भारत की फ़िल्म सिनेमा इंडस्ट्री ‘बॉलीवुड’, कई दशकों से मनोरंजन के साथ ही सामाजिक संदेश देने का एक बड़ा माध्यम। लेकिन एक लम्बे समय तक लोगों को एहसास ही नहीं हुआ कि सामाजिक संदेश देने की आड़ में बॉलीवुड आखिर परोस क्या रहा है?
दर्शकों को यह तय करने और समझने में लम्बा वक्त लगा कि बॉलीवुड एक बहुत बड़े अजेंडे का हिस्सा है, जिसके माध्यम से बड़ी साजिशों को अंजाम दिया जाता रहा और जब, जिसने, जिस तरह चाहा, समाज में वैसा नैरेटिव परोस कर इसका इस्तेमाल किया है।
चाहे राजकपूर के दौर की बात हो, जब बॉलीवुड में सोशलिस्ट, कम्युनिष्ट नैरेटिव अपनी पैठ बना रहा था, या चाहे अब ‘बेफ़िटिंग रिप्लाय’ फ़ेम अभिनेत्रियों की (जिन्हें कि कंगना रनौत बी ग्रेड की अभिनेत्री भी कहती रही हैं) हो, जो हिन्दू समाज और सभ्यता को अपने प्रयासों से नीचा दिखाने का हर सम्भव प्रयास करते नजर आते हैं, बॉलीवुड ने समय के साथ हर प्रयोग किया और हर वक्त यह सुनिश्चित किया कि यह भारतीय समाज की मूल भावना और सभ्यता के विपरीत ही रहे।
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इस साजिश में बड़े-बड़े फिल्म निर्माता, निर्देशक,अभिनेता, अभिनेत्री, पटकथा और संवाद लेखक और भारत में काम करने वाले फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब जैसे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफार्म भी शामिल हैं, जो हिंदुत्व के खिलाफ नकारात्मकता और कुछ खास धर्मों के प्रति आस्था पैदा करने की मुहिम पर काम कर रहे हैं।
लेकिन धीरे-धीरे ही सही, समय के साथ सब बदला है। सोशल मीडिया पर ऐसे कई ट्विटर हैंडल, यूट्यूब चैनल और फेसबुक पेज हैं, जो बॉलीवुड मे पैठ बना चुके ‘सेकुलर अजेंडे’ का पर्दाफाश कर के इनको को खुली चुनौती दे रहे हैं। पिछले दिनों DOpolitics ने हिंदुत्व-विरोधी अजेंडे की पोल खोलने पर ‘सब लोकतंत्र’ यूट्यूब चैनल बैन करने के मुद्दे को भी उठाया था।
आज हम एक नई फिल्म में हिन्दू प्रतीकों के अपमान पर बात करेंगे। इस फ़िल्म के रिलीज होने के साथ ही सोशल मीडिया पर भी फ़िल्म ‘हसीन दिलरुबा’ (Haseen Dillruba) का ‘सेकुलर अजेंडा’ विवाद का विषय बन गया है। सेकुलर शब्द से आप समझ ही गए होंगे कि मुद्दा हिन्दू धर्म का अपमान ही होगा क्योंकि भारत में सेकुलर होने की परिभाषा यही रही है।
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‘बेफिटिंग रिप्लाय’ फेम तापसी पन्नू (Taapsee Pannu) अभिनीत फ़िल्म ‘हसीन दिलरुबा’ 2 जुलाई को रिलीज हुई है। ‘हसीन दिलरुबा’ की कहानी लिखी है ‘मनमर्ज़ियाँ’ और ‘केदारनाथ’ जैसी फिल्में लिखने वाली कनिका ढिल्लों ने और फ़िल्म में डायलॉग्स लिखे हैं CID और आहट जैसे टीवी शो लिखने वाली अन्काना जोशी ने। फ़िल्म को डायरेक्ट किया है विनिल मैथ्यू ने। खैर नाम में क्या रखा है, इसलिए आते है संक्षेप में फ़िल्म की कहानी पर।
फ़िल्म की हिरोइन रानी कश्यप (तापसी पन्नू) से रिशू सक्सेना (विक्रांत मैसी) को प्यार हो जाता है।रिशू हरिद्वार के ज्वालापुर का एकदम सीधा-साधा ‘ टिपिकल हिन्दू परिवार’ का ‘गाय जैसा लड़का’ है, जबकि रानी दिल्ली की तेज-तर्रार छवि वाली लड़की है। दोनों की शादी हो जाती है लेकिन रिशू पति के रूप में अपनी ‘मॉर्डन खयालात’ वाली पत्नी, या यूँ कहें कि ‘वोक रानी’ के प्यार और रोमांस की उम्मीद को पूरा नहीं कर पाता।
रिशू की हालत मिर्जापुर वाले कालीन भैया की तरह ही होती है जो ‘शुरू होते ही खत्म’ हो जाता है। फ़िल्म के एक दृश्य में रानी और रिशू के बीच अंतरंग सम्बन्धों का दृश्य दिखाया गया है, जहाँ रिशू से ‘कुछ हो नहीं पाता’ और रानी मिर्जापुर वाली ‘बीना भाभी’ की तरह…
खैर, अगली सुबह माँ रानी से पूछती है कि कैसा रहा कल तो रानी कहती है:
“क्या कैसा रहा, पहले ही कहा था लव-मैरिज करने दो। अरेंज मैरिज में तो हसबैंड को पड़ी ही नहीं है। उसकी ‘घण्टी’ बजी, बस। ‘मन्दिर’ बन्द। बीवी भगवान भरोसे।”
इस दृश्य को आप इस वीडियो में देख सकते हैं –
जी हाँ मन्दिर! फ़िल्म के इस दृश्य के संवाद में ‘हिन्दू मन्दिर’ और हिन्दू प्रतीक मन्दिर की ‘घण्टी’ को ज़बरन डाल कर, सम्भोग क्रिया से जोड़ा गया है जो कत्तई अपत्तिजनक है।
आप सोचिए कि प्रगतिशील होने के नाम पर क्या इस फ़िल्म के इसी दृश्य में तापसी पन्नू, यानि रानी मंदिर, घंटी और भगवान की जगह मस्जिद, नमाज और अल्लाह जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर सकती थी?
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दुर्भाग्य यह है कि इस हिन्दू-विरोधी अजेंडा को अब सस्ती लोकप्रियता का जरिया भी बना लिया गया है। प्रचार चाहे दुष्प्रचार ही क्यों ना हो, आपको बाजार में किसी ना किसी तरह से बनाए रखता है। बॉलीवुड इस बात को भलीभाँति समझता भी है। हालाँकि, विगत कुछ समय में दर्शकों के पैटर्न में बदलाव आया है। उन्होंने बॉलीवुड के अजेंडाबाजों को बहिष्कार के माध्यम से सबक भी सिखाया है।
‘जेम्स ऑफ बॉलीवुड’ फ़िल्म के इस दृश्य में हिन्दू प्रतीकों को अपमानित करने के अजेंडे की पोल खोलते हुए लिखता है:
“बिस्तर के असंतोषजनक अनुभवों पर निराशा दिखाने के लिए भगवान, मंदिर, घंटा का मज़ाक क्यों उड़ाते हैं? ‘उर्दूवुड’ आखिर अल्लाह, मस्जिद, अज़ान, नबी, चर्च की घंटी, पवित्र आत्मा, जीसस जैसे शब्दों का प्रयोग करने से क्यों बचता है?”
‘जेम्स ऑफ बॉलीवुड’ अकाउंट ट्विटर और फेसबुक, दोनों पर ही काफी लोकप्रिय अकाउंट है, जो बॉलीवुड के ऐसे ही अजेंडे का पर्दाफाश करता रहता है। ‘जेम्स ऑफ बॉलीवुड’ बॉलीवुड के उन शातिर तरीके को भी एक्सपोज़ करता है जिसमे फ़िल्मों में पटकथा से लेकर गीत और डायलॉग तक ऐसे तैयार किए जाते हैं, जो हिन्दु धर्म के प्रतीकों का मज़ाक उड़ाते हैं।
लम्बे समय से सेकुलरिज़्म के नाम पर बनने वाली बॉलीवुड फिल्मों में हिन्दू देवी-देवताओं, पुजारी और मंदिरों को उपहास के रूप में पेश किया जाता है और उनकी नकारात्मक छवि बनाने की कोशिश की जाती है।
बात सिर्फ हिन्दू धर्म और उससे जुड़े प्रतीकों का मज़ाक उड़ाने या नकारात्मकता भरने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि एक बड़ी साजिश के तहत हिंदुओं की आस्था को कमज़ोर कर एक धर्म विशेष के प्रति आस्था को बढ़ाते भी है।
बॉलीवुड अपनी फिल्मों में हिंदू देवताओं को ऐसे दर्शाता है जैसे वो अपने भक्तों की प्रार्थना नहीं सुनते हैं। भगवान की मूर्ति-फ़ोटो के सामने किसी का कत्ल होता रहता है, किसी महिला का बलात्कार होता रहता है, वो ईश्वर से बचाने की प्रार्थना करते है लेकिन हिंदू देवता इसे देखते रहते हैं, जबकि इसके विपरीत अल्लाह से की गई दुआ तुंरन्त कुबूल हो जाती है।
उदाहरण के लिए फ़िल्म ‘कुछ कुछ होता है’ का एक दृश्य याद कीजिए जिसमें एक हिन्दू बच्ची नमाज़ पढ़ती है और उसकी दुआ कुबूल हो जाती हैं। धीरे-धीरे ही सही लेकिन बेहद शातिर और प्रभावी तरीके से हिंदुओं के दिमाग में यह डाला जा रहा है कि हिंदू देवता सिर्फ पत्थर मूर्ति हैं, उनमें भगवान नहीं देखना चाहिए जबकि निराकार अल्लाह अपने चाहने वालों का ख्याल रखता है।
अमिताभ बच्चन का तो आपको पता ही है। वो नास्तिक होते हुए भी 786 का बिल्ला बाजू में बाँधना नहीं भूलते, लेकिन जनियर बच्चन भी इस मामले में कम नहीं है। अल्लाह की इबादत के वक्त वो धर्म विशेष और अल्लाह पर पूरी श्रद्धा दिखाते हैं, लेकिन यही जूनियर बच्चन जगराते के वक्त देवी और भक्तों का मज़ाक उड़ाते हैं।
‘क्रान्ति’ फिल्म में माता का भजन करने वाला राजा गद्दार होता, लेकिन दूसरी ओर करीमखान एक महान देशभक्त होता है जो देश के लिए अपनी जान दे देता है। ‘शोले’ में रहीम चाचा अपने धर्म के प्रति इतने जागरूक हैं कि बेटे की मौत के बाद मस्ज़िद में नमाज़ पढ़ने जाते हैं, लेकिन वीरू शिव मंदिर में बसन्ती को छेड़ता है।
अमर-अकबर-एंथनी फिल्म में किशनलाल एक खूनी और स्मगलर है, लेकिन उसके बच्चों को पालने वाले मुस्लिम और ईसाई महान और नेक इंसान है। बॉलीवुड में जड़ जमा चुकी जिहादी विचारधारा के प्रगतिशील, उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष पोषक, असल में हिन्दू धर्म पर हमला कर के हिन्दुओं की धार्मिक आस्था को उदासीन करने और इस्लाम के अंधविश्वास, कुरीतियों और जिहाद तक को जायज़ धार्मिक आस्था का बुर्का पहना कर फिल्मों में परोसते हैं।
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जानबूझ कर एक साज़िश के तहत बॉलीवुड की फिल्मों में हिंदू धर्म को कमज़ोर और नीचा दिखाया जाता है ताकि हिन्दू धर्म को नुकसान पहुँचाकर हमारी उन परंपराओं को नष्ट किया जा सके जिन पर आस्था के चलते ही हम हज़ारों सालों के आततायी आक्रमण के बाद भी सीना ताने खड़े हैं।
…लेकिन अब समाज जागरूक है और कई युवा पूरी हिम्मत से बॉलीवुड के इस जिहादी अजेंडे को बेनकाब कर रहे हैं। वक्त है इन युवाओं के साथ खड़े होने का, हिन्दू समाज की एकजुट आवाज़ बनने का और बॉलीवुड की अजेंडा फिल्मों के सामूहिक बहिष्कार का।