बाल श्रमिकों के शोषण का आरोपित पुलित्जर: आज बन गया है पत्रकारिता में पहचान का पुरस्कार

12 जून, 2021 By: आनंद कुमार
हर साल दुनियाभर में 12 जून को विश्व बाल श्रम निषेध दिवस के रूप में मनाया जाता है

जो उसकी कंपनी का कर्मचारी ही नहीं हो, उसके हड़ताल पर जाने से क्या फर्क पड़ता? जरूर जाया करें हड़ताल पर! ऊपर से जो कहीं ये हड़ताल करने वाले 8 से 12 वर्ष की उम्र के बच्चे हों, तो क्या होगा? कंपनी के मालिक इसे ज्यादा से ज्यादा किसी मजाक के तौर पर लेंगे। कंपनी का मालिक भी कोई साधारण, छोटी-मोटी कम्पनी का कोई ऐरा-गैरा मालिक नहीं था।

आज उसके नाम पर चलने वाला पुरस्कार लेकर पत्रकार लहालोट होने लगेंगे। बच्चों ने पुलित्ज़र के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंँक दिया था। वो उसके अख़बारों को घर-घर पहुँचाने और गलियों में खड़े होकर बेचने वाले बच्चे थे। पुलित्ज़र उनकी कमाई का पैसा खा रहा था।

जैसा कि भारत में भी आपने होते देखा ही होगा, अखबार बाँटने या बेचने वाले कोई अखबार के कर्मचारी तो होते नहीं। जो बच्चे 1899 के दौर में हड़ताल कर रहे थे, वो भी किसी अमेरिकी अख़बार के कर्मचारी नहीं थे। उनका काम था अख़बारों का बंडल खरीदना और यथासंभव पूरा बंडल बेच डालना, ताकि कुछ मुनाफा हो सके।

इस दौर तक कम पैसे देकर बच्चों से काम करवाए जाने को शोषण कहने की शुरुआत हो चुकी थी लेकिन अख़बार तो खुद ही ‘नैरेटिव’ बनाते-बिगाड़ते और बदलते थे। उनके मुताबिक ये बच्चों से ज्यादा काम करवाना, या शोषण नहीं था बल्कि बच्चे तो छोटे व्यापारी थे! ये कम उम्र के व्यापारी मुनाफा कमाने के तरीके सीख-समझकर बाजार में अपनी जगह बनाते थे। इस तर्क से वो शोषित मजदूरों से बदलकर व्यापारी हो जाते।

ऐसा माना जाता है कि जुलाई, 1899 में एक दिन पुलित्ज़र के अख़बार ‘वर्ल्ड’ और हर्स्ट के ‘जर्नल’ के अख़बारों के खिलाफ ये बच्चे उतर आए। जुलाई बीतते-बीतते करीब 5-7000 अख़बार बेचने वाले लड़के-लड़कियाँ अख़बारों के दाम घटाए जाने के समर्थन में उतर आए थे।

उन्होंने पुलित्जर और हर्स्ट के अख़बारों की बिक्री करीब दो-तिहाई घटा डाली थी। ये हड़ताल अपनी तरह की कोई पहली हड़ताल नहीं थी। इस किस्म के आन्दोलन 1886 में ही शुरू हो चुके थे और 1887 में भी ऐसा ही हड़ताल हुआ था। इस कड़ी में 1899 की हड़ताल को तीसरा कहा जाना चाहिए।

हड़ताल कैसे टूटती है?

हड़तालों को तोड़ने के लिए कौन से तिकड़म भिड़ाए जाते हैं, उन्हें देखने के लिए भी इस हड़ताल को देखा जा सकता है। इरविंग हॉल में 24 जुलाई, 1899 को अख़बार बेचने वाले इन लड़के-लड़कियों की बैठक हुई।

माना जाता है कि इसमें मेनहट्टन इलाके से करीब 5,000 और ब्रुकलिन से 2,000 अख़बार बेचने वाले लड़के-लड़कियाँ शामिल हुए। दूसरे नेताओं के अलावा इस बैठक को ‘किड ब्लिंक’ नाम के एक लड़के ने संबोधित किया था। कहा जाता है कि उसका भाषण करिश्माई था। अपने साथियों का उसे भरपूर समर्थन मिला हुआ था। थोड़े ही दिनों में उसके साथियों के बीच उसके प्रति अविश्वास पनपने लगा।

दो ही दिन बाद 26 जुलाई, 1899 को ऐसी अफवाह थी कि किड ब्लिंक ने रिश्वत लेकर पुलित्जर और हर्स्ट के अख़बार बेचने शुरू कर दिए हैं। हालाँकि इन अफवाहों की पुष्टि नहीं हुई, लेकिन ये उसकी छवि बिगाड़ने और आन्दोलन को कमजोर करने के लिए काफी थी।

इसके बाद किड ब्लिंक और डेविड सिम्मोन्स ने संगठन के अपने पदों से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद एक रात कुछ अखबार बेचने वाले लड़कों ने एक रात किड ब्लिंक को खदेड़ा। भागते हुए किड ब्लिंक को पुलिस ने किसी छीन-झपट करने वाले गिरोह का मुखिया मानकर गिरफ्तार कर लिया। अगली सुबह किड ब्लिंक जमानत पर छूटा लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में आन्दोलन का काफी नुकसान हो चुका था।

आन्दोलन की परिणिति

किड ब्लिंक के हटने के बाद पुलित्जर के खिलाफ चले इस आन्दोलन की कमान दूसरे लड़कों ने संभाली, लेकिन उनके पास वो समर्थन या करिश्माई व्यक्तित्व नहीं था, जो कभी किड ब्लिंक के पास था।

‘वर्ल्ड’ और ‘जर्नल’ दोनों ने 1 अगस्त, 1899 को 100 अख़बारों के बण्डल की पुरानी कीमतें जारी रखने और न बिके अख़बार वापस लेने की माँगें मान लीं। इसका मतलब था कि अब लड़कों को देर रात तक अख़बार बेचने की जरुरत नहीं थी। इसके बाद 2 अगस्त को अख़बार बेचने वाले लड़कों ने यूनियन को ख़त्म करने और हड़ताल वापस लेने का फैसला किया।

पुलित्जर और हर्स्ट जैसे बड़े अख़बार मालिकों के खिलाफ हुए इस सफल आन्दोलन ने 1914 में मोंटाना और 1920 में केन्टकी में हुई ऐसी ही हड़तालों को भी प्रेरित किया था।

श्रम कानूनों में बच्चे

श्रम कानूनों में बच्चों की बात इसके कई दशक बाद शुरू हुई थी। बाल मजदूरी, आज जैसे एक अभिशाप माना जाता है, वैसा उस दौर में नहीं होता था। इसके अलावा, देखा जाए तो भारत और विदेशों में काम की समझ को लेकर अलग अलग धारणाएँ भी हैं।

अभी के भारतीय कानूनों को देखें तो घरेलु उद्योंगों, कृषि जैसे कामों में बच्चों के काम करने को बाल श्रम नहीं माना जाता। इसकी तुलना में जहाँ पटाखे बनाने या कालीन उद्योगों में बच्चों के काम के घंटे काफी ज्यादा होते हैं, मजदूरी कम होती है और पढ़ाई भी छूट जाती है, वहाँ बच्चों से मजदूरी करवाना बंद भी नहीं हुआ है। होटल-ढाबों में भी काम करते हुए बच्चे नजर आ जाते हैं।

अक्सर ऐसा पाया जाता है कि इन बच्चों में से कुछ तो घर से मार-पीट या नाराजगी की वजह से भाग गए होते हैं। वहीं कई बच्चे ऐसे भी होते हैं, जिनके माता-पिता ही आर्थिक कारणों से ऐसे बच्चों को काम पर भेज देते हैं।

आजकल घरों में घरेलु नौकरों की तरह बच्चों से काम करवाते पाए जाने पर भारी जुर्माना भी भरना पड़ता है। इसके बाद बड़े शहरों में तो ऐसी हरकतों पर कुछ लगाम लगी है, लकिन कस्बों में ये समस्या अभी भी पहले की तरह कायम है।

थोड़े-थोड़े दिनों पर अख़बारों में किसी फैक्ट्री से बाल श्रमिकों को छुड़ाए जाने की ख़बरें भी आ जाती हैं। जब इसके साथ मिलाकर विदेशों की व्यवस्था को देखते हैं तो एक और आश्चर्य नजर आता है।

बिदेशों में बच्चों का अख़बार बाँटना, पड़ोसियों के लॉन की सफाई-कटाई में मदद करना या 18 वर्ष के होने से पहले से डिलीवरी बॉय या रेस्तराँ में कुछ घंटे काम करना कोई बड़ी बात नहीं दिखती। फिल्मों समाचारों में ऐसा होते दिख जाता है।

फिर क्या वजह है कि भारत में ऐसी व्यवस्था लागू नहीं की जा सकती? क्या बाल श्रमिकों से कम घंटे काम करवाना चाहिए, या उन्हें उचित मजदूरी देनी चाहिए, ये समझना भारतीय लोगों के लिए उतना मुश्किल है?

इसके साथ ही एक दूसरी समस्या ये भी दिखती है कि बाल श्रम सम्बन्धी कानूनों के कारण कई परंपरागत पेशे ख़त्म होते जा रहे हैं। मूर्तियाँ बनाने या बुनकर का काम वर्षों के अभ्यास से सीखे जाते हैं। बचपन से ही उनसे न जुड़े होने के कारण ये ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी आगे नहीं बढ़ता।

बाद में अगर कोई इन्हें सीखना भी चाहे तो उसके लिए बने पेशेवर प्रशिक्षण के संस्थान इतने महँगे होते हैं कि कमजोर आर्थिक वर्गों से आने वाले परिवारों के लिए उनका खर्च उठाना संभव नहीं। शायद भारत के लिए हमें भारतीय तरीके से सोचने की जरूरत है।

केवल कोई विदेशी मॉडल लाकर यहाँ थोप देने से काम नहीं चलेगा। और यहाँ हम फिर से मीडिया की भूमिका पर वापस चले आते हैं। जिस पुलित्जर जैसे लोगों पर बाल श्रमिकों से काम के बदले कम मजदूरी देने का अभियोग रहा है, उनके नाम पर दिए गए पुरस्कारों से आज पत्रकारिता में पहचान बनती है। जैसे उस दौर में ये ‘नैरेटिव’ पर नियंत्रण रखकर अखबार बेचने वाले बच्चों को मजदूर नहीं व्यापारी बताते थे, वैसा ही आज भी होता है।

श्रम कानूनों में बच्चों के सम्बन्ध में कोई भी फेरबदल करने का मतलब होगा हर ओर से एक बड़े हंगामे का उठ खड़ा होना। इसलिए नीतियों पर बात तक तभी हो सकती है जब इन पर चर्चा करने वाले एनजीओ और दूसरी लॉबी के साथ साथ दूसरे पक्ष की भी आवाजें सुनी जाएँ।

सिर्फ कानूनों के जरिए अगर सामाजिक समस्याओं का समाधान संभव होता तो घरेलु हिंसा और दहेज़ जैसी समस्याओं पर भी कब का काबू पाया जा चुका होता। आज विश्व बाल श्रम निषेध दिवस भी है। आर्थिक वजहों से ही बच्चों को काम पर भेजा गया होगा, ऐसा अपनी मर्जी से ये मान लेने के बदले दूसरे पक्ष की बातें सुनने की कोशिशें शुरू की जानी चाहिए।

बाकी ये दूसरे पक्ष की बातें सुनना तभी संभव है, जब ‘नैरेटिव’ बनाने वाले पुलित्जर और दूसरे पुरस्कार पाए इनामी पक्षकारों के अलावा आम लोगों की, दूसरे पक्ष की बातें शांति से सुनी जाएँ। बस समस्या ये है कि निकट भविष्य में ऐसा होता नजर तो नहीं आता।



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