यूट्यूब पर पिछले कुछ महीनों से एक गौरतलब आवाज गूँज रही है। सच को तलाश करती हुई एक सच्ची आवाज। उसका चेहरा सामने नहीं है, लेकिन जब वह आवाज गूँजती है तो स्क्रीन पर उसकी जगह पर लिखा आता है- ‘सचवाला’।
यह शख्स भारतीय है, जिसने 57 साल तक मुस्लिम परिवेश में रहने के बाद एक दिन खुद को अपने सवालों के साथ अकेला पाया। उसे कोई जवाब नहीं मिले और वह इस्लाम से बाहर आ गया। दो या डेढ़ साल पहले उनकी एक नई यात्रा शुरू हुई।
उनकी आवाज में अफसोस साफ झलकता है –
“मुझे मेरे बीवी-बच्चों ने अलग कर दिया। मेरे पाँच भाई मुझसे दूर हो गए। मोहल्ले में रहना-जीना मुश्किल हो गया। मैंने किसी का माल नहीं खाया। किसी का दिल नहीं दुखाया। किसी को कत्ल नहीं किया। किसी को धोखा नहीं दिया। कोई बताए कि मेरा कुसूर क्या है? मैंने कौन सा गुनाह किया है?”
वे फर्राटेदार अरबी में बात करते हैं। कुरान के 114 सूरे की हर आयत अपने सटीक संदर्भ के साथ उन्हें कंठस्थ है। हदीसों से किसी भी आलिम से बेहतर वाकिफ हैं। हज और उमरा कई दफा कर चुके हैं। इस्लाम की हर हरकत को उन्होंने एक ईमानदार जिज्ञासु की तरह देखा और समझा है। उम्र का एक बड़ा हिस्सा दीन के पक्के मुस्लिम की तरह गुजारने के बाद उन्हें तमाम तरह के सवालों ने घेर लिया, जिनके जवाब कहीं नहीं मिले।
न किताब में, न किताबों के जानकारों के पास। वहाँ थे सिर्फ दावे और यकीन, वो भी बिना सबूत के। उनके शब्द हैं –
“मैंने पाया कि कुरान पूरी तरह से एक अरब आइडियोलॉजी है। यह एक आक्रामक और सशस्त्र सियासी विचारधारा है। मैं इस अरब विचारधारा को मानने से इंकार करता हूँ। मैं जानना चाहता हूँ कि इन दावों की हकीकत क्या है, लेकिन किसी के पास जवाब नहीं हैं, दलीलें नहीं हैं, अंधे यकीन हैं। मैं इस्लाम को छोड़ चुका हूँ।”
‘सचवाला’ जी इन दिनों यूट्यूब चैनलों पर गूँजती एक बेहद मकबूल आवाज हैं। हजारों लोग उनसे उनकी जिंदगी के बारे में पूछ रहे हैं। उनके गैर-मुस्लिम श्रोताओं की दिलचस्पी यह जानने में है कि इस्लाम से बाहर उनकी जिंदगी कैसी कट रही है। जो दीन के पक्के मुस्लिम हैं, वे उन्हें समझाइश या लानतें दे रहे हैं, क्योंकि इस्लाम की कड़क बंदिशों में किसी को बाहर जाने की इजाजत नहीं है। अगर किसी ने इस्लाम को छोड़ा तो वह मुलहिद या मुरतद है, जिसकी सजा तय है। जो मुस्लिम घुटन महसूस करते हैं, उनके लिए ‘सचवाला’ एक उम्मीद जगाने वाली आवाज बन गए हैं।
वसीम रिजवी ने कुरान की जिन आयतों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, ‘सचवाला’ उन और उन जैसी तमाम आयतों को अरबी में पढ़कर शुद्ध हिंदी में उनके अर्थ और व्याख्या करते हैं। वे फरमाते हैं –
“हजरत मोहम्मद के ढाई सौ साल बाद आयतों को संकलित किया गया। वह कोई अल्लाह की लिखी हुई किताब नहीं है। हदीसें भी बहुत बाद में लिखी गई हैं। उनमें लिखने वालों की मनमानियाँ स्पष्ट नजर आती हैं। लेकिन आँख बंद करके मनवाने पर जोर रहा है, खुली आँखों से सच का सामना करने की इजाज़त नहीं रही। मैं जाने बगैर मानने से इंकार करता हूँ।”
‘सचवाला’ के सवाल तीखे हैं –
“कुरान में कहाँ लिखा है कि वह अल्लाह ने मोहम्मद पर उतारा है? बगैर दलील के लोग मान लेते हैं। इतनी बड़ी बात खुद जानने की कोशिश नहीं की। जो बात कुरान में है ही नहीं, वह लोग मनवाने पर उतारू रहते हैं। हम दस रुपए की चीज बाज़ार से खरीदने के पहले देख-परखते हैं। लोग इतनी बड़ी बात बिना जाने-माने बैठे हैं। मैंने 57 साल इसकी टोह में लगा रहा, जब जवाब नहीं मिला तो मैं बाहर आ गया। जानने की कोशिश करना क्या जुर्म है?”
एक बहस में हैदराबाद का एक आलिम उन्हें सिर्फ इस वजह से ज़ालिमों में शरीक ठहराता है, क्योंकि वे इस्लाम से बाहर हो गए। यानी, जो इस्लाम को नहीं मानता, वह ज़ालिम है। वह आलिम पूछता है कि आप मुस्लिम हैं या मुरतद हो गए हैं, काफिर हो गए हैं? वह फैसला सुनाता है कि ‘आलमे-इस्लाम आपको मुरतद ही मानेगा। आपके पास अभी भी मौका है कि आप इस्लाम पर यकीन ले आएँ या क़ाफ़िर रहें’।
वे जवाब देते हैं –
“मैं अब एक इंसान हूँ। मुझ पर यह ठप्पा लगाने का हक दिया किसने इस्लाम को? मैं हाफ़िज़े-क़ुरान हूँ। तफ़सीरें पढ़ चुका हूँ। क्लासिक अरबी पढ़ी। चालीस साल तक पढ़ता रहा। बारह साल से गौर किया। मुझे कहीं बुनियाद नज़र नहीं आया। वह एक आधी-अधूरी बेबुनियाद विचारधारा है, जिसने दुनिया को जीते-जी ज़हन्नुम बनाकर रखा है।”
‘सचवाला’ मानते हैं कि क़ुरान और हदीसों के ढेर मिलकर भी उस एक विचार को मुकम्मल बुनियाद देने में नाकाम रहे हैं, जिसके दावे जोर-शोर से किए गए। लेकिन ज्यादातर लोग सिर्फ अरबी में रटे बैठे हैं। न उन्हें उनके अर्थ मालूम, न ही कोई संदर्भ और सवाल उठाना तो गुनाह ही है। इसलिए मानने और मनवाने पर जोर है, जानने और पूछने पर नहीं।
यह दलील गौरतलब है कि जब अल्लाह ने रास्ता बता दिया, जिसमें एक गलत, दूसरा सही है तो उसके आगे उसका क्या काम? एक बार जब यह बता दिया गया है कि यह हिदायत का रास्ता, यह गुमराही का रास्ता। अब यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह किस रास्ते पर चले। अल्लाह का दखल हर बात में क्यों? अल्लाह क्यों मुहर लगाता है दिलों पर? इस्लाम की दूसरी रवायतों को लेकर भी उनके पास सवालों की कमी नहीं है। औरत को मिल्कियत कहा गया, सूरे-निशा में तीन जगह लिखा- मिल्के अमीन।
‘सचवाला’ अकेले नहीं हैं, जो लंबी जिंदगी इस्लाम में गुजारने के बाद बाहर आकर दुनिया से रूबरू हैं। इस्लाम की नजर में वे मुरतद हैं। इसकी सजा मौत है। वे वाजिबुल-कत्ल हैं। इसलिए अपनी पहचान छिपाकर अपनी बात दुनिया के सामने रखना उनकी मजबूरी है।
‘सचवाला’ उनकी एक छिपी हुई पहचान है। कोई ‘आजाद ग्राउंड’ तो कोई ‘कोहराम’ के नाम से यूट्यूब पर सारी दुनिया में अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। लेकिन कई हिम्मतवर चेहरे अपनी पहचान के साथ खुलकर सामने हैं। बंगाल मूल की सारा खान काली दासी के नाम से अपने मशहूर यूट्यूब चैनल पर सक्रिय हैं। पंडित महेंद्रपाल आर्य भी एक पकी हुई उम्र में इस्लाम से बाहर आकर आर्य समाजी हो गए।
अफगानिस्तान मूल की डॉ फ़ौजिया रऊफ़ और अमीना सरदार इस्लाम पर खुलकर आगबबूला हैं। पाकिस्तान मूल के हारिस सुलतान, गालिब कमाल और महलीज सरकारी के दुनियाभर में लोकप्रिय चैनलों के फ़ॉलोअर्स लगातार बढ़ रहे हैं। इनमें मुस्लिम देशों के ही पढ़े-लिखे नौजवान युवक-युवतियों की तादाद सबसे ज्यादा है।
वे इस्लामी दुनिया की हर हरकत पर अपनी राय पेश कर रहे हैं। वे राजनीतिक नेतृत्व की नीयत पर सवाल कर रहे हैं और सबसे ज्यादा मुल्ले, मौलवी, मस्जिद और मदरसों के खतरनाक फैलाव की हकीकतें उजागर कर रहे हैं। किताबी दावों और ब्यौरों के परखच्चे उड़ रहे हैं। ये सब लोग एक-दूसरे के चैनलों पर भी सवालों के जवाब दे रहे हैं।
इस्लाम के लिए इंटरनेट तेज हवा के एक ऐसे झोंके की तरह आया है, जिसने सदियों से बंद खिड़की-दरवाजे खोल दिए हैं। ‘एक्स मुस्लिमों’ की यह तेज़ रफ्तार लहर पिछले दो सालों में सामने आई है, जिनमें कई नए नाम तो पिछले 6-8 महीनों में जुड़े हैं। मौत के फतवे झेलने वाले सलमान रुश्दी की शैतानी आयतें अब बच्चों की दुनिया की बातें हैं।
इंटरनेट के चप्पे-चप्पे पर रुश्दी के ये नए युवा और आक्रामक अवतार बेखौफ होकर चुनौती पेश कर रहे हैं। वे मानने के लिए राजी नहीं हैं। वे जानना चाहते हैं। उनके पास सवाल हैं और दलीलें हैं। आलमे-इस्लाम का पहली बार अपने ही भीतर से उपजी ऐसी ताकतों से सामना हो रहा है, जो उसकी कमजोर बुनियाद को हर तरफ से हिलाने में लगे हैं।
इंटरनेट की इस ताकत ने मुख्यधारा के प्रिंट और टेलीविजन मीडिया के सामने वजूद का संकट खड़ा दिया है, जो कट्टरपंथी ताकतों के डर और भारत के दिव्यांग सेक्युलरिज्म के माहौल में इस्लाम की इस बढ़ती बेचैनी से बेखबर है।
(लेखक ने 25 साल प्रिंट और टीवी में बिताए हैं। सात किताबें प्रकाशित। भारत भर की आठ बार लगातार यात्राएँ की हैं। भारत में इस्लाम के फैलाव पर उनकी आठवीं किताब छपकर आ रही है)