यासीन मलिक के बहाने: ख़लीफ़ा का पद खाली है!

27 मई, 2022 By: विजय मनोहर तिवारी
मोसूल इराक की एक ऐसी बचाव टीम के इस्लामिक स्टेट के आतंकियों से मुकाबले की कहानी है, जिन्होंने आखिरकार मोसूल को मुक्त करा लिया था।

कैसा लगता है जब किसी शहर पर इस्लामी आतंकवादी अपना कब्जा जमा लेते हैं? शहर की गलियों, बाजारों और इमारतों की शक्ल कैसी हो जाती है? आम लोगों की जिंदगी में कैसे बदलाव नजर आने लगते हैं? उनके घरों में क्या चल रहा होता है? इन सवालों पर अब दो स्थितियों में हमें गौर करना होगा। पहली, अगर बस्ती में रहने वाले गैर मुस्लिम हैं तो क्या होता है और सारे मुस्लिम हैं तो क्या होता है?

2019 में बनी MOSUL नाम की जिस मूवी के संदर्भ में मैं ये प्रश्न उठा रहा हूँ, उसमें दूसरी स्थिति है। इराक के इस शहर पर जून 2014 में जब इस्लामिक स्टेट के जोशीले जिहादी काबिज हुए तो वहाँ क्या कुछ घटा है, यह फिल्म उसी की एक झलक दिखाती है। 

The New Yorker में फरवरी 2017 में छपी एक स्टोरी से प्रेरित यह फिल्म आतंक के राज की भयावहता का चित्रण बहुत करीब से करती है। ल्यूक मोगल्सन की इस डिटेल स्टोरी का शीर्षक है- The Desperate Battle to Destroy ISIS

युद्ध विषयक दुनिया की पचास बेहतरीन फिल्मों में इस फिल्म की गिनती दूर-दूर तक नहीं होगी। यह एक औसत दरजे की फिल्म है, लेकिन आतंक की एक ऐसी लहर को सामने रखती है, जो पहले या दूसरे विश्व युद्ध की नहीं बल्कि अभी-अभी हमारी दुनिया को छूकर गुजरी है। 

दस साल भी नहीं बीते हैं, जब अबू बकर अल बगदादी नाम के एक शख्स ने स्वयं को इस्लाम का खलीफा घोषित कर दिया था और पूरी दुनिया से खलीफा के राज्य में जिंदगी बिताने के लिए हजारों नौजवान लड़के-लड़कियों ने घर छोड़ दिए थे। मोसूल की ही एक मस्जिद में काले लिबास में वह शख्स पहली और शायद आखिरी बार नजर आया था।

हमारे लिए वह दूर की खबर थी। सीरिया या इराक में इस्लामिक स्टेट के नाम पर कुछ हो, यहाँ तक कि अफगानिस्तान में तालिबान के नाम पर कोई लहर लपलपाए तो भारतवासी आमतौर पर उसे दूर की खबर की तरह ही देखते हैं। मैं नहीं जानता कि भारतवासी मुस्लिमों के चित्त पर ये लहरें क्या असर करती हैं? 

हालाँकि आप सोशल मीडिया पर सक्रिय पढ़े-लिखे मुस्लिम युवाओं के खातों में जाएँगे तो उनकी पोस्ट और कमेंट्स में आसमानी उम्मीदों से भरी एक किस्म की दीवानगी उनमें जरूर नजर आएगी। जैसे संसार की सब तरह की समस्याओं के समाधान उनके पास हैं। 

खिलाफत आदर्श राज्य की बुनियादी जरूरत है। किताब में अंतिम समाधान आ चुके हैं। बाकी सब जो दुनिया में हजारों साल की सभ्यताओं में विकसित हुआ है, वह बकवास है।

फिल्म ‘मोसुल’ के सूरते-हाल पर केंद्रित है और मैं चाहूँगा कि ये फिल्म देखने के लिए नादिया मुराद की किताब ‘द लास्ट गर्ल’ जरूर पढ़ी जाए। इराक की ही एक अभागी यजीदी लड़की है नादिया मुराद, जिसके गाँव पर इस्लामिक स्टेट के जिहादी आ धमके थे। वे ऐसे कई गाँवों में दहशत बनकर गए थे और इस्लामी रवायतों के अनुसार इन गैर मुस्लिम यजीदी बेटियों के साथ जो कुछ हुआ, द लास्ट गर्ल उसकी भोगी हुई दास्तान है। 

यह छोटी सी चर्चित किताब बताती है कि जब इस्लामी आतंकवादी किसी गाँव में आते हैं तो क्या होता है? यह पहली स्थिति का गाँव है, जो गैर मुस्लिमों का है।

मोसूल में पहले से ही ज्यादातर मुसलमान थे, जिनके पुरखे सातवीं सदी के पहले कुछ और थे और इस्लाम के अवतरित होते ही अरबों के तूफानी हमलों ने जिनकी भाषा, बोली, पहचान, संस्कृति, खानपान, लिबास सब कुछ बदलकर रख दिया था। आखिरी साँसें लेते हुए गैर मुस्लिम यजीदियों ने इस्लामिक स्टेट के रूप में अभी-अभी ताजा धक्का खाया है। 

फिल्म के पहले तीन मिनट में ड्रोन शॉट्स आतंक के असर का बेहतरीन विहंगावलोकन हैं, जिनके बाद आप तैयार हो जाते हैं कि आतंक आपसे ही आपकी बर्बादी की कैसी कीमत वसूलता है!

यह इराक की एक ऐसी बचाव टीम के इस्लामिक स्टेट के आतंकियों से मुकाबले की कहानी है, जिन्होंने आखिरकार मोसुल को मुक्त करा लिया था। मगर तब तक यह खुशहाल शहर खंडहरों के ढेर में बदल चुका था।

एक इमारत की छत पर मारे गए एक आतंकी के पास आकर टीम का एक युवा सदस्य उसका हाथ टटोलता है। कैमरे के फोकस में पूरा हाथ आता है। चमड़ी पर काली पपड़ी और नाखूनों में जमा मैल बताता है कि इस्लाम के नाम पर लड़ते हुए अभी-अभी मरा यह नौजवान कई हफ्तों से नहाया नहीं होगा। 

आखिर वह कौन सा जुनून है, जो अपराध और आतंक की इस दुनिया की तरफ उन्हें दुनिया भर से खींचकर इस्लामिक स्टेट के परचम तले लेकर आया था?

इस्लामिक स्टेट के आतंकियों के हाथों अपना काफी कुछ गँवा चुके इस टीम के सदस्य भी मुसलमान हैं और वे जिन पीड़ितों के पास से गुजरते हुए आतंकियों को टारगेट बनाने निकले हैं, वे भी मुसलमान हैं। 

चारों तरफ धमाकों के बीच अजान की आवाज गूँज रही है। बचाव दल के कुछ जवान नमाज में हैं। वे अपने हम मजहब हमलावरों के निशाने पर हैं।

जब पहले ही बर्बाद हो चुके मोसुल के बाशिंदे अपनी जान बचाकर भागते हैं तो इस्लामिक स्टेट के लोग बेतहाशा गोलियाँ चलाकर उन्हें ही मारना शुरू कर देते हैं। किसी माँ का पाँच साल का बेटा लाश बनकर सड़क पर गिरा है। कोई कार में बम बाँधकर फट गया है। किसी ने ड्रोन पर लादकर धमाके भेजे हैं। 

हर तरफ धूल और धमाकों के बीच जिंदगी आखिरी साँसें ले रही है। एक ऐसा निजाम जहाँ लोकतंत्र या सरकार या अदालतें सब खत्म होने की कगार पर हैं। अगर कुछ बचा है तो वह मजहबी जुनून है, जो बचे-खुचे को भी खत्म करने पर उतारू है। 

इस्लामिक स्टेट के आतंकियों ने बचाव दल के एक सदस्य के घर में कब्जा किया हुआ है। जब वह दल उस अपार्टमेंट में पहुँचता है तो उस आतंकी को मार डाला जाता है। वह सदस्य अपनी पाँच साल की बंधक बेटी और बीवी को छुड़ाता है। 

वे लिपटकर रोते हैं। तभी उसकी बीवी हयात अपने फूले हुए पेट की तरफ बेबसी से इशारा करती है। वह प्रेगनेंट है, यह बताते हुए घृणा से वह रो देती है। कैमरा आतंकी की लाश पर जाता है, जो कमरे में पड़ी है। महीनों से वह इस घर में कब्जा जमाए हुए था। दोनों तरफ मुसलमान हैं।

नादिया मुराद को पढ़ेंगे तो इस्लामिक स्टेट के जिहादियों के हाथों लगातार बेची और खरीदी गई बेबस बेटियों और उम्रदराज औरतों के साथ हुए अकथनीय दुर्व्यवहार की इंतहा देखेंगे। कोई एक नहीं थी, जो गर्भवती हुई हो। वे भी हजारों में थीं। 

यह अकेले मोसुल की कहानी नहीं है, आतंक के ऐसे ही अंधड़ों के दौरान गर्भ में ऐसी कई पीढ़ियाँ पली हैं। भारत में आठ सौ सालों की हुकूमत के वहम उनके वंशजों को आज तक हैं, जो यह विवेक खो चुके हैं कि उन्हें किस बात पर घृणा, किस बात पर लज्जा, किस बात पर क्रोध आना चाहिए और किस बात पर गर्व तो बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए! 

अक्टूबर 2019 में एक बड़े अमेरिकी अभियान के तहत सीरिया के एक गुमनाम गाँव में अबू बक्र अल बगदादी अपने दो बेटों के साथ बुरी मौत मारा गया। यह अभियान जिस कायला मुलेर नाम की 26 साल की अमेरिकन सामाजिक कार्यकर्ता की स्मृति को समर्पित किया गया, वह इसी खलीफा के हाथों बर्बाद हुई थी। 

रेप और यातनाओं के बीच 2015 में बगदादी ने ही उसे मारा था। जिस टास्क फोर्स ने खलीफा का खात्मा किया, वह टास्क फोर्स-8:14 थी। यह कायला की जन्म तिथि है और तब से खलीफा का पद खाली है!

यासीन मलिक नाम के सज्जन कश्मीर में ऐसी ही एक ख्वाबों की जन्नत की खातिर अपने हश्र को प्राप्त हुए हैं। ये एक जैसी लहरें हैं, जो दुनिया के अमनपसंद समाजों के किनारों पर ज्वार-भाटे की तरह आ और जा रही हैं।



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