वेपनाइज़िंग (Weaponizing) समझते हैं आप? वेपन (Weapon) तो आप की समझ में आ ही गया होगा, शस्त्र। वेपनाइज़िंग का अर्थ होता है किसी वस्तु, किसी बात या किसी घटना को ‘शस्त्र’ बनाना।
इसे गहराई से समझने के लिए आप पिछले कई दशकों के भारत के अख़बार उठाकर देख लीजिए। आप पाएँगे कि भीड़ के बीच फँसे चोरों को, जेबकतरों को या बच्चा चोर होने के संदेह में पुलिस पहुँचने से पहले ही लोगों द्वारा मारपीट की घटनाएँ बहुतायत में मिलेंगी।
भारत में सड़क दुर्घटना के बाद ड्राइवर को, रेल दुर्घटना के बाद रेल कर्मचारियों को या सड़क पर छेड़छाड़ के आरोप के बाद किसी राहगीर की पिटाई की काफी पुरानी कुप्रथा है। सभ्य समाज में भीड़ द्वारा ऐसी हिंसक घटनाओं का समर्थन नहीं किया जा सकता, न कभी किया गया है लेकिन ये समाज के भीतर बहुतायत में होने वाली सामान्य घटनाएँ है, जो अक्सर घटित होती रहती है। ऐसी घटना तब गम्भीर हो जाती है जब पिट रहे व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
अतीत में कभी भी हिंसक या अनियंत्रित भीड़ द्वारा की गई ऐसी ‘पिटाइयों’ को कोई नाम नहीं दिया गया था, लेकिन साल 2014 के बाद इसको एक नाम दे दिया गया है, मॉब लिंचिंग! ‘मोब लिंचिंग’ की कैटिगरी में कई सारी ‘टर्म्स एंड कंडीशन’ यानी, नियम एवं शर्तें लागू होती हैं।
धर्मांध या आम भीड़ द्वारा पिटाई की कोई भी घटना मॉब लिंचिंग की श्रेणी में स्थान तभी बना पाती है, जब पिटने वाला व्यक्ति एक मजहब विशेष से जुड़ा हुआ हो। कभी कभी इस श्रेणी में ‘दलितों’ को भी जगह मिलती है, मगर तब जब पिटाई करने वाले ‘सवर्ण’ समुदाय से हों।
दरअसल, वामपंथी मीडिया और मजहब विशेष ने ‘मॉब लिंचिंग’ के ‘वेपनाइजिंग’ की कला विकसित कर ली है। कानपुर में अल्पसंख्यक समुदाय के एक ‘रिक्शा चालक’ की कथित पिटाई भी वेपनाइजिंग का सबसे ताजा उदाहरण है, जिसमें असली ‘पीड़ित’ नेपथ्य में चला गया और ‘आरोपित’ पीड़ित के तौर पर पेश किए जा रहे हैं। बाकी रह गया सिर्फ ‘पिता से लिपटकर रो रही बेटी’ का नैरेटिव।
टीवी चैनल चर्चाओं में ‘मुख्य अपराध’ पर चर्चा ही नहीं हो रही, इसलिए कम से कम हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि ‘पीड़ित’ रिक्शा चालक उन आरोपितों का ‘चाचा’ बताया जा रहा है, जिन पर एक ‘दलित महिला’ ने अपनी नाबालिग बेटी के धर्मान्तरण और निकाह के लिए धन का लालच देने और न मानने पर मारपीट करने का आरोप लगाया है।
मामले की तहकीकात के लिए जब DOpolitics टीम कानपुर के बर्रा थाने के अन्तर्गत आने वाले घटनास्थल पर पहुँची तो ‘राम गोपाल चौराहे’ पर माहौल एकदम सामान्य था। इस चौराहे से एक सड़क यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक गुरु माने जाने वाले चौधरी रामगोपाल यादव के गाँव ‘मेहरबान सिंह का पुरवा’ जाती है। उसी सड़क पर चौराहे से बमुश्किल 20 कदम की दूरी पर सड़क से लगी हुई वो कच्ची बस्ती है, जहाँ का ये सारा मामला है।
बस्ती में रहने वाले सभी लोग गरीबी रेखा से भी नीचे की श्रेणी के हैं। करीब 20-25 परिवारों वाली इस बस्ती में ज्यादातर दलित समुदाय के लोग रहते हैं, जबकि कुछ परिवार मुस्लिम समुदाय से हैं। सभी परिवार मेहनत मजदूरी करके किसी तरह अपना पेट पालते हैं। बस्ती के भीतर ही एक मन्दिर है, जिसे आश्रम का नाम दिया गया है और बस्ती के ठीक सामने सड़क के दूसरी ओर एक हनुमान मन्दिर हैं।
दोनों ही मंदिरों में मूर्तियों के अलावा कोई भी धार्मिक चिह्न नहीं है और न ही बस्ती में रहने वाले किसी हिन्दू परिवार के घर के बाहर कोई धार्मिक चिह्न है, जबकि बस्ती में रहने वाले मुस्लिम परिवारों के घरों पर बड़े बड़े इस्लामी झंडे लगाए गए थे, जिन्हें कथित रूप से ‘अतिउत्साही भीड़’ ने उतार कर फेंक दिया था।
45 वर्षीय ‘पीड़ित’ रिक्शा चालक यानी, अफ़सार अहमद के घर के बाहर गली में बड़ी संख्या में पुलिसबल मौजूद था और साथ ही पत्रकारों का मेला भी।
सबसे पहले हमने वहाँ पहले से ही मौजूद अन्य पत्रकारों से ही मामले के बारे में जानना चाहा। एक स्थानीय पत्रकार ने बताया कि दलित महिला काफी दिनों से थाने के चक्कर लगा रही थी, लेकिन उसकी शिकायत पर सुनवाई नहीं हो रही थी।
पत्रकार ने दावा किया कि एक बार जब दलित महिला को थाने से भगाया गया तो वह स्वयं भी वहाँ मौजूद था। स्थानीय दुकानदारों से बात करने पर भी यही तथ्य सामने आया कि अगर पुलिस दलित महिला की शिकायत पर समय रहते कार्रवाई कर देती तो मामला इतना नहीं बढ़ता।
इसके बाद हमने ‘पीड़ित’ रिक्शा चालक अफ़सार अहमद से बात करने की कोशिश की। जब हम अफ़सार के घर पहुँचे तो उन्होंने ये कहते हुए बात करने से साफ इंकार कर दिया कि वो ‘बाहर’ से आने वाली मीडिया से ही बात करेंगे। सम्भवतः अफ़सार को ये निर्देश दिए गए थे कि उन्हें किन ‘लोगों’ से बात करनी हैं। काफी कोशिश के बाद अफ़सार हमसे बात करने के लिए तैयार हुए और बताया कि उनको मामले के बारे में कुछ नहीं पता। उनका कहना था कि वो तो ई-रिक्शा चला कर घर आ रहे थे, कि तभी ‘रानी’ ने भीड़ को इशारा किया कि ये सद्दाम का चाचा है इसे पकड़ो, तो ये बताएगा सद्दाम लोग कहाँ हैं।
अफ़सार कभी कहते कि उन्हें किसी ने नहीं बचाया, तो कभी कहते भीड़ में से कुछ लोगों ने उन्हें बचाया और कभी कहते हैं कि पुलिस ने उनको बचाया। अफ़सार ने ये भी बताया कि पहले वो पैडल रिक्शा चलाते थे, फिर उन्हें ‘जकात’ से पैसा मिला और उस पैसे से उन्होंने ई-रिक्शा ख़रीदा।
क्रॉस क्वेश्चन पूछे जाने पर अफ़सार ने हमसे बात करना बन्द कर दिया। इसी बीच वहाँ BCC और NDTV के पत्रकार भी आ गए। अफ़सार से बातचीत के दौरान ही अफ़सार की माँ भी आ गई। यह देखकर NDTV के पत्रकार ने अफ़सार से यह कहकर अपनी माँ से लिपट कर रोने के लिए कहा कि रात में रवीश कुमार टीवी पर उनकी बात करेंगे।
मेरे जैसे काम अनुभव वाले रिपोर्टर के लिए पत्रकारिता का यह स्वरुप एवं यह स्तर काफी आश्चर्यजनक था क्योंकि हमसे बात करते हुए अफ़सार एकदम सामान्य नज़र आ रहे थे। इस बीच वहाँ कुछ मुस्लिम नेताओं के साथ ‘भीम आर्मी’ के भी कुछ पदाधिकारी पहुँचे।
अब एक और आश्चर्य हमारा इंतज़ार कर रहा था। दलित राजनीति का दावा करने वाले भीम आर्मी पदाधिकारी अफ़सार के पास करीब 20 मिनट रुके लेकिन दलित समुदाय की रानी गौतम के पास 5 मिनट भी नहीं रुके।
अब हमारे लिए रानी का पक्ष भी जानना जरूरी था। जब हमने रमेश गौतम की पत्नी रानी गौतम, से बात की तो पता चला कि दरअसल पूरा मामला बस्ती में रहने वाले दो भाइयों- सद्दाम, सलमान और दलित महिला रानी गौतम के बीच का है।
सलमान और सद्दाम सगे भाई हैं। रानी गौतम से हमने बात की तो उन्होंने बताया कुछ दिनों पहले सद्दाम, सलमान और उनकी माँ कुरैशा बेगम उन पर धर्मान्तरण का दबाव बना रहे थे। रानी का आरोप है कि 9 जुलाई को उन्हें 20,000 रुपए लेकर अपनी 14 साल की बेटी रश्मि (बदला हुआ नाम) का निकाह और सपरिवार धर्म परिवर्तन के लिए कहा गया था।
एफआईआर में रानी गौतम ने कहा है कि जब उनकी बेटी पानी भरने जाती है तो सलमान, सद्दाम उस पर गंदे कमेंट करते हैं और यह भी धमकी देते हैं कि वो उसकी इज्जत लूटकर उनका धर्मान्तरण कर लेंगे।
धर्मान्तरण एवं निकाह का विरोध करने पर उसी दिन से आरोपित उनके घर मे सामने शराब पीकर गाली-गलौज करने लगे और अश्लील गाने बजाने लगे। धर्मान्तरण की बात न मानने पर उन्हें भी जान से मारने की धमकी देने लगे। रानी गौतम ने जब इसका विरोध किया तो दोनों आरोपितों ने एक स्थानीय युवक मुकुल के साथ मिलकर उनसे मारपीट की और उनकी बेटी मुस्कान को उठाकर ले जाने की कोशिश की। इसके बाद आरोपितों ने स्थानीय मुस्लिम नेताओं का सहारा लेकर रानी के खिलाफ ही थाने में मुकदमा भी दर्ज करा दिया।
रानी के खिलाफ मामला तो दर्ज हो गया, लेकिन रानी की शिकायत पर पुलिस ने मामला दर्ज नहीं किया, बल्कि उसे झूठा कहते हुए थाने से भगा दिया गया। रानी कहती हैं कि थाने के चक्कर लगाने के दौरान ही उनकी मुलाकात बजरंग दल के कार्यकर्ताओं से हुई, जिन्होंने उनकी मदद का आश्वासन दिया।
हिन्दूवादी संगठन के दबाव में पुलिस ने रानी की ओर से सद्दाम, सलमान और मुकुल के खिलाफ धारा 354 के तहत मामला तो दर्ज कर लिया, लेकिन आरोपितों को गिरफ़्तार नहीं किया और आरोपित आराम से अपने घरों में रह रहे थे।
कार्रवाई न होने से आरोपितों के हौंसले बुलंद थे और वो लगातार रानी को मुकदमा वापस लेने के लिए धमकी दे रहे थे। जब ये जानकारी बजरंग दल के कार्यकर्ताओं को हुई तो वो आरोपितों की तलाश में बस्ती में घुस गए। इस बीच भीड़ के हाथ रिक्शाचालक अफ़सार अहमद लग गए, जो आरोपितों का चाचा बताए जा रहे है।
इस पर भीड़ में मौजूद कुछ लोगों ने अफ़सार के साथ बदसलूकी और मारपीट की, उनसे ‘जय श्री राम’ का नारा लगवाया गया। ऐसी हरकत का समर्थन किया भी नहीं जाना चाहिए। लेकिन सवाल वही है कि ऐसी स्थिति आई ही क्यों?
रानी गौतम का धर्मान्तरण का आरोप इस तथ्य के साथ सिरे से खारिज किया जा रहा है कि आरोपितों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वो धर्मान्तरण के लिए 20,000 रुपए दे सकें। आर्थिक स्थिति तो रानी गौतम की भी अच्छी नहीं है, उनकी चार बेटियाँ और दो बेटे हैं।
अगर आरोप लगाए गए थे तो उनकी जाँच होनी चाहिए थी। आरोपितों की आर्थिक हालत का हवाला देकर आरोप खारिज करना कहाँ का न्याय है? क्या लोगों को पता नहीं है कि धर्मान्तरण के लिए धन कौन सी संस्थाएँ किन-किन तरीकों से मुहैया कराती है, इस नजरिए से जाँच करना क्यों जरूरी नहीं समझा गया?
अफ़सार अहमद के साथ मारपीट की गई है, इसमें कोई संदेह नहीं है। आक्रोशित लोगों ने उनसे ‘जय श्रीराम’ बुलवाकर वीडियो भी बनाया, जो उनकी मूर्खता और अपराध दोनों ही कहे जा सकते हैं।
मूर्खता और अपराध का बचाव होना भी नहीं चाहिए, ताकि ऐसे लोगों को सबक मिले लेकिन मारपीट की घटना की वेपनाइज़िंग कहाँ तक उचित है? पुलिस ने अफ़सार की शिकायत पर मारपीट करने वाले वाले 5 नामजद और 10 अज्ञात लोगों के खिलाफ 47, 323, 504, 506 की धाराओं में मुकदमा दर्ज करते हुए 3 लोगों को तत्काल ही गिरफ्तार भी कर लिया।
बावज़ूद इसके ‘अफ़सार’ के सहारे पूरे शहर में जुलूस निकाल कर ‘हिन्दू आतंकवादी मुर्दाबाद’ कहना ही ‘वेपनाइज़िंग’ हैं। अफ़सार को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर देश में हिन्दुओं के खिलाफ हिंसा की चेतावनी दी जाती है।
पिछले सात सालों में ही अंकित शर्मा, अंकित त्यागी, डॉ प्रशांत नारंग, ई-रिक्शा चालक रविंद्र, कासगंज के चंदन गुप्ता, बजरंग दल के प्रशांत पुजारी, तमिलनाडु के रामलिंगम, मथुरा के लस्सी विक्रेता भारत यादव समेत सैकड़ों नामों की फेहरिस्त है, जिनकी हत्या एक कट्टरपंथी मजहबी भीड़ ने बेहद क्रूरता के साथ की।
क्या आप इनमें से किसी भी घटना पर खुद को खुद ही निष्पक्ष बताने वाले पत्रकार को ज़ुबान खोलते देखा? इन हत्याओं को ‘मॉब लिंचिंग’ की श्रेणी से क्यों पृथक कर दिया गया? ये क्रूरतम हत्या ‘मॉब लिंचिंग’ की श्रेणी में जगह नहीं बना पाईं। जबकि कानपुर की एक मामूली मारपीट की घटना राष्ट्रीय खबर बनी हुई है। दलित बच्चियों के धर्मान्तरण के प्रयास का असली मुद्दा ‘अफ़सार अहमद’ की ‘मॉब लिंचिंग’ के सामने नेपथ्य में चला गया है।