1670 के आसपास 40 साल के छत्रपति शिवाजी और 20 साल के कुंअर छत्रसाल की इस मुलाकात के बारे में बाबा साहेब पुरंदरे ने ‘राजा शिव छत्रपति’ के दूसरे भाग में चार पठनीय पृष्ठ लिखे हैं।
सर्वज्ञात है कि छत्रसाल के पिता चंपतराय बुंदेलखंड के एक जागीरदार थे, जिनका दुखद अंत मुगलों के कारण हुआ। एक दिन किशोर उम्र के उनके पाँच बेटे लगभग बेसहारा होकर जमीन पर आ गए। 15 साल के अंगद सबसे बड़े थे और उनसे छोटे थे 11 साल के छत्रसाल।
तीन भाई उनसे भी छोटे रहे होंगे और हम अंदाज लगा सकते हैं कि असमय मृत्यु के शिकार बनाए गए चंपतराय जीवन के 40 साल भी नहीं देख पाए होंगे। एक दिन सभी बालकों के सिर से माँ और पिता का साया उठ गया।
सबसे बदनाम मुगल औरंगजेब के खाते में इस खानदान की बरबादी के हिसाब थे। वह भारत में वंशों के विनाश का काला कालखंड है, जिसमें जब जो कमजोर पड़ गया अपनी पहचान और अपना मूल धर्म गँवा बैठा!
छत्रसाल औरंगजेब के सिपहसालार आमेर के राजे जयसिंह के संपर्क से उनकी सेवा में लगते हैं। वह एक तरह से मुगलों की ही सेवा थी और उन्हें जयसिंह के साथ दक्षिण के अभियान पर लगाया जाता है। छत्रसाल की हैसियत एक मामूली सैनिक से ज्यादा नहीं रही होगी। जयसिंह की मृत्यु के बाद वे दिलेर खान के मातहत दक्षिण भारत के दूसरे अभियान पर भेजे जाते हैं।
बाबा साहब पुरंदरे की किताब में मुगलों की गुलामी से निकलने और उन्हें सबक सिखाने को बेचैन युवा छत्रसाल के व्यक्तित्व का रोचक विवरण देती है। एक दिन शिकार के बहाने छत्रसाल अपनी नियति स्वयं लिखने के इरादे से निकलकर सीधे छत्रपति के सामने पहुँचते हैं।
तब तक शिवाजी आगरे में मुगलों के अड्डे से औरंगजेब की नाक के नीचे से सुरक्षित निकल चुके थे और पूरे मुगलिया मोहल्लों में उनके नाम का डंका बज रहा था। दाढ़ी नोचता हुआ औरंगजेब अपनी जमानत जब्त कराने की अनुभूति को उपलब्ध था।
याद रखें आगरा या दिल्ली कोई राजधानियाँ नहीं थीं। हमलावर-लुटेरों ने यहाँ अपने अड्डे बना लिए थे। वे कोई शासक भी नहीं थे, उन्हें सुल्तानों और बादशाहों के ताज तो आजाद भारत के बेशर्म इतिहासकारों ने पहनाए हैं। वह क्राइम हिस्ट्री ऑफ इंडिया के गुनहगार हैं, जिन पर असल में मामले तय होने चाहिए थे!
आप देखिए, छत्रपति शिवाजी अपने सामने आए कुंअर छत्रसाल को क्या सीख दे रहे हैं?
छत्रसाल सहयाद्रि के घने जंगलों, पर्वतों और नदियों के पार करते हुए अपने चंद बुंदेला वीर सहायकों के साथ छत्रपति की शरण में पहुँचते हैं इस आशा के साथ कि छत्रपति अपनी सेवा में उन्हें रख लेंगे।
बाबा साहब पुरंदरे ने इस ऐतिहासिक भेंट पर लिखा कि बुंदेलखंड और महाराष्ट्र एक हो गए। छत्रपति अपने राज्य से वंचित किए एक मुगल पीड़ित क्षत्रिय से कहते हैं कि अपनी मातृभूमि में लौटकर अपनी सेना बनाइए। मुगलों को वहाँ से खदेड़िए।
मैं अपने कानों से यह सुनना चाहता हूँ कि आपने अपना राज्य स्थापित कर लिया है। लड़िए। हम और आप अलग नहीं हैं। आप यह कर सकते हैं। छत्रसाल के घोड़े बुंदेलखंड लौटते हैं और बाकी सब अब इतिहास है।
मैंने आठ बार पूरा देश घूमा है और कह सकता हूँ कि आज के उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में फैला बुंदेलखंड अकेला ऐसा विशाल भूभाग है, जहाँ किसी बड़ी मुस्लिम रियासत की जड़ें नहीं फैलीं। वहाँ आज भी अप्रदूषित प्राचीन भारतीय स्थापत्य महोबा के पास चरखारी से लेकर यहाँ गढ़कुंडार, ओरछा और धुबेला तक दर्शनीय है। ऐसा कैसे संभव हुआ?
वह वीर छत्रसाल के कारण संभव हुआ, जिन्होंने बहुत लंबी आयु पाई। 52 युद्ध लड़े और अपराजेय रहे। उन्होंने छत्रपति के देवलोकगमन के चालीस साल बाद बाजीराव पेशवा तक से जीवंत संबंध बनाकर रखे।
वह बाजीराव ही थे, जो छत्रसाल के संकट की सूचना मिलने पर भोजन की थाली छोड़कर चीते की रफ्तार से बुंदेलखंड आ धमके थे। 1735 में छत्रसाल की भव्य समाधि धुबेला में इसी वीर मराठा ने बनवाई थी। ये आजाद भारत के तीर्थ बनने चाहिए थे!
भारत ने बड़े जोर से आजादी का अमृतकाल मनाया है। हमने अपने इतिहास के विस्मृत नायकों को हृदय की गहराइयों से याद किया है। आजादी के बाद इतिहास के जिन नायकों को अँधेरे तहखानों में ही डालकर रखा गया, महाराजा छत्रसाल उनमें से एक हैं।
दस साल पहले संघ के एक प्रचारक डॉ पवन तिवारी कुछ समय यहाँ रहे। कुछ स्कूली बच्चों से छत्रसाल के बारे में और उनकी समाधि के बारे में उन्होंने कुछ सवाल किए और वे आश्चर्य में पड़े कि बच्चों को उनके विषय में अपेक्षित सामान्य ज्ञान नहीं था। उनकी वह जिज्ञासा एक अभियान का कारण बन गई। गाँव-गाँव में जाकर लोगों से दस-दस रुपए जुटाए गए।
2018 में महू सहानिया में महाराजा छत्रसाल का भव्य स्मारक देश ने आकार लेता हुआ देखा। महाराजा छत्रसाल स्मृति शोध संस्थान की एक समर्पित टीम बुंदेलखंड में सक्रिय है। आजादी के अमृतकाल तक आते-आते यह सब हो गया।
मैंने जब बाबा साहेब पुरंदरे की प्रसिद्ध पुस्तक के दोनों भाग पूरे पढ़े तो तीन साल पहले छतरपुर होकर धुबेला होकर आया था। महाराजा छत्रसाल की समाधि के पास ही उनके घोड़े भलेभाई की भी समाधि है।
खूबसूरत पहाड़ियों में कई महल, मंदिर, तालाब, दरबार और दरवाजे हैं, जो महान बुंदेला शासकों के स्थापत्य प्रेम की बेजोड़ मिसाल हैं। लेकिन इनके रखरखाव बेहद दयनीय हैं।
इतिहास के प्रति आम लोगों की अरुचि से ज्यादा जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा और शासकीय विभागों की बेरुखी इसके लिए जिम्मेदार है। यह अकेला ऐसा यतीम विषय है, जिस पर कभी सदन में सवाल नहीं उठते, जिसके लिए कोई आंदोलन नहीं होते।
विश्वविद्यालयों में इतिहास विभागों के कामगारों के लिए भी इतिहास मुर्दा जानकारियों का एक कब्रस्तान है, जिसके सहारे नौकरियाँ तो ली जा सकती हैं, जाकर करने को किसी को कुछ नहीं सूझता।
हमेशा ही घटिया एंगल को परदे पर उतारने में सिद्धहस्त हिंदी सिनेमा को भी छत्रसाल की मेगा स्टोरी में कुछ मिला भी तो बाजीराव-मस्तानी का कोना मिला और संजय लीला भंसाली ने उस पर एक फिल्म बनाई। छत्रसाल की भूमिका में एक असल बाहुबली का भरपूर कंटेंट है, जिस पर किसी गुणी फिल्मकार का ध्यान नहीं गया है।
आठ सौ साल के इस्लामिक अंधड़ों के बावजूद बचे-खुचे भारत की समृद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत इतनी है कि आजाद भारत की सरकारों में इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व से जुड़े विभाग सबसे मजबूत और पेशेवर होने चाहिए थे, जो पर्याप्त बजट के साथ बेचैनी से भरे दक्ष विशेषज्ञों और विश्व की आधुनिक तकनीक से लैस होकर नई-नई खोजों में खुद को खपाए रहते। लेकिन ये विभाग बेहद दरिद्र अवस्था में लूप लाइन के हैं, जहाँ न मौलिक सोच के दक्ष विशेषज्ञ हैं, न काम करने लायक तकनीक है और न ही कुछ नया करने की प्रेरणा शेष है। वे गैस राहत विभाग टाइप के धूल खाते हुए कलपुर्जे हैं, जिनसे इतिहास को दूर-दूर तक कोई राहत नहीं है।
बुंदेलखंड वालों ने ऐसी घिसी हुई सरकारी व्यवस्था के भरोसे रहने की बजाए आम लाेगों के बीच जाकर महाराज छत्रसाल के प्रति कुछ करने की ठानी और एक लहर पैदा हो गई। अब बुंदेलखंड के निजी और सरकारी स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों के सालाना टूर को ‘हेरिटेज वॉक’ में अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।
वे समूहों में ऐसे ऐतिहासिक स्थानों पर जाएँ, जो उपेक्षित हैं। टीचर उन्हें इतिहास की सच्ची जानकारियाँ देने के पहले खुद ढंग से पढ़ें। उनके बारे में लिखें, वीडियो बनाएँ, लोगों को बताएँ। गुमनाम स्मारकों पर इंसानी हलचल विरासत को बरबाद होने से बचाएगी।
पंचायतें और नगर पालिकाएँ भी जिम्मेदारी ले सकती हैं, बशर्ते बजट की बंदरबाँट से पंच परमेश्वरों और उनके हुनरमंद अफसरों को फुरसत मिल जाए।
शोध संस्थान उत्कृष्ट शोध परक पुस्तकें लिखने के लिए गुणी लेखकों को प्रेरित करें और पेशेवर प्रकाशकों से ही छपवाएँ। समाज के समृद्ध लोग इन किताबों को स्कूल-कॉलेज की लाइब्रेरियों में भिजवाएँ। आम लोग शादियों, जन्मदिन पर उपहार और समारोहों के स्मृति चिन्हों के रूप में देने का संकल्प लें।
घर-घर में ऐसी किताबें पहुँचनी चाहिए, जिनमें स्थानीय इतिहास, संस्कृति, वीर शासकों, शिल्पियों और कवि-रचनाकारों के अधिकतम ऐतिहासिक संदर्भों सहित विस्तृत विवरण आम लोगों की भाषा में हों।
महाराजा छत्रसाल विश्वविद्यालय और स्मृति शोध संस्थान की संयुक्त पहल यह कार्य संभव करेगी। छतरपुर और सागर से निकले पत्रकार और संपादक देश भर में हैं। अपने इलाके के महान इतिहास पर उनका लिखा हुआ भी सबके संज्ञान में आना चाहिए।
याद रखें, सरकारी विज्ञापनों की खैरात पर छपने वाली स्मारिकाएँ दस रुपए किलो की रद्दी में भी नहीं जातीं! हमारा इतिहास रद्दी और कूड़ेदान का विषय नहीं है।