अफगानिस्तान में तालिबान की जीत को जहाँ दुनियाभर में इस्लाम को मानने वाले लोग इस्लाम की जीत बता रहे हैं, वहीं खुद को ‘असली इस्लाम’ मानने वाले आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट (IS) ने तालिबान की जीत को ‘नकली जिहाद’ बताया है। IS ने तालिबान के कब्जे के पीछे अमेरिका का हाथ बताया है।
काबुल पर तालिबान के कब्जे के साथ ही तालिबान ने देश मे इस्लाम और शरीयत का राज स्थापित करने की मुहिम छेड़ दी है। महिलाओं के पढ़ने और नौकरी को लेकर तालिबानी नेताओं ने शरीयत कानून के तहत फतवे जारी करना भी शुरू कर दिया है। इस बीच आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट ने अफगानिस्तान पर काबिज़ तालिबान पर निशाना साधते हुए देश में शरिया कानून लागू करने उसकी क्षमता पर सवाल उठाए हैं।
IS ने ‘नए तालिबान’ को ‘इस्लाम का मुखौटा’ पहने एक ऐसे संगठन बहुरूपिये की संज्ञा दी है, जिसका इस्तेमाल अमेरिका मुस्लिमों को बरगलाने और इलाके से इस्लामिक स्टेट की मौजदूगी को खत्म करने के लिए कर रहा है। आतंकी संगठन की ओर से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘अल-नाबा’ ने अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे की पूरी प्रक्रिया को ‘अमेरिका समर्थित’ बताया है।
इसके साथ ही, पत्रिका में तालिबान की सफलता का मज़ाक भी उड़ाया गया है। सम्पादकीय में कहा गया है, “ये अमन के लिए जीत है, इस्लाम के लिए नहीं। ये सौदेबाज़ी की जीत है न कि जिहाद की।”
इसके अलावा, IS ने कहा है कि वे जिहाद के नए चरण की तैयारी कर रहे हैं। अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि IS के इस बयान का संदर्भ अफ़ग़ानिस्तान और तालिबान को लेकर है और उनका अगला निशाना अफगानिस्तान हो सकता है।
पत्रिका में लिखे लेख के अनुसार:
“तालिबान के काबुल में प्रवेश के दौरान हमने देखा कि कैसे अमेरिकी सैनिकों और तालिबान ने सीधे तौर पर समझौता किया और दोनों पक्षों में भारी भरोसे के बीच कैसे हजारों जिहादियों और जासूसों को निकाले जाने की प्रक्रिया जारी रही।”
IS ने अफ़ग़ानिस्तान में हज़ारा और शिया जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए तालिबान के सुलह संदेश की भी आलोचना की है, IS इन्हें विधर्मी कहता है।
IS ने आरोप लगाया कि समझौते के तहत अमेरिका ने अपने सैनिकों की वापसी के साथ ही देश को तालिबान के हाथों में सौंप दिया। आतंकवादी संगठन IS ने तालिबान को नकली जिहादी संगठन बताते हुए अमेरिका के साथ मिलकर काम करने का आरोप लगाया।
कट्टरपंथी मजहबी आतंकी संगठन IS ने दावा किया है कि अफ़ग़ान-तालिबान आंदोलन कोई वास्तविक ‘जिहाद’ या पाक़ युद्ध नहीं था, बल्कि सत्ता के लिए किया गया ‘समझौता’ था।
लेख में IS की ओर से कहा गया है कि कि अब का तालिबान वैसा नहीं रहा, जैसा 20 साल पहले मुल्ला उमर के नेतृत्व में था, बल्कि ये अब बदल गया है और अब तालिबान इस क्षेत्र में इस्लामी जिहाद को कमज़ोर करने के लिए अमेरिका की योजना को गुप्त रूप से लागू कर रहा है। ज्ञात हो कि तालिबान और IS के बीच विचारधारा को लेकर मतभेद हैं।
इस्लामिक स्टेट पहला ऐसा पहला बड़ा चरमपंथी आतंकी संगठन है, जिसने तालिबान के तत्कालीन नेता मुल्ला मोहम्मद उमर की सत्ता को चुनौती दी थी। साल 2015 के जनवरी महीने में दोनों गुटों ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ जंग का एलान कर दिया था।
उस वक्त इस्लामिक स्टेट ने अपनी अरब इलाके के बाहर जिहाद के लिए ‘खुरासन शाखा’ के गठन की घोषणा की थी। अफगानिस्तान, ईरान, पाकिस्तान और मध्य एशिया को ‘खुरासान’ कहा जाता है।
दोनों के बीच मजहबी मान्यताओं को लेकर भी मतभेद हैं। तालिबान में जहाँ ज्यादातर लड़ाके सुन्नी हनफ़ी विचारधारा को मानते हैं, वहीं इस में वहाबी विचारधारा को मानने वाले आतंकवादी शामिल हैं।
साल 2019 में इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ तालिबान, अमेरिका और अफ़ग़ान सुरक्षाबलों ने मिलकर एक साथ मोर्चा खोल दिया था, जिससे पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान में IS के पाँव उखड़ गए थे और उसको अपना मजबूत किला खोना पड़ा।
फरवरी, 2020 में तालिबान ने अमेरिका के साथ समझौता किया था कि वे अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल IS या किसी अन्य जिहादी संगठन को नहीं करने देगा। हालाँकि IS का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामी हुकूमत लाने का उसका जिहाद चलता रहेगा। वो ऐसे किसी समझौते को नहीं मानता।
ज्ञात हो कि IS वैश्विक जिहाद की बात करता है, जो किसी देश की सरहद से बँधा हुआ नहीं हो। IS का लक्ष्य सभी मुस्लिम देशों और इलाकों के लिए एक राजनीतिक इकाई की स्थापना रहा है। दूसरी तरफ़, तालिबान का जोर इस बात पर रहा है कि अफगानिस्तान की भूमि से विदेशी चले जाएँ।
तालिबान के अजेंडे का दायरा केवल अफ़ग़ानिस्तान तक सीमित है और अफ़ग़ानिस्तान को ‘विदेशी कब्ज़े से मुक्त कराना’ उनका घोषित लक्ष्य रहा है।
IS और तालिबान के बीच मतभेद वैसे तो काफी पुराने हैं, लेकिन तालिबान के ख़िलाफ़ IS का अभियान गत 16 अगस्त से अचानक बढ़ने लगा है। ज्ञात हो कि इसी 16 अगस्त को ही तालिबान ने राजधानी काबुल पर क़ब्ज़ा किया था।
काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद से IS समर्थित मीडिया समूह अचानक एक्टिव हो गए हैं। इन मीडिया चैनलों ने सोशल मीडिय पर तालिबान के ख़िलाफ़ प्रचार के लिए ऑनलाइन अभियान लॉन्च कर दिया है।
IS ने 19 अगस्त को इस्लामिक स्टेट ने तालिबान पर अपना आधिकारिक बयान जारी करते हुए ‘अमेरिका का पिट्ठू’ बताया था। बयान में IS ने कहा था कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की नहीं, अमेरिका की जीत हुई है।
IS समर्थित मीडिया समूहों ने 16 अगस्त से अब तक तालिबान के खिलाफ 22 प्रोपगेंडा लेख प्रकाशित किए हैं, जो ज़्यादातर पोस्टर की शक्ल में हैं। इसके साथ ही फ़्रेंच भाषा में अनुवाद किए गए तीन पोस्टर भी प्रकाशित हैं।
आईएस समर्थित मीडिया समूह तलए-अल-अंसर अपने पोस्टरों पर ‘Apostate Taliban’ नाम का हैशटैग इस्तेमाल कर रहा है। इसके अलावा एक वीडियो भी सोशल मीडिया पर अपलोड किया गया है। एक सीनियर हाई प्रोफ़ाइल IS समर्थक प्रोड्यूसर तुर्जुमन अल-असवीर्ती ने पोस्ट किया है।
इस वीडियो में अंग्रेज़ी बोलने वाला एक व्यक्ति यह साबित करने की कोशिश करता है कि तालिबान ने अमेरिका के साथ साँठ-गाँठ की हुई है। अपनी बात साबित करने के लिए वो सीआईए के इस्लामाबाद स्टेशन के पूर्व प्रमुख रॉबर्ट एल ग्रेनियर की किताब ’88-days to Kandhar’ का सहारा लेता है।
ऐसा माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में तालिबान की ओर से भी IS के खिलाफ दुष्प्रचार अभियान शुरू हो सकता है।