देश भर में कड़ाके की ठंड पड़ रही है, लेकिन उत्तर प्रदेश में फैली चुनावी गर्माहट, सर्दी पर भारी पड़ रही है। चुनावी तारीखों की घोषणा के साथ ही सियासी गोटियाँ फिट की जा रही है। राजनीतिक दलों द्वारा उम्मीदवारों की लिस्ट भी जारी की जा रही है। बसपा की लिस्ट तो स्पष्ट रूप से बता रही है कि उसे मुस्लिम वोटों की कितनी दरकार है। उत्तर प्रदेश में सपा के साथ मुस्लिम वोट खुलकर लामबंद होता दिख रहा है।
हाल ही में यूपी प्रदेश कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष ने हिंदुओं के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने वाले मौलाना तौकीर रजा खान को पार्टी में शामिल कर मुस्लिम वोटों में सेंधमारी करने की एक बड़ी कोशिश की है। तौकीर रजा खान ने भी कॉन्ग्रेस का दामन पकड़ते ही, मुस्लिमों से कॉन्ग्रेस के पक्ष में वोटिंग करने की अपील कर दी। हालाँकि, इस अपील का बहुत ज्यादा असर मुसलमानों के बीच होगा, इसकी संभावना कम है। यूपी का मुसलमान साफ तौर पर समाजवादी पार्टी के पक्ष में लामबंद दिख रहा है।
इस बार अखिलेश बहुत सावधानी से चालें चल रहे हैं। मुस्लिम समुदाय के लोग सपा की रैलियों में गोल-जालीदार टोपी के बजाय, पार्टी की लाल टोपी पहने कर शामिल होबरहे हैं। अखिलेश ने भी अभी तक किसी भी चुनावी रैली या प्रेस कॉन्फ्रेस में ऐसा कोई बयान नहीं दिया, जिससे ये एहसास हो कि वो मुस्लिमों के सहारे चुनाव मैदान में उतरे हैं। लेकिन मुसलमान जानता है कि उनके ‘अधिकार’ किसके राज में सुरक्षित हैं।
ऐसे में सिर्फ एक पार्टी भाजपा ही है, जो हिंदुओं की बात कर रही है। कितनी अजीब बात है कि भाजपा पूरे देश मे एकमात्र ऐसी राष्ट्रीय पार्टी है, जो बहुसंख्यक हिन्दू समाज के वोटों के सहारे चुनावी मैदान में उतरती है, मगर फिर किसी भी हिन्दू बहुसंख्यक राज्य में वो अपनी इकतरफा जीत का दावा नहीं कर सकती। 1971 में स्थापित श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जनसंघ की जड़ों से निकली भाजपा के लिए हिन्दू और हिंदुत्व हमेशा से प्राथमिक मुद्दा रहा है।
भाजपा की स्थापना का मूल उद्देश्य ही नेहरू की मुस्लिम परस्त नीतियों का विरोध और हिंदुओ का सामाजिक उत्थान था। हाँ, स्थापना के वक्त हिंदुत्व का एजेंडा भाजपा के लिए धार्मिक न होकर एक सामाजिक मुद्दा भर था। लेकिन सामाजिक ही सही, हिंदुत्व की बात करने वाले भाजपा के शीर्ष नेता अटल बिहारी बाजपेयी 1984 के आम चुनाव में 2 लाख वोटों के भारी अंतर से हार गए। इस अपमानजनक हार ने भाजपा को प्रखर हिंदुत्व की राह पर मोड़ दिया।
लालकृष्ण आडवाणी ‘प्रखर हिंदुत्व’ के पोस्टर ब्वॉय के रूप में उभरे। आडवाणी जी की रथयात्रा ने ही देश में पहली भाजपा सरकार की नींव तैयार की थी। प्रखर हिंदुत्व की राह पकड़ते ही हर चुनाव में भाजपा की सीटें बढ़ती गई और अंततः 1996 के आम चुनाव में 161 सीटें जीतकर कर देश मे पहली बार सही मायनों में हिंदुओं की सरकार बनी। लेकिन ‘हिंदुत्व के रथ’ पर सवार होकर सत्ता में आई भाजपा को, इस हिन्दू बहुल देश मे, अगले चुनाव में सत्ता से बाहर बैठना पड़ा। हिंदुत्व और शाइनिंग इंडिया पर 100 रुपए किलो का प्याज़ भारी पड़ गया।
अटल जी की सफलता को छोड़ दें तो 60 साल तक कुर्ता पजामा पहन के भाजपा के नेता रोते रहे कि हम हिन्दुओं की बात करते हैं लेकिन हिंदू तो जाति देखकर पार्टियों को वोट देता है। भाजपा समर्थक भी किसी राज्य में भाजपा की हार पर हिंदुओं के जात-पात में बंटे होने की दुहाई देते हैं। लम्बे समय तक भाजपा की असफलता और सेकुलर दलों की सफलता ये संदेश देती रही कि देश के हिंदुओं को ‘प्रखर हिन्दुत्व’ रास नहीं आता।
फिर गुजरात से निकलकर एक ‘प्रखर हिंदुत्व’ की छवि वाले नेता हिंदू नरेंद्र दामोदरदास मोदी उभरते हैं। वो केंद्र की राजनीति में आए और गुजरात की तरह ही देश भर के हिंदू जाति, भाषा, क्षेत्र भूलकर उन पर न्योछावर हो गए। 2014 में चुनाव लड़ते वक्त उनकी छवि एक प्रखर हिंदूवादी और विकास पुरुष मुख्यमंत्री की थी, लेकिन उसके बाद भी वो लगातार भाजपा का चुनावी रथ अपने दम पर आगे बढ़ते रहे और हिन्दू लगातार जात-पात भूलकर उन पर न्योछावर होता रहा।
ऐसा क्या किया है नरेंद्र मोदी ने..? दरअसल मोदी इस बात को जानते, समझते थे कि एक गरीब हिन्दू सुबह भगवा फहराने के बाद दिन भर मजदूरी भी करता है और शाम को अपनी जेब टटोलता है कि घर का चूल्हा जलेगा या नहीं? बच्चे खाली पेट तो नहीं सोएँगे। मोदी समझते हैं कि बीवी-बच्चों का पेट खाली हो तो हिन्दुत्व उबाल नही मारता। हिन्दू होना क्या है? आप सत्यनिष्ठ रहें, आचरण से हिंदू बनें, किसी का शोषण न करें, बस हिन्दू होने के लिए इतना ही आवश्यक है। मोदी चुनाव को भावनात्मक लड़ाई लड़ाई बनाने में ‘मास्टर’ हैं, पक्ष-विपक्ष के अन्य नेता अभी इसमें बहुत पीछे है।
प्रखर हिन्दुत्व की छवि वाले नरेंद्र मोदी ने हिंदुत्व से पहले आम हिन्दुओं की की जरूरतें समझीं और उन्हें पूरा किया। उज्ज्वला गैस योजना, शौचालय, आवास और मुफ्त राशन जैसी तमाम योजनाएँ थीं, जिन्होंने सबसे निचले स्तर के लोगों तक मोदी को पहुँचाया। केंद्र सरकार की ऐसी तमाम योजनाएँ है, जो लोगों की जुबान पर रची बसी हुई हैं। मोदी ने हिंदुओं के धार्मिक और सामाजिक संयुक्त उत्थान से ऐसी छवि बनाई है कि 2024 के आम चुनाव में भी उनके मुकाबले विपक्ष का एक नेता नहीं टिक सकता।
2022 के विधानसभा चुनावों के लिए उत्तर प्रदेश की बागडोर भी एक प्रखर हिंदूवादी नेता, योगी जी के हाथ में हैं। जमीनी हकीकत ये है कि यूपी का चुनाव सिर्फ भाजपा और समाजवादी के बीच है। मुख्यतः योगी जी और अखिलेश के चेहरे पर। 2012 में अखिलेश जब मुख्यमंत्री बने थे, तो वो चुनाव उनके चेहरे पर नहीं लड़ा गया था। ठीक इसी तरह योगी आदित्यनाथ भी जब 2017 में मुख्यमंत्री बने थे, तो वो चुनाव भी उनके चेहरे पर नहीं लड़ा गया था।
दोनों का ही अपने चेहरे पर ये पहला चुनाव है। आम लोगों के बीच योगी जी जहाँ आज भी प्रखर हिन्दुत्व का चेहरा हैं, वही अखिलेश ने इस चुनाव में अपनी मुस्लिम परस्ती और सिर्फ यादवों का नेता होने की छवि से बाहर निकालने का प्रयास किया है। हालाँकि, ये छवि अभी भी आम लोगों के बीच कायम है। लाख विरोध के बावजूद भी अखिलेश की छवि भाजपा समर्थक लोगों के बीच ‘विकास पुरुष’ की है। उनके कार्यकाल में किए कार्य लोगों को उँगलियों पर याद है, जबकि योगी की विकास योजनाएँ गिनने के लिए लोगों को अखबार टटोलना पड़ता है।
ऐसा नहीं है कि योगी जी विकास कार्य नहीं कर पाए। लेकिन मुख्य चीज़ जो है, वो आम लोगों तक पहुँच। योगी अपनी प्रखर हिंदूवादी छवि तो आम लोगों तक पहुँचाने में तो सफल रहे, लेकिन उनकी योजनाएँ आम लोगों के दिमाग मे उतनी आसानी से नहीं असर कर पाईं। मार्केटिंग एक महत्वपूर्ण तथ्य है, जिसमें योगी से ज्यादा मोदी की छवि उभरी। प्रदेश सरकार की लगभग सभी योजनाएँ आम लोगों के बीच ‘योगी-मोदी’ की योजनाएँ हैं। हालाँकि, भाजपा भी इन्हें डबल इंजन की सरकार की उपलब्धियाँ बताकर ही प्रचारित कर रही है।
विकास योजनाओं ले लेकर योगी जी की ‘स्वतंत्र छवि’ न बन पाना इस चुनाव में भाजपा के लिए एक नकारात्मक फैक्टर है। इसी फैक्टर ने अखिलेश यादव को योगी के सामने सीधी लड़ाई में बना रखा है। राम मन्दिर जैसे हिंदुत्ववादी मुद्दे पर भी आम लोगों का क्रेडिट योगी के बजाय मोदी को को जाता है। कानून व्यवस्था और प्रखर हिंदूवादी छवि के अलावा ऐसा कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, जिसके दम पर योगी जी आम लोगों के दिल मे हिट करते हों। योगी अभी तक प्रधानमंत्री मोदी की छवि से बाहर नही निकल पाए, या निकलने नहीं दिया गया। शायद भाजपा अभी भी मोदी के चेहरे पर ही हर चुनाव लड़ना चाहती है।
ग्राउंड रिपोर्ट में भी, जो लोग योगी जी को वोट देने को लेकर असमंजस में हैं, वो नरेंद्र मोदी के अलावा किसी और वोट देने की सोचते भी नहीं। मोदी और योगी दोनों ही प्रखर हिंदुत्व के चेहरे हैं, दोनों ही भाजपा के नेता है, भले ही अलग अलग पद पर हैं, लेकिन दोनों के बीच का सबसे बड़ा अंतर यही कि मोदी जी जहाँ आज सिर्फ आम लोगों के प्रधानमंत्री हैं, वहीं योगी जी एक प्रखर हिंदुत्ववादी मुख्यमंत्री। यही अंतर है, जो इस चुनाव अखिलेश यादव को योगी आदित्यनाथ के सामने विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा बनाता है।
हिन्दू अन्य सभी धर्मों से अलग है। इसे स्थापित नहीं किया गया, इसे किसी ने बनाया नहीं है, इसका कोई रोडमैप नहीं है। हिंदुत्व स्वतंत्रता है। हिन्दू स्वभाव से धार्मिक नहीं हों सकता। सामाजिक जिम्मेदारियाँ, सामाजिक और पारिवारिक विकास उसके लिए पहले है, धर्म बाद में। यह हिंदुओं के डीएनए में है, इसे आप बदल नहीं सकते। यही वो फैक्टर है, जिसके चलते भाजपा दावे के साथ नहीं कह सकती कि यूपी में अगली सरकार उनकी ही बनने जा रही है।
सत्यनिष्ठ रहे, किसी का शोषण न करे, राजनीति से किसी कैरियर की आशा न करें, अर्थलाभ की आशा नहीं करें, यश की आशा न करें, श्रेय की इच्छा न करें, ये भी इच्छा नहीं करेंगे कि कोई हमारे अस्तित्व को भी जाने, तब, और केवल तभी आप ‘ आम हिन्दुओं के दिलों’ में जगह बना पाएँगे। तब ही आपको सही मायनों में हिंदुओं का नेता माना जाएगा, तभी आपको हिन्दू जात-पात भूलकर दीर्घकालिक समर्थन देगा और तब आप सदैव विजयी होंगे, क्योंकि हिन्दू ऐसे ही होते हैं, वो ऐसे ही थे और ऐसे ही रहेंगे। सौभाग्य से योगी में ये सब खूबियाँ मौजूद हैं, जो कुछ नकारात्मक प्रभावों के बाद भी भाजपा की वापसी की संभावनाएँ प्रबल करती हैं।