है लेकिन उसके समाज मे ऐसा नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ? क्योंकि ससुर द्वारा बलात्कार के बाद इमराना अपने शौहर की माँ हो गई।
अब आप कहेंगे कि ‘कोई सेंस है इस बात का’, तो मेरा जवाब होगा इसका सेंस छुपा है शरीयत कानून में। उसी शरीयत क़ानून में जिसके ‘विस्तृत कानूनों’ पर ‘द क्विंट’ लहालोट हो रहा है। कुरान की ‘सूरह निसा’ की आयत के अनुसार:
“आप उनके साथ ‘निकाह’ नहीं कर सकते, जिसके साथ आपके पिता ‘निकाह’ कर चुके हैं।”
इस आयत में प्रयोग हुए शब्द ‘निकाह’ के अरबी में दो अर्थ हैं – पहला, वैवाहिक सम्बन्ध और दूसरा, शरीरिक सम्बन्ध। चूँकि इमराना का ससुर उसके साथ शारीरिक-सम्बन्ध बना चुका था, इसलिए शरीयत के अनुसार वो अपने शौहर के लिए हराम हो गई। उसका शौहर अब उसका पुत्र है। एक औरत अपने ससुर की बीवी बनेगी या अपने शौहर की माँ, इसका फैसला शरीयत के रखवाले करते हैं। वही शरीयत, जिसका प्रचार करते हुए ‘द क्विंट’ ‘असली शरीयत’ का जिक्र भी नहीं करता।
‘द क्विंट’ बड़ी ही सफाई से बताता है कि शरीयत कानून का विकास पैगम्बर मोहम्मद की वफात (मृत्यु) के सैकड़ों सालों बाद 632 ईस्वी में हुआ, लेकिन वो ये नहीं बताता कि शरीयत कानून बनाने वाले ‘लोग’ कौन थे और इसको मानने वालों की तादात कितनी है।
दरअसल पैगम्बर की वफ़ात के बाद दौर आया उनके सहाबियों (साथियों) का। इन्होंने जिस तरह पैगम्बर को देखा था, उसी तरह से रहते थे। सहाबियों का जमाना खत्म हुआ तो दौर आया आलिमों का।
इन आलिमों ने ही कुरान को आधार बनाकर अपने समाज के लिए नियम और क़ानून बनाए। ये नियम बनाने वाले चार इमाम थे- इमाम अबु हनीफा, इमाम मालिक, इमाम साफई और इमाम अहमद बिन हंबल। शियाओं को छोड़ दें तो सभी मुस्लिम इन्हों चारों इमामों और उनके बनाए कानूनों को मानने वाले हैं। इन इमामों के फॉलोअर्स ही ‘अहले सुन्नत’ यानी सुन्नी कहलाते हैं।
मुस्लिम समुदाय में 80 से 85% आबादी सुन्नियों की है, जो शरीयत कानूनों को मानने वाले हैं। भले ही वो किसी भी लोकतांत्रिक देश में रहते हों। जिस मध्ययुगीन बर्बर कानून को मानने वाले इतनी बड़ी तादात में मौजूद हैं, उसको ‘द क्विंट’ ये बड़ी ही कुटिलता से अपराधियों को ‘उचित’ सजा देने वाले ‘कानून’ के रूप में प्रचारित करता है और ये जाहिर करने की कोशिश करता है कि तालिबान का ‘शरीयत’ मानने वाले ‘कुछ’ ‘उच्च मज़हबी’ लोग हैं।
‘द क्विंट’ ये नहीं बताता कि इसी शरीयत कानून के तहत पाकिस्तान में एकमात्र ईसाई मंत्री शाहबाज भट्टी की जान ले ली गई थी। उनका अपराध बलात्कार, चोरी ,हत्या या यौनाचार नहीं था, बल्कि उनका अपराध ये था कि वो अल्पसंख्यको की आवाज़ उठाते थे। इन्ही शरीयत कानूनों के उल्लंघन के आरोप में पँजाब प्रान्त के गवर्नर सलमान तासीर को सरे आम गोलियों से भून दिया गया था। उनका कुसूर ये था कि उन्होंने ‘ईश निंदा’ का आरोप झेल रही ईसाई महिला आसिया बीबी को माफी देने की बात कह दी थी।
इसी कानून के तहत काबुल की 27 साल की लड़की फरखुंदा मलिकजादा की शरीयत के रखवालों ने सरेआम पत्थर मार मार कर हत्या कर दी थी। शाहबाज भट्टी, सलमान तासीर या फरखुंदा मलिकजादा इस बर्बर कानून का शिकार होने वाले अकेले लोग नहीं थे।
शरीयत कानून बदलने की माँग या इसमें हस्तक्षेप की कोशिश करने वाले अनगिनत लोग बर्बरता से मौत के घाट उतार दिए गए। यहाँ कहीं तालिबान नहीं था, ये हत्याएँ भी तालिबान ने नहीं कीं।
ये अनगिनत हत्याएँ की गईं, शरीयत की रखवाली करने वाले आम मुस्लिमों द्वारा। उसी ‘शरीयत’ के रखवालों ने, जिसे ‘द क्विंट’ ‘तालिबान की शरीयत’ से अलग दिखाने की कु-चेष्टा करता है। शरीयत कानूनों में जिस तरह की सामाजिक संरचना और मध्य-युगीन कबीलाई सिस्टम है, वो आधुनिक समाज और इंसानियत के दायरे में कहीं भी फिट नहीं बैठता।
तालिबान के शरीयत कानूनों को ‘असली शरीयत’ का एक छोटा सा हिस्सा बताकर ‘शरीयत कानूनों’ का बचाव और प्रचार करने की ‘द क्विंट’ की बेशर्म कोशिश बेहद बचकानी हैं।
वास्तविकता यह है कि ‘द क्विंट’ की ‘तालिबानी शरीयत’ और कथित ‘वास्तविक शरीयत’ में कोई फर्क नहीं हैं। दोनों ही ‘एक’ और बर्बर है और इन बर्बर कानूनों का समर्थन करने वाली एक वैश्विक और पैशाचिक भीड़ दुनिया भर में मौजूद है, जो इन कानूनों के नाम पर किसी की हत्या करने में संकोच नहीं करती।
ऐसे बर्बर कानून का सभ्य समाज मे कोई स्थान नहीं है। और हाँ इमराना के ससुर अली मोहम्मद को लोकतान्त्रिक कानूनों के तहत भारतीय न्यायपालिका ने 10 साल की सजा सुनाई थी, ‘शरीयत कानून’ तो उसे उसके ससुर की बीवी बनाते हैं, ‘द क्विंट’ ने भी शायद ये खबर छापी हो।