जब आप और हम अफ़ग़ानिस्तान में कट्टरपंथी ताकतों द्वारा लोकतंत्र की छाती पर बूट रखकर सत्ता हथिया लेना देख रहे थे, तब भी विदेशियों की फेंकी हुई बोटियों पर पलने वालों का हमला बंद नहीं हुआ था। वो चालीस से अधिक विश्वविद्यालयों के आर्थिक सहयोग से ‘हिंदुत्व’ के ख़िलाफ़ वैश्विक स्तर पर आयोजन कर रहे थे। इस नफ़रत की खेती के खिलाफ भारत का विदेश मंत्रालय चुप था।
विदेशों के इन चालीस से अधिक विश्वविद्यालयों से कितना पैसा आया होगा इसका अनुमान आप लगा सकते हैं। आर्थिक रूप से इतने मजबूत लोगों के खिलाफ आप हम जैसे दो चार लोगों से ये अपेक्षा रखते हैं कि हम एक कलम लिए उतर जाएँ? वो भी ऐसी कलम जिसकी स्याही जुटाने के लिए हम लोगों को एक अदद नौकरी, कोई रोजगार भी करना पड़ता है! कैसे संभव है बन्धु ऐसा करना, वो भी आप ही बता देते तो अच्छा रहता।
जब आप कहते हैं कि सरकार तो हमारी है वो कुछ नहीं कर रही तो असल में आप दोबारा अपनी ही जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे होते हैं। जो अपनी मदद खुद नहीं करता, उसकी मदद भगवान भी नहीं कर सकते, ये कहावत तो सुनी ही होगी। जो कहीं नहीं सुनी तो अफ़ग़ानिस्तान से भाग रहे लोगों के वीडियो सोशल मीडिया और टीवी पर लगातार दिख रहे हैं, उन्हें देख लीजिये।
जब तालिबान के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान में ही एक पक्ष लड़ रहा था तो उन्हें थोड़ी बहुत ही सही, हथियारों और पैसे की मदद तो मिलती थी। वो लड़े नहीं इसलिए आज वो भागने के सिवा कुछ नहीं कर पा रहे।
इसके बारे में सोचना है तो ये सोचिये कि कॉन्ग्रेसी सरकारों को (राजस्थान जैसी जगहों पर) सत्ता में आते ही पाठ्यक्रम बदलने में कितनी देर लगी? महिनाभर भी लगा क्या? अब सोचिए कि कहीं, किसी तरह कल को ये सत्ता में आए तो एक आदेश में अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण नहीं रुकवाएँगे, इसकी क्या गारंटी है?
सांप्रदायिक सौहार्द्य बिगड़ रहा है, ऐसा कहकर एक आदेश भर तो निकालना है। फिर अगले पचास साल तक सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा लड़ते रहिए। वो भी कैसे? कोई संगठन तो आपने बनाया ही नहीं, जो हिन्दुओं के पक्ष से मुकदमे लड़े! कौन लड़ेगा? वकीलों की फीस, अदालत का खर्च, कौन देगा? फिर से वही ट्रस्ट जो राम मंदिर के निर्माण के लिए बना है?
ऐसा एक बार, एक मंदिर के मामले में तो हुआ नहीं है। भोजशाला के मामले में हुआ है, सबरीमाला के मामले में अदालती आदेश पर भाजपा और संघ दोनों हाथ झाड़कर अलग हो ही गए थे। उन्होंने आपकी आवाज़ दबाने के लिए कानून नहीं बनाए, ये मत कहिएगा क्योंकि पूरा ‘प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट 1991’ ही मौजूद है।
एक पन्ने का कानून आपको अपने मंदिरों पर अधिकार लेने से रोक देता है। अगर इतने से मन न भरे तो वो आपकी मूर्तियों को पुरातात्विक महत्व का बताकर किसी म्यूजियम में डाल देंगे, जहाँ वो पूजा से वंचित रहें और आप उसे देखने के लिए पैसे देकर घुस सकें।
अपने देवी देवताओं की वो मूर्तियाँ जो जबरन कब्जे में लेकर म्यूजियम में रख ली गईं हैं, उनके लिए सरकार टिकट ले, सभी को घुसने न दे तो वो ठीक है। फिर वो आप पर इल्जाम लगाएँगे कि आप जातीय आधार पर भेदभाव करते हैं, सभी को मंदिर में घुसने नहीं देते।
आपका कुत्ता टॉमी और हमारा कुत्ता – कुत्ता का इससे बढ़िया उदाहरण कहाँ मिलेगा? ये सारा सौतेला व्यवहार हिन्दुओं के साथ हर रोज, हर मामले में होता रहता है, इसके बाद भी संगठित तरीके से इसके विरोध का कोई प्रयास क्यों नहीं हुआ, ये भी सोचने की बात है।
इसके पीछे एक बड़ा कारण ये है कि हिन्दुओं ने लम्बी लड़ाइयाँ लड़ी और जीती तो जरूर, मगर उनसे जो सीख मिली उन्हें लिखकर आने वाली पीढ़ियों को सिखाने का प्रयास नहीं किया। उन दस्तावेजों को धरोहर के रूप में नहीं छोड़ा।
इसलिए हर पीढ़ी जब अपनी लड़ाई शुरू करती है तो उसे ‘ट्रायल एंड एरर मेथड’ से खुद गलतियाँ कर कर के, नुकसान झेल-झेल कर सीखना पड़ता है। इसकी वजह से कई मोर्चों पर हार का सामना भी करना पड़ता है। जीवन और धर्म तो बच जाता है, लेकिन जमीन लगातार घटती जाती है।
इसी वजह से 1950 के दौर में जैसे पाकिस्तान कहकर एक टुकड़ा छीन लिया गया, वैसे ही अब कम से कम सात राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं और उन्हें अल्पसंख्यकों का दर्जा, वैसे अधिकार भी सरकार देने को तैयार नहीं।
कोई केन्द्रीय संगठन होता तब तो इस ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को परिभाषित करने के लिए भी कोई कानूनी लड़ाई होती! पिछले सात वर्षों में एक सरकार बनाकर निश्चिन्त होना भी कुछ वैसा ही है जैसे खेतों के चारों ओर एक बाड़ लगाकर कोई किसान बेफिक्र हो जाए।
बाड़ पशुओं से थोड़ी सुरक्षा अवश्य देगी लेकिन वो कहीं से टूटी न हो, कहीं उसका अतिक्रमण करके कोई चोर वगैरह घुस न आए हों, इसका ध्यान तो हमें खुद ही रखना होगा। हम बाड़ लगाकर सो गए निश्चिन्त किसानों जैसे हैं, जिसके खेतों से लगातार चोरियाँ जारी हैं। जो सबसे मामूली स्तर हो सकता है वो है संगठित चर्चाओं को शुरू करना।
समाजशास्त्र में पढ़ाया जाता है कि जिस समाज के इकठ्ठा होने, एक जगह जमा होकर बात-चीत करने की कोई जगह न हो, वो पतन की ओर उन्मुख है। हिंदुत्व को बचाए रखना है तो सबसे पहले ऐसी जगहें दोबारा बनानी होंगी।
लॉकडाउन के दौर ने ये भारत में सभी को सिखा भी दिया है। ज़ूम और दूसरे माध्यमों से ऐसी शुरुआत ऑनलाइन भी की जा सकती है। शुरुआत में इसके लिए कोई विशेष फण्ड भी नहीं लगेगा। हाँ, समय खर्च होगा और वो समय आपको देना होगा। बाकी अगर फेविकोल से कुर्सी पर चिपका अंग विशेष इतना सा हिलाने में भी कष्ट होता हो तो इन्तजार कीजिए।
जैसे स्त्रियों-बच्चों को छोड़कर भागती हुई केवल पुरुषों की भीड़ आज अफ़ग़ानिस्तान में दिखी है, वैसी जल्दी ही भारत में भी दिखेगी। बस एक अंतर है। उनके पास भागने के लिए कई मुल्क हैं। आपके खिलाफ तो चालीस से अधिक विश्वविद्यालय आज ही अभियान चला रहे हैं, कल आपको शरण देगा कौन सा देश?