शर्म तुमको मगर आती नहीं लिब्रान्डूओं: तालिबान का नाम नहीं ले सकते और 'संघी' हैं बड़ी समस्या?

16 अगस्त, 2021 By: पुलकित त्यागी
तालिबान को कवरिंग फायर दे रहा भारतीय मीडिया गिरोह ?

एक बहुचर्चित निर्देशक क्रिस्टोफर नोलान की फ़िल्म आई थी ‘द प्रेस्टीज’। फ़िल्म में जादूगरी के कुछ नियम सिखाए गए थे, जिसमें से एक यह भी था कि जिस समय आप अपने जादू को दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हों, उस समय उनका ध्यान बँटाने के लिए कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे उनका ध्यान उस वस्तु (जिस पर जादू किया जा रहा है) से हटकर किसी अन्य वस्तु पर चला जाए।

कुछ ऐसी ही नियमावली का प्रयोग भारत के वामपंथी और इस्लामी पत्रकार तालिबान-अफगानिस्तान के मामले को लेकर करते दिख रहे हैं। एक ओर विश्व के समक्ष यह साफ है कि तालिबान एक इस्लामी संगठन है जिसने अफगानिस्तान नामक देश को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी और आज 20 साल बाद यह संगठन पुनः इस देश में अपनी जड़ें जमा रहा है और 1400 वर्ष पुरानी इस्लामी नियमावली को 21वीं सदी में स्थापित करने का स्वप्न लिए है।

दूसरी और भारतीय वामी-इस्लामी समूह इस सब पर टिप्पणी करने से बचने के लिए बार बार भारतीय दक्षिणपंथियों पर निशाना साधता दिख रहा है। 

तालिबान अफगानिस्तान में अन्य पंथों के धार्मिक चिन्हों को समाप्त करने से लेकर ईशनिंदा पर हत्याएँ करने एवं महिलाओं और बच्चियों को शारीरिक उपभोग की वस्तु बनाने के लिए खरीदने बेचने तक के कुत्सित कार्यों में लिप्त है।

कुछ समय पूर्व यह समाचार आया था कि तालिबानियों ने 15 वर्ष से बड़ी बच्चियों एवं 45 की आयु से छोटी विधवाओं तक की माँग की थी। वे उनका पंथ-परिवर्तन कर अपने आतंकवादियों से उनके निकाह कराने चाहते थे।

15 अगस्त, 2021 को तालिबान द्वारा अफगानिस्तान की राजधानी काबुल को कब्ज़ा लिया गया। राष्ट्रपति अशरफ गनी समेत समस्त अफगानी प्रशासन अपने देश को छोड़कर भाग खड़ा हुआ। ऐसे में भारत के कई कथित पत्रकार एवं समूह इस सब को लेकर एक अलग ही रवैया अपनाए हुए हैं।

भारतीयों पर निशाना साध रहा मीडिया गिरोह 

ये सभी वामपंथी और इस्लामी पत्रकार न केवल तालिबान को एक कट्टरपंथी और इस्लामी समूह कहने से बच रहे हैं बल्कि उनके द्वारा अफगानिस्तान में किए जा रहे रक्तपात को छिपाने के लिए ये लोग भारत समेत पूरे विश्व के राइट विंग को चिन्हित कर निशाना बना रहे हैं। इनमें से कई पत्रकार इस पूरे विवाद के लिए अमेरिका के सिर पर ठीकरा फोड़ते भी नज़र आए।

देखा जाए तो अमेरिका भी 20 वर्षों के बाद इस विचारधारा से लड़ने और इसे हराने में नाकामयाब ही रहा है, परंतु तालिबान द्वारा किए जा रहे कुकृत्यों को लेकर अमेरिका या अमेरिकी सेना को दोषी ठहराना किसी भी व्याख्या के तहत मान्य नहीं साबित हो सकता।

कथित पत्रकारों के एक धड़े ने तो भारतीय दक्षिणपंथियों को इस प्रकार निशाना बनाना प्रारंभ कर दिया है मानो अफगानिस्तान में चल ही मार-काट का दोषी तालिबान नहीं बल्कि भारतीय हिंदू हों। जहाँ भारत में कई कट्टर मुस्लिम समूह तालिबान द्वारा अफगानिस्तान पर कब्ज़े का जश्न मना रहे हैं, वहीं ये कथित पत्रकार इस समय भी इन समूहों पर बोलने की जगह दक्षिणपंथियों को संघी और ट्रोल कहने में व्यस्त हैं।

भारतीय मुस्लिम के इन समूहों की अन्य भारतीयों द्वारा आलोचना की गई तो ‘द वायर’ की कथित पत्रकार आरफ़ा ख़ानम शेरवानी लिखती हैं कि तालिबान द्वारा अफगानिस्तान को क़ब्ज़ाए जाने के समय भी दक्षिणपंथी, भारतीय मुस्लिमों को निशाना बना रहे हैं। इन संघियों को शर्म आनी चाहिए। 


विडंबना यह है कि इस्लामी आतंकी गिरोह एक पूरे देश में रक्तपात मचाए हुए हैं और एक अन्य समूह इस गिरोह की पैरवी कर रहा है और इन सब को भूलते हुए शेरवानी उन लोगों को शर्मिंदगी महसूस कराने में व्यस्त हैं जो इस कट्टरता के विरुद्ध खड़ा है।

बता दें कि ये वही आरफा शेरवानी हैं, जो कुछ वर्षों पहले तालिबान को ‘गुड तालिबान’ और ‘बैड तालिबान’ जैसी श्रेणी में बाँटते हुए, इस आतंकी गिरोह को ‘कवरिंग फायर’ देती देखी गई थीं।


राणा की निगाहों में भी दक्षिणपंथी दोषी 

ऐसी ही अन्य पत्रकार राणा अय्यूब ने इस गंभीर समय ने भी दक्षिणपंथियों पर निशाना साधते हुए जादूगरी की ही तकनीक अपनाई। अय्यूब ने तालिबान द्वारा अफगानी महिलाओं पर किए जा रहे अत्याचारों पर बोलने से बचने का माध्यम ‘कटाक्ष’ से निकाला। राणा ने भारतीय दक्षिणपंथियों द्वारा अफगानी महिलाओं की चिंता को एक विडंबना बताया।


एक अन्य ट्वीट में राणा ने अफगानिस्तान की दुर्दशा का कारण अमेरिकी समेत बाकी विश्व को बताया।


चिताओं पर माइक सजा कर रिपोर्टिंग करने वाली भारतीय इतिहास की पहली पत्रकार बनीं बरखा दत्त ने भी  ट्विटर पर अमेरिका को अपना दूसरा घर बताते हुए सारे विवाद का ठीकरा एक ही देश के सिर पर फोड़ दिया। बता दें कि बरखा ने अपनी किसी भी पोस्ट या ट्वीट में खुलकर तालिबान और इस्लामी विचारधारा के विरुद्ध एक शब्द तक नहीं लिखा है।


प्रवासियों को बसा लेना है समाधान? 

ट्विटर पर दुनिया भर के कई पत्रकार एवं वामी समर्थक पूरे विश्व एवं भारत से भी अफगानी शरणार्थियों को जगह देने और अपने देश में स्थापित करने की पैरवी कर रहे हैं। भारत के मामले में सबसे बड़ी विडंबना यह लगती है कि एक ओर ये लोग भारत में मुस्लिमों को डरा हुआ और शोषित बताते हैं, वहीं अब यही लोग अफगानिस्तान के मुस्लिम शरणार्थियों को भारत में रखना चाहते हैं।

भारत और पूरे विश्व के सामने अब ऐसे कई उदाहरण आ चुके हैं, जब यह साबित हुआ है कि इस्लामी आतंकवाद को इस तरह हराना तो संभव नहीं। शरणार्थियों को किसी विकासशील या विकसित देश में बसा देना इस समस्या का स्थाई समाधान नहीं हो सकता।

20 वर्षों तक अमेरिकी सेना द्वारा अफगानिस्तान में तालिबान के विरुद्ध चलाए गए ऑपरेशन के बाद एक बात तो साफ हो जाती है कि इस्लामी आतंकवाद और विचारधारा को केवल गोली या बम से समाप्त कर पाना तो शायद संभव नहीं है।



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