शिवसेना प्रकरण: बंद मुट्‌ठी लाख की, खुली तो प्यारे खाक की

23 जून, 2022 By: विजय मनोहर तिवारी
सिंह के किसी न किसी शावक को तो गर्जना करनी ही थी। यह काम एकनाथ शिंदे ने कर दिया। विजय मनोहर तिवारी का लेख।

मुंबई की खूँटी पर ढाई साल पहले सत्ता के सियासी सामान की तीन पोटलियाँ टाँगी गई थीं। इनका जिस तरह से गिरकर बिखरना तय था, बिल्कुल वैसा ही हुआ। पोटलियाँ मुंबई में गिरीं। आवाज सूरत और गुवाहाटी से आई। 

शिवसेना, कॉन्ग्रेस और एनसीपी के बीच किसी भी किस्म का तालमेल बाला साहेब ठाकरे के जीवित रहते एक असंभव सी घटना थी, वह भी मातोश्री के मूल निवासी की एक शपथ भर के लिए। तीनों के बीच यह एक अप्राकृतिक संबंध था, जो बस बन गया था। 

बाला साहेब ने शिवसेना को हिंदुत्व के जिस वैचारिक धरातल पर खड़ा किया, उसकी ऊर्जा का केंद्र हिंदवी स्वराज के संस्थापक महान् छत्रपति शिवाजी थे और कोई यह कल्पना नहीं कर सकता कि मुगलों के समय सहयाद्री के जंगल-पहाड़ों का यह साहसी सिंह कभी अपने आसपास गुर्राने वाले लकड़बग्घों और लोमड़ियों के झुंड से कोई समझौता करेगा।

न छत्रपति के बारे में कोई यह कल्पना कर सकता है और न ही बाला साहेब के बारे में। छत्रपति ने किसी नाजुक समय में मुगलों से संधि की भी तो वह मुगलों के लिए उनकी अगली घातक घात ही सिद्ध हुई, न कि सिंहासन पर टिकने की कोई तात्कालिक सुविधा।

छत्रपति शिवाजी आज इतिहास हैं, गर्जना करता हुआ सिंह शिवसेना के ध्वज पर है और बाला साहेब पंचतत्व में विलीन हो चुके हैं। उनके अवसान के इतने कम समय में ही उद्धव ने शिवसेना का उद्धार कर दिया है।

शौक पूरा करने के लिए ढाई साल की खातिर एक शपथ वे बीजेपी के साथ भी ले सकते थे। जरूर कोई जोरदार खुन्नस ही रही होगी, जो वे दिल्ली को सबक सिखाने की मुद्रा में मुंबई में अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते देखे गए।

कॉन्ग्रेस और एनसीपी के साथ सरकार बनाना शिवसेना के लिए आत्मघाती निर्णय था। लेकिन फोटोग्राफी के शौकीन उद्धव ठाकरे पता नहीं अपना सियासी कैमरा किस एंगल पर फिट किए बैठे थे। वही हुआ, जो होना था। 

बाला साहेब की बंद मुट्‌ठी इसलिए लाख नहीं, करोड़ों की रही क्योंकि वे कभी राजभवन में स्वयं की शपथ के लिए नहीं गए। वे मातोश्री के सिंहासन पर रुद्राक्ष की माला और धूप का चश्मा लगाए अपनी लोक लुभावन मुद्रा में पाइप पीते रहे।

मुद्दे की बात पर बिना लागलपेट अपनी बात कहने की मौलिकता मातोश्री में आज किसी के पास नहीं है। अगर उद्धव अपने पुत्र आदित्य सहित उन जैसा आकर्षक धैर्य दिखा पाते तो शिवसेना पर उनकी बपौती एकाध पीढ़ी तक और सम्मानपूर्वक खिंच जाती।

उनका वजन कम नहीं, ज्यादा ही होता और आम आज्ञाकारी शिवसैनिकों की नजर में वे बाला साहेब के असल उत्तराधिकारी बने रहते। अब वे विरासत पर अपना उत्तराधिकार खो चुके हैं। 

उद्धव की शपथ हिंदुत्व को हाशिए पर रखने की शर्त पर ही हुई। महाविकास अघाड़ी अपनी ही नींव खोदकर ऊँची इमारत बनाने का महामौलिक महाप्रयोग था। उनके सिपहसालार संजय राऊत के बयान इस बीच जब-जब भी सुने गए, वे शहर के एक ऐसे बिगड़ैल नवधनाढ्य की तरह उथले नजर आए, जिसे अचानक बड़ी दौलत मिल गई हो और जिसका नशा सिर चढ़कर बोलता हो।

राजनीति में ऐसे ऊँचे और ओछे बोल वैसे भी अशोभनीय हैं, खासकर तब तो और भी ज्यादा विनम्र होने की जरूरत है जब आप स्वयं रेतीली जमीन पर खड़े हों। दाँत और नाखून दिखाने के ही नहीं होते, यदाकदा उन्हें चमकाना भी पड़ता है।

बाला साहेब ठाकरे के रहते उनके बेखौफ विचार सामना में छपते रहे थे और शिवसेना के इस लोकप्रिय मुखपत्र का पाठक वर्ग मुंबई के बाहर पूरे महाराष्ट्र में भी नहीं होगा मगर ठाकरे ने क्या कहा, यह सामना की क्रेडिट लाइन के साथ देश के हर भाषा के अखबार की बड़ी खबर होती थी। अब शिवसेना का सामना पहली बार स्वयं से हुआ है।

शिवसेना के मुख्यालय में दहाड़ते हए सिंह का प्रतीक पहली बार शर्मिंदगी का सामना कर रहा है और उसे इस नौबत में लाने का श्रेय रथ पर विराजमान प्रमुख योद्धा को चला गया है। मुंबई में मातोश्री से लेकर दिल्ली में जनपथ और लखनऊ तक देखिए, युवराजों के हाथों में सियासी साम्राज्य कहीं सुरक्षित नहीं बचे हैं। 

सोशल मीडिया पर चल पड़ा है कि शिवसेना के 40 विधायक अगवा नहीं हुए हैं, वे वापस भगवा हुए हैं। शिवसेना का सेक्युलर संस्करण, बिना दाँत और बिना नाखून वाले लाचार सिंह जैसा था, जो लकड़बग्घों और लोमड़ियों का टेका लेकर जंगल में राज के वहम में बस दुम दबाकर बैठ गया था। सर्कस ढाई साल चला। दर्शक तो बस इस घड़ी का इंतजार ही कर रहे थे। 

सिंह के किसी न किसी शावक को तो गर्जना करनी ही थी। यह काम एकनाथ शिंदे ने कर दिया। जरा शिंदे जैसे उन शिवसैनिकों के बारे में सोचिए। उनके घरों और दफ्तरों में बाला साहेब की एक अदद तस्वीर जरूर टँगी होगी, जिससे उनका रोज आते-जाते सामना होता होगा। क्या वे हिंदू ह्दय सम्राट से दृष्टि मिला पाते होंगे? 

अगर बाला साहेब के जीवित रहते उद्धव ने ऐसा किया होता तो वे व्हील चेअर पर मातोश्री की बाल्कनी में राज ठाकरे का हाथ अपने हाथ में ऊपर करते हुए दिखाई देते। यह निश्चित है कि उत्तराधिकार के अपने निर्णय पर वे पुनर्विचार अवश्य करते। सच मायने में राज ठाकरे ही उनकी वैचारिक विरासत के योग्य उत्तराधिकारी हैं।

उनकी ऊर्जा का सही उपयोग नहीं हो पाया और ऊर्जाविहीन उद्धव ने पचास साल की पूँजी को सेक्युलर अवसरवादियों के झुंड में बैठकर लुटा दिया।

हम नहीं जानते कि हाल ही में हनुमान चालीसा की ताजा गूँज में हिंदुत्व की ध्वजा थामे दिखाई दिए राज साहेब ठाकरे सूरत और गुवाहाटी से उड़कर आ रही हेडलाइंस को पढ़ते हुए महाराष्ट्र की राजनीतिक बिसात पर स्वयं को आने वाले कल में कहाँ देख रहे होंगे? 

महाविकास उघाड़ी के तीनों प्रमुख दलों में एक समानता स्पष्ट है। तीनों ही घोर परिवारवादी पार्टियाँ हैं। शिवसेना और एनसीपी में दूसरी पीढ़ी गल्ले पर बैठी है और नाममात्र की राष्ट्रीय पार्टी कॉन्ग्रेस की चौथी पीढ़ी बची खुची सियासी खुरचन को खरोंच रही है।

शरद पवार की पारी बहुत लंबी रही है और मुंबई से लेकर दिल्ली तक वे बड़ी कुर्सियों पर रहे हैं। राज्य के बाहर उनकी छवि जोड़तोड़ के जादूगर की ही रही है।

लालू और मुलायम की मॉडल स्टोरी का सार उन पर भी लागू होगा कि लंबी उम्र उन्हें सियासी उठापटक के दृश्यों में टिकाए कब तक भी रखे, आज की जनता की अपेक्षाओं पर वे खरे नहीं हैं। नजरों से उतरी हुई फिल्मों के पोस्टर भी दीवारों पर चिपके हुए दशकों तक झड़ते रहते हैं।

शिवसेना के पायजामे से नाड़ा निकल चुका है। महाविकास अघाड़ी को अब महाविकास उघाड़ी कहना समय की आवश्यकता है। बाला साहेब की बंद मुट्‌ठी उद्धव ने तबियत से खोलकर रख दी है। आदित्य के तो बिल्कुल ही खाली हाथ रहने का खतरा है।



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