अपने शुरुआती दौर में 80 साल पहले भी मुम्बई के सिनेमा उद्योग में कुछ लोग हिंदू प्रतीकों, परंपराओं और मंदिरों का उपहास कर रहे थे। यह केवल सलीम-जावेद के दौर की बीमारी नहीं है। महबूब खान की 1942 की क्लासिक रचना ‘रोटी’ इसकी मिसाल है, जिसमें गाने, संवाद और दृश्यों में ठीक वही किया गया, जो बहुत देर से दर्शकों की पकड़ में आया और जिसका खामियाजा आज की खान तिकड़ी भुगत रही है।
अमिताभ बच्चन जिस साल पैदा हुए थे, 1942 में एक फिल्म आई थी-रोटी। महबूब खान के निर्देशन में बनी यह अपने समय की बेजोड़ मूवी है। भारत की आजादी के पाँच साल पहले अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन की आबाेहवा थी।
तब बंबई का सिनेमा रोटी की अहमियत रेखांकित कर रहा था। ब्लैक एंड व्हाइट सिनेमा के सीमित तकनीकी साधनों के साथ बनी इस फिल्म को आज वीएफएक्स के हाइटेक युग में देखना जैसे किसी दूसरे युग में झाँकने का अनुभव है।
फिल्म एक ही देश में दो अलग देशों की कहानी बताती है। एक शहरों में बसी दुनिया और दूसरी दूर पहाड़ी जंगलों में रहने वाले लोग। शहरी जीवन अमीरों और गरीबों के बीच एक ऐसी खाई पर बसा है, जहाँ ताकतवर और ताकतवर होता जाता है और वह भी कमजोर के शोषण और दमन की कीमत पर।
जबकि देहातों में जहाँ लोग केवल अपनी मेहनत और ईमानदारी से गुजर करते हैं, शहरी जीवन की सारी बुराइयों से दूर हैं। मानव समाज के ऐसे दो सिरों पर कुछ किरदारों के जरिए 128 फिल्म मिनट की यह फिल्म एक क्लासिक रचना है।
यह कन्हैयालाल और केएन सिंह की खलनायकी के भी पहले की फिल्म है, जिसमें शेख मुख्तार अकेले एक्टर हैं, जिन्हें सिनेमाप्रेमी आज भी जानते हैं। मैंने कॉलेज के दिनों में एक रात यह फिल्म दूरदर्शन पर देखी थी, तब टीवी चैनलों की बाढ़ नहीं आई थी।
कोई बदमाश कौआ एंटेना हिलाकर मजा किरकिरा कर देता था या बीच में बिजली गोल हो जाया करती थी। वह शटर वाले ब्लैक एंड व्हाइट वेस्टर्न टीवी की स्क्रीन थी। आज टीवी का वह दौर ही 1942 का लगता है।
जिसे मैं बरसों तक गोप (उसी दौर के एक हास्य अभिनेता) समझता रहा, वह चंद्रमोहन नाम के एक दूसरे ही एक्टर थे, जो इस फिल्म में सेठ लक्ष्मीदास बने हैं। दौलत में भी सोने से जानलेवा लगाव रखने वाला एक लालची और फरेबी कारोबारी।
डार्लिंग उस सेठ की बेटी है, जिसकी दौलत पर लक्ष्मीदास कब्जा जमाकर बैठा। यह अख्तरीबाई फैजाबादी का किरदार है, जिसे बाद के दौर में बेगम अख्तर के नाम से दुनिया ने जाना। बेगम की आवाज में याद कीजिए-‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया।’
शेख मुख्तार सब तरह की शहरी बुराइयों से दूर एक आदर्श पहाड़ी गाँव का किरदार है। वे खेतों में मेहनत करते हैं और सबके बीच अनाज बराबर बाँटकर खुशी से रहते हैं। वे सोने से नफरत करते हैं। मुद्रा का चलन नहीं है। गरीब और अमीर क्या होते हैं, यह भी नहीं जानते। वह एक ख्वाबों की दुनिया है, जहाँ सोने की खदानों की तलाश में गए सेठ लक्ष्मीदास का छोटा सा विमान हादसे का शिकार हो जाता है।
सेठजी अपनी डार्लिंग के साथ ही जिंदा बचते हैं और इस गाँव में उनकी खिदमत होती है। डॉर्लिंग का दिल ईमानदार मेहनतकश बालम यानी शेख मुख्तार पर आ जाता है। बालम अपनी किनारी यानी सितारादेवी के साथ खुशी से हैं। सितारादेवी पर फिल्माया गया एक गीत तब का आइटम नंबर ही मानिए।
अंग्रेजों के भयावह दमन के दौर में यह फिल्म शहरी समाज में शोषण का एकमात्र प्रतीक उद्योगपतियों और काराेबारियों को मानकर चलती। मिलें, मिलों की चिमनियाँ, मजदूर, मजदूरों का शोषण, रईस कारोबारी। कारखाने में आई एक मजबूत क्रेन मशीन का ऐसा प्रतीक बताई गई, जो दर्जनों मजदूरों के बराबर का काम पलक झपकते करती है।
शोषण के शिकार आम मजदूरों का उस पर गुस्सा कि वह यह तकनीक अब रहा सहा काम भी छीन लेगी। दशकों बाद जब कम्प्यूटर आए तो यही हवा थी कि एक मशीन हजारों को बेरोजगार कर देगी। ये सारे मसले वाहियात थे। सबसे बड़ा मसला तो अंग्रेज थे। मगर यह कोई विषय ही नहीं है।
बंबइया फिल्म उद्योग इन दिनों दर्शकों के निशाने पर है। यह बॉलीवुड का मनहूस 2014 चल रहा है, जब सत्ता को उलटने के साथ ही सत्तर साल पुराना सेक्युलर सिक्का भी अपनी चमक खो चुका था।
इस नजरिए से फिल्म के कुछ दृश्य सोचने पर मजबूर करते हैं कि हिंदी सिनेमा में हिंदू प्रतीकों और देवताओं का मजाक या उन्हें लांछित करने का काम सलीम-जावेद के 786 छाप ताबीजी टोटकों से पहले से शिरोधार्य है।
अशरफ खान नाम के एक गोलमटोल एक्टर पर फिल्माया गया, उन्हीं की आवाज में गीतकार सफदर आह का लिखा एक गाना है-‘बड़े तुम धर्म वाले हो, ये अच्छा काम करते हो, गरीबों पर दया करके, बड़ा अहसान करते हो।’
दान परंपरा पर एक गहरे तंज के रूप में यह गाना विशाल दीप स्तंभों वाले महाराष्ट्र के किसी प्राचीन मंदिर के बाहर फिल्माया गया है, जिसमें मंदिर के बाहर भिखारियों को दान दे रहे कुछ संपन्न हिंदू सेठ टाइप किरदार नजर आते हैं।
दूसरा एक छोटा सा दृश्य है। सेठ लक्ष्मीदास ने डार्लिंग को घर में कैद किया है। पहरेदार को बुलाकर डार्लिंग कुछ रुपए का लालच देती है और टेलीफोन को लाने के लिए कहती है ताकि वह सेठ के इरादे बाहर किसी को बता सके। वह पहरेदार अभी-अभी फ्लॉप हुई संजय दत्त की ‘शमशेरा’ जैसा बड़ा भारी त्रिपुंड माथे पर लगाए यहाँ-वहाँ देखकर रिश्वत जेब में सरका लेता है।
न तो उस गाने में मंदिर की पृष्ठभूमि जरूरी थी और न ही आधे मिनट के इस दृश्य में आए एक भ्रष्ट पात्र के माथे पर त्रिपुंड प्रासंगिक था। फिर दान पुण्य के मामले में वह कोई दरगाह भी हो सकती थी और त्रिपुंड की जगह कोई जालीदार टोपी वाला भी हो सकता था, लेकिन महबूब खान निर्देशित, वजाहत मिर्जा के स्क्रीन प्ले और शम्सुद्दीन कादरी द्वारा संपादित इस फिल्म में यही हिंदू प्रतीक लिए गए हैं।
भले ही यह किसी साजिश या शरारत के सिलसिले में न हो, मगर यह हिंदी सिनेमा को बहुत देर से बहुत भारी पड़ी एक बुरी आदत की शुरुआती झलक है। फिल्म के लेखक कोई आरएस चौधरी हैं।
उस दौर की ज्यादातर फिल्मों की तरह यह भी घनघोर उर्दू संवादों से इस कदर भरी है कि लगता है बंबई की बजाए लाहौर से बनकर आई है। मगर कुछ स्थानों पर बड़ी सुविधा से उर्दू भुला दी जाती है और खुदा की जगह भगवान ले लेते हैं।
जैसे सोने की दीवानगी पर शेख मुख्तार के हिस्से आया यह संवाद-‘सोने का भगवान सच्चे भगवान से बहुत ज्यादा ताकतवर है। न जाने इस बड़े संसार में कितने ऐसे पुजारी होंगे, जो सुनहरी भगवान की पूजा करते होंगे?’
बहरहाल यह फिल्म एक ऐसे साल आई, जब 40 करोड़ आबादी वाला भारत अखंड था। अंग्रेजों को निकाल बाहर करने के लिए सदियों के दमन के शिकार भारतीय आखिरी जोर लगा रहे थे।
सुभाष चंद्र बोस और मदन मोहन मालवीय जीवित थे। मोहनदास करमचंद गाँधी का भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था। मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के रूप में एक मुस्लिम देश का अपना इरादा जाहिर कर चुके थे। देश के टुकड़े-टुकड़े होने के साथ मिलने वाली आजादी सिर्फ पांच साल दूर थी और अमिताभ बच्चन पैदा हुए थे।