हाल ही में उत्तर प्रदेश में भाजपा के कुछ पूर्व नेताओं, विधायकों ने पार्टी छोड़ी और इन लोगों ने समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ने का निर्णय लिया। इन बागी नेताओं ने विभिन्न आरोप लगाए जैसे कि पार्टी लोगों के हितों की चिंता नहीं करती दलित विरोधी है, किसान विरोधी है।
इस सब के बीच महत्वपूर्ण बात यह थी कि इन सभी को 5 वर्ष भाजपा में रहने, कईयों को मंत्री पद पर रहने के बाद चुनावों से ठीक पहले अचानक यह याद आता है कि यह पार्टी तो सही नहीं है उन्हें दूसरी पार्टी में जाने की आवश्यकता है।
इन नेताओं में कुछ प्रमुख नाम थे स्वामी प्रसाद मौर्य और भाजपा के साथ जुड़े सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर।
पहले इन कुछ नेताओं के बारे में जान लेते हैं कि इनका राजनीतिक रिपोर्ट कार्ड क्या था? भाजपा में आने से पहले इनकी स्थिति क्या थी और उनकी वर्तमान स्थिति।
स्वामी प्रसाद मौर्य स्वयं को मौर्य समाज और पिछड़ों का नेता बताते हैं हालाँकि मौर्य समाज ने आजतक कोई ऐसा संकेत नहीं दिया है जिससे इस बात की पुष्टि हो कि स्वामी प्रसाद उनके नेता हैं।
स्वामी प्रसाद 1995 तक जनता दल में थे, वर्ष 2002 में बसपा के टिकट से डलमऊ से चुनाव लड़े और जीते, जिसके बाद उत्तर प्रदेश में मंत्री बन गए। वर्ष 2007 में चुनाव हार गए परन्तु बसपा में तब तक ऐसी पैठ जमा ली थी कि हारने के बाद भी मंत्रिमंडल में बने रहे।
बसपा में एक लम्बा कालखंड बिताने के बाद मौर्य ने पार्टी छोड़ दी वर्ष 2017 में जब मौर्या ने भाजपा और नरेंद्र मोदी की लहर देखी तो पार्टी बदल कर भाजपा में आ गए और वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश के भाजपा मंत्रिमंडल में भी शामिल हो गए।
5 वर्षों तक मंत्री पद पर बने रहने और सत्ता सुख भोगने के बाद मौर्य को वर्ष 2022 विधानसभा चुनावों से ठीक पहले याद आया कि भाजपा में उनका शोषण हो रहा है और उन्होंने पार्टी छोड़कर समाजवादी पार्टी में जाने का निर्णय लिया।
बसपा छोड़ते समय स्वामी ने कहा था कि अब उन्हें पार्टी में घुटन होने लगी है यह पार्टी टिकट बेचती है जिसमें मायावती खुद टिकट नीलाम करती हैं। मायावती को ओबीसी और दलितों का वोट चाहिए पर वह उन्हें पद नहीं देती है।
हालाँकि मायावती ने उस समय कहा था कि अच्छा हुआ स्वामी प्रसाद मौर्य ने खुद ही पार्टी छोड़ दी वरना वे उन्हें स्वयं निकालने वाली थीं।
अब आते हैं सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ओमप्रकाश राजभर पर। वर्ष 2002 में यह पार्टी बनती है और ओमप्रकाश राजभर पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजभर समुदाय के नेता होने का दावा करते हैं।
हालाँकि ओबीसी और दलितों के नेता होने का दावा करने वाले ओमप्रकाश आजकल साक्षात्कार में कहते देखते हैं कि किसी नेता को अगर गर्त में डालना हो तो उसे दिव्यांग और पिछड़ा विभाग दे दिया जाता है।
राजभर और उनकी पार्टी का इतिहास है कि वर्ष 2017 में भाजपा में आने से पहले मैं अपने दम पर कहीं चुनाव नहीं जीते हैं। ये वर्ष 2017 में भाजपा के साथ गठबंधन में आए थे और 2017 से 2019 तक योगी सरकार के मिनिस्ट्री ऑफ सोशल जस्टिस एंड एंपावरमेंट के मंत्री रहे। उन्हें गठबंधन के विरुद्ध जाने और पार्टी विरोधी गतिविधियों के चलते वर्ष 2019 में मंत्रालय से हटा दिया गया।
अब 2022 के चुनावों से पहले वे भी सपा के साथ जुड़ गए हैं और दावा कर रहे हैं कि अखिलेश यादव उनका साथ देंगे।
अब इस पूरे जुड़ाव-घटाव के बीच मीडिया सोशल मीडिया पर यह नरेटिव चलाया गया कि देखो सब भाजपा छोड़ छोड़कर जा रहे हैं और भाजपा का नेतृत्व गलत है।
जबकि असल में स्थिति इसकी बिलकुल विपरीत है, शीर्ष नेतृत्व से जनता खुश है, थोड़ी बहुत जगह स्थानीय विधायकों और नेताओं से लोगों को भले ही शिकायतें हों।
ऐसा नहीं है कि इस चीज़ को पार्टी ने जनता के इस मूड का संज्ञान नहीं लिया है। भाजपा ने इसे लेकर राज्य में 5 सर्वे कराए। 2 पार्टी की लहर को जानने के लिए। यानी पहले दो सर्वे मैं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री की तरह आँकलन और राज्य में पार्टी के प्रदर्शन को लेकर आँकड़े जुटाए गए, और बाकी के 3 स्थानीय नेतृत्व या कह सकते हैं विधायकों का रिपोर्ट कार्ड बनाने के लिए।
इसी सर्वे से आए आँकड़ों के आधार पर कई विधायकों को लेकर पार्टी के पास पहले ही सूचना थी और पार्टी ने लगभग खुद 100 लोगों की टिकट काटने वाली थी।
जैसा कि हमने पहली लिस्ट में देखा, लगभग 20 लोगों का टिकट कटा है।
इस सूची में कई स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे भी विधायक रहे होंगे। असल में इन लोगों को खुद इस बात की भनक थी किन का टिकट कटने वाला है।
जैसा कि हमने स्वामी प्रसाद मौर्य के 2016 के बसपा छोड़ने वाले कृत्य में देखा कि उसके बाद मायावती खुद आगे कहती हैं कि अच्छा हुआ छोड़ दिया वरना तो वे खुद ही निकालने वाली थी। यही हाल स्वामी का भाजपा में होना था इनका टिकट कटने वाला था और यह इससे पहले ही लाज बचा कर भागे हैं।
अब आती है बात की जनता या जिस समाज का यह लोग नेतृत्व करने का दावा करते हैं वह कितना इनके साथ खड़ा है।
जनता के समर्थन की अगर बात करें तो आप ओमप्रकाश राजभर जी का वर्ष 2017 से पहले का राजनीतिक कैरियर देख लिया जाए। उनको और उनकी पार्टी को कहाँ कितना वोट मिला है और जनता कितनी उनके साथ है वह साफ हो जाएगा।
2017 में इनकी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भाजपा के साथ आती है 8 सीटों पर चुनाव लड़ते हैं जिनमें ये 4 सीट जीतते हैं। इससे पहले का इतिहास- 2012 में इनकी पार्टी 52 सीटों पर लड़ी थी सब पर हार गई कई सीटों पर ज़मानत तक ज़ब्त हुई। ऐसे ही 2007 में 97 सीटों पर लड़ रहे थे उसमें भी सारी हारे थे, और ज़मानत तक बचाने में विफल रहे थे।
2017 में जब इन्हें भाजपा के साथ जाने पर 4 सीटें मिलती हैं जिससे यह साफ हो जाता है कि इन्हें जो वोट पड़ा असल में वो ओम प्रकाश को नहीं बल्कि कमल के छाप को पड़ा था।
दूसरे स्वामी प्रसाद मौर्य, उनका पहले भी वही तर्क था जो अब है। कहते हैं कि भाजपा दलित विरोधी है, किसान विरोधी है। बसपा छोड़ते समय भी यही बोले थे, हाँ उस समय एक अतिरिक्त आरोप यह भी लगाया था कि बसपा टिकट बेचती, जो कि कोई नया आरोप नहीं है।
ये आरोप बसपा पर कई बार लगे हैं। अभी हाल ही में अरशद राणा नाम के नेता मुजफ्फरनगर कोतवाली में जाकर रो रहे थे। उनका कहना था कि बसपा नेताओं ने उनसे 67 लाख रुपए घूस ले ली तब भी उनको टिकट नहीं दी तो यह मुद्दा तो कोई नया नहीं है।
रही बात भाजपा के दलित विरोधी और किसान विरोधी होने की, तो आँकड़े उठाकर देखे जाएँ तो यह साफ़ होगा कि उत्तर प्रदेश में ही नहीं पूरे देश में जितना दलितों के लिए भाजपा ने किया है, इतना किसी कथित दलितों के रक्षक पार्टी ने नहीं किया।
प्रधानमंत्री आवास योजना में ही देशभर में लगभग 8.5 करोड़ से ज्यादा घर दिए गए हैं अब तक, जिनमें से लगभग 6.5 करोड़ केवल दलितों को दिए गए हैं।
वर्ष 2020 में नवीन रोजगार छतरी योजना के तहत अनुसूचित जाति के लोगों के लगभग 3.5 हजार लोगों के खाते में 17 करोड़ों रुपए से अधिक जमा कराए गए थे, स्थानीय छोटे स्तर के व्यवसाय शुरू करने के लिए।
अब आते हैं किसान विरोधी आरोप पर। पश्चिम उत्तर प्रदेश में गन्ने का भुगतान एक बड़ा मुद्दा रहता है, पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों से पूछा जाए कि पर्ची समय से मिलना, पेमेंट समय से होना भाजपा शासन में बढ़िया हुआ या सपा या बसपा शासन में बढ़िया था?
इस पर आँकड़े क्या कहते हैं?
10 वर्षों के बसपा समाजवादी कार्यकाल में 95 हजार करोड़ का गन्ने का भुगतान होता है और योगी सरकार में केवल 5 वर्षों में 1 लाख 50 हज़ार करोड़ से आदिक का भुगतान करती है। और ये आँकड़े तब हैं जब पिछले 2 वर्षों से देश में चीनी वायरस कोरोना महामारी फैलाए हुए है।
योगी सरकार में गन्ने का मूल्य दो बार बढ़ा है, एक बार 2018 में 10 रुपए और अभी पिछले वर्ष 2021 में।
केंद्र के एमएसएमई मंत्रालय के साथ मिलकर एससी-एसटी हब योजना जैसी कई स्कीम चलाई गई हैं।
असल में अनुसूचित जाति के विकास के लिए किसी ने अगर कार्य किया है तो योगी सरकार ने ही किया है, बाकी सरकारें केवल इस समुदाय को एक वोट की तरह ही देखती रही हैं।
जहाँ बात आती है किसी समुदाय को सामाजिक स्तर पर अपलिफ्टमेंट यानी उसके उठान उत्थान तो उसमें हमने देखा कि चाहे काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के बाद प्रधानमंत्री का वहाँ मौजूद मजदूरों-दलितों पर फूल बरसाना हो, कुर्सी हटाकर उनके साथ एक मंच पर बैठना, ये सभी छोटे-छोटे कृत्य समाज के तौर पर बहुत बड़े संदेश देते हैं।
पिछली बार जब काशी में प्रधानमंत्री ने अनुसूचित जाति के लोगों के पैर धोए थे तब इन लोगों के ये तर्क थे कि यह तो फोटो खिंचवाने के लिए हो रहा है, नौटंकी है।
योगी आदित्यनाथ गोरखपुर में संक्रांति के त्यौहार पर दलितों के भोज में जाते हैं तब भी वही कुतर्क कि वोटों के लिए कर रहे हैं, जबकि गोरखपुर में ये समारोह एक लम्बे समय से हो रहा है।
देखा जाए तो उस क्षेत्र में योगी को वोटों के लिए यह सब करने की आवश्यकता नहीं है, क्षेत्र का राजनीतिक इतिहास यह साफ़ दिखाता है कि वह आदमी गोरखपुर में कब से जीत रहा है और किस मार्जन से।
सवाल यह है कि इन सब चीज़ों को नौटंकी बताने वालों ने कब ऐसे कृत्य किए हैं? चाहें वो अखिलेश हों या मदद के लिए आई महिला को डाँट कर भगा देने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य। इन लोगों ने न सामाजिक स्तर पर दलितों-शोषितों के लिए कुछ किया न ही आर्थिक स्तर पर योजनाओं के माध्यम से।
अगर इन सभी भाजपा छोड़ने वाले नेताओं से यह सवाल पूछा जाए कि जिन पार्टियों में वे गए हैं यानी अखिलेश यादव ने दलितों के कल्याण के लिए क्या किया है कौन सी योजनाएँ दीं? ले देकर वही एक रिवर फ्रंट बनवाने का तर्क। रिवर फ्रंट जैसी योजनाएँ राज्य स्तर की योजनाएँ थीं किसी एक समुदाय के लिए नहीं।
ऐसे तो भाजपा ने भी कई हाईवे बनवाए हैं पर वे काम अलग हैं। हाईवे पर हर आदमी चलता है। विशेष तौर एक पिछड़े समुदाय के लिए सपा ने क्या किया?
ये भी तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि एक समय पर चुनावों में जीत जाने पर सपा कार्यकर्ता राज्य में क्या किया करते थे। वो दलित समुदाय के ही लोग थे जिनकी बस्तियों में आग लगाई जाती थीं, उनका शोषण होता था।
अब अंत में सवाल यह उठता है कि जो नैरेटिव चल रहा है कि दो तीन नेताओं के पार्टी छोड़ने पर की पार्टी का शीर्ष नेतृत्व खराब है। जनता भाजपा से नाराज़ है। भाजपा जा रही है। ये सब दावे हैं पर ग्राउंड पर क्या हो रहा है?
हमारी डू-पॉलिटिक्स की टीम जितनी बार अलग अलग क्षेत्रों में ग्राउंड पर गई है, मैं खुद कई क्षेत्रों में जा चुका हूँ। अधिकतर लोगों को स्थानीय विधायक या नेतृत्व से थोड़ी-बहुत परेशानी अवश्य हो सकती है, लेकिन कहीं भी ऐसा नहीं दिखा की पार्टी के शीर्ष नेतृत्व मुख्यमंत्री योगी या भाजपा से लोगों को दिक्कत हो।
कानून व्यवस्था, लॉ एंड ऑर्डर को लेकर लोग खुश हैं। बाकी राज्य के किसानों का जो भी हो उत्तर प्रदेश में किसान योगी के नेतृत्व में खुश है क्योंकि भुगतान समय पर हो रहा है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में एक बड़े हिस्से में बिजली की बहुत बड़ी समस्या थी वहां अब पूरे पूरे दिन बिजली आ रही है।
लोगों की स्थानीय छोटी-मोटी समस्याएँ हैं और वे समय के साथ धीरे-धीरे सही हो रही हैं पर क्षेत्र की एक ओवरऑल स्थिति सुधरी है। ग्राउंड पर उतरने पर यह तो साफ होता है कि भाजपा से पार्टी के तौर पर और योगी आदित्यनाथ से मुख्यमंत्री के तौर खुश हैं। आगे जनता 10 मार्च को अपना मैंडेट सुना देगी।
इन चुनावों के बाद ये भ्रम जो चल रहा है कि ओम प्रकाश राजभर, राजभर समुदाय के नेता हैं और स्वामी प्रसाद मौर्य, मौर्य समुदाय के स्वामी हैं ये भ्रम भी टूट जाने वाला है।